न जाने क्यों चुनाव करीब आते ही कुछ राजनेताअों को अपनी-अपनी पार्टियों में ‘घुटन’ महसूस होने लगती है। वो अचानक ‘बेबस’ दिखने लगते हैं। ध्यान रहे कि यह ‘राजनीतिक घुटन’ है, जो मेडिकल में दर्ज बीमारियों से अलग तासीर और तेवर वाली है। इसका इलाज तो है, लेकिन कोरोना की माफिक। यह ख्याल इसलिए भी आया कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री और तृणमूल कांग्रेस ( टीएमसी) नेता दिनेश त्रिवेदी ने शुक्रवार को राज्यसभा में भाषण देते-देते राज्यसभा से अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी। यह कुछ वैसा ही था कि दूल्हा, दूल्हन के गले में जयमाल डालते-डालते अचानक हाथ में कमंडल उठाकर मंडप से चलता बने।
त्रिवेदी ने सदन में कहा कि पार्टी में मुझे घुटन महसूस हो रही थी। मेरे राज्य बंगाल में लगातार हिंसा की घटनाएं हो रही हैं, लेकिन हम यहां कुछ भी नहीं बोल सकते। इसलिए मैं पार्टी से इस्तीफा दे रहा हूं। इस ‘घुटनजन्य’ इस्तीफे के बाद पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के मुहाने पर टीएमसी का एक और बड़ा विकेट गिर गया। त्रिवेदी के त्यागपत्र का भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और पश्चिम बंगाल प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय ने जिस उत्साह से स्वागत और भाजपा में आने का ऑफर दिया, उससे कोई भी समझ सकता है कि दिनेश त्रिवेदी को अगली ऑक्सीजन किस पार्टी में मिलने वाली है।
त्रिवेदी का इस्तीफा राज्य में कैलाश विजयर्गीय की मेहनत को मिला एक महत्वपूर्ण तमगा भी है। दरअसल बंगाल में टीएमसी नेता और मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के अभेद्य किले में सेंध 2019 के लोकसभा चुनाव में ही लग गई थी, जब भाजपा ने राज्य में 18 लोकसभा सीटें जीत कर और अपना वोट प्रतिशत 17 से 40 तक पहुंचाकर सभी को चौंका दिया था। उस नतीजे से घबराई ममता ने पार्टी की बैठक में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की पेशकश कर दी थी, जिसे पार्टी ने ठुकरा दिया था। तब ममता बैनर्जी को उम्मीद नहीं होगी कि जल्द ही वो वक्त आने वाला है, जब उनके अपने ही टीएमसी को डूबता जहाज मानकर छोड़ने लगेंगे और पार्टी ने नेताओं के ये इस्तीफे इस अंदाज में होंगे कि ममता दी को उन्हें ठुकराने की नौबत भी नहीं आएगी।
पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी का इस्तीफा कुछ इसी शैली का है। पूर्व यूपीए- 2 सरकार में टीएमसी कोटे से रेल मंत्री रहे और बाद में ममता के दबाव में मंत्री पद से इस्तीफा देने वाले दिनेश त्रिवेदी 2019 में बैरकपुर सीट से लोकसभा चुनाव हार गए थे। उसके बाद ही वो अनमने थे। पिछले साल ममता ने उन्हें राज्यसभा में भेजा। इस लिहाज से दिनेश त्रिवेदी को पांच साल और राज्यसभा में रहना था। फिर भी अगर उन्होंने सांसद पद छोड़ा तो शायद इसलिए क्योंकि टीएमसी की तीन पत्ती के बजाए उन्हें अब कमल के साथ अपना राजनीतिक भविष्य ज्यादा उज्ज्वल दिख रहा है। दिनेश त्रिवेदी मूलत: गुजराती हैं और उनका टीएमसी छोड़कर भाजपा में संभावित प्रवेश भी बीजेपी की उस रणनीति का हिस्सा है, जहां राज्य में सीधे विभाजन का दांव कई स्तरों पर बड़ी बारीकी के साथ चला जा रहा है।
त्रिवेदी के भाजपा में आने से गैरबंगाली भाषियों के बीच भाजपा के पक्ष में संदेश जाएगा, इसकी पूरी संभावना है। हालांकि त्रिवेदी के पार्टी छोड़ने पर प्रतिक्रियास्वरूप टीएमसी का ‘कोई फर्क नहीं पड़ेगा’ वाला बयान महज खानापूर्ति है। उसकी भीतरी चिंता यह है कि महज डेढ़ साल में पार्टी के कुल 6 सांसद और 14 विधायक टीएमसी को अलविदा कह चुके हैं। इनमें 4 सांसदों और 14 विधायकों भगवा दुपट्टा ओढ़ लिया तो 2 सांसद अभी भाजपा में सीधे तौर पर शामिल का इंतजार कर रहे हैं। इस भगदड़ से राज्य में पार्टी के अजेय होने के विश्वास पर प्रश्नचिह्न लग रहा है।
कोई भी नेता या पार्टी जनता में कितनी ही लोकप्रिय क्यों न हो, उसके सूत्र नेताओं और कार्यकर्ताओं के हाथ होते हैं। लेकिन अगर एक के बाद एक टीएमसी नेता व कार्यकर्ता पार्टी छोड़ भाजपा का हाथ थाम रहे हैं तो यह इस बात का संकेत है कि जमीनी स्तर पर हालात बदल रहे हैं। जहां एक तरफ को ममता को गद्दी से उतारने के लिए भाजपा बहुआयामी और आक्रामक रणनीति पर काम कर रही है तो दूसरी तरफ ममता बैनर्जी अभी भी बंगाली अस्मिता को आधार पर बनाकर ही किला लड़ा रही हैं।
लोकप्रियता की दृष्टि से वो आज भी राज्य में सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं, लेकिन जैसे-जैसे पार्टी के सिपहसालार ही टीएमसी को छोड़ते जाएंगे तो केवल प्यादों और व्यक्तिगत लोकप्रियता के भरोसे ममता कब तक अपना घर बचा पाएंगी? उधर भाजपा ममता को घेरने कई मोर्चों पर एक साथ हमला कर रही है। एक तरफ वह स्वामी विवेकानंद, सुभाषचंद्र बोस, रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे बंगाली प्रतीकों को अपना रही है तो दूसरी तरफ बंगाली गैर- बंगाली, हिंदू -मुस्लिम, स्थानीय बनाम शरणार्थी, अस्थाअयी नागरिकता बनाम स्थायी नागरिकता, बंगाली भाषी बनाम हिंदी व अन्य गैर बंगाली भाषी, बंगाली भद्रलोक बनाम इतर बंगाली समुदाय की गोलबंदी में जुटी है।
बांगलादेश से आए मतुआ समुदाय को अपने पाले में खींचने की जी-तोड़ कोशिश इसी रणनीति हिस्सा है। आलोचकों की नजर में यह भाजपा द्वारा बंगाल के ऊर्ध्व विभाजन की साजिश है तो भाजपा की दृष्टि में यह नई राजनीतिक लामबंदी है। और यह भी कि युद्ध और प्यार में सब जायज है। बेशक, ममता बैनर्जी दमखम वाली नेता हैं, लेकिन उनका इस तरह आत्ममुग्ध और आत्मकेन्द्रित होना ही उनका सबसे बड़ा दुश्मन बनता जा रहा है। आज गैर भाजपाई विपक्षी पार्टियां भी उनके साथ नहीं हैं। ध्यान रहे कि पिछले साल सीएए एनआरसी और मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी सभी विपक्षी पार्टियों की बैठक बुलाई थी। लेकिन ममता उसमें यह कहकर शामिल नहीं हुईं कि वे अकेले ही भाजपा के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लड़ेंगी।
तब से अब तक हुगली नदी में बहुत पानी बह गया है। राज्य के आसन्न विधानसभा चुनाव के महाभारत में ममता अभिमन्यु की तरह अकेले ही किला लड़ाती दिख रही हैं। लेफ्ट् से मुंह मोड़ने के बाद राज्य के 27 फीसदी मुस्लिम मतदाता एक दशक से ममता के साथ खड़े रहते आए हैं, लेकिन इस बार वहां असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम की धमाकेदार एंट्री ममता का वोट बैंक दरका सकती है। ओवैसी ने राज्य की 45 मु्स्लिम बहुल सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। जानकारों का मानना है कि बंगालीभाषी मुसलमान भले ओवैसी को ज्यादा तवज्जो न दे, लेकिन उर्दू भाषी या गैर बंगाली भाषी मुसलमानों में अोवैसी असर पैदा कर सकते हैं। मुस्लिम वोटों के बंटवारे का सीधा लाभ भाजपा को ही होना है।
किसी भी चुनाव के पहले राजनीतिक दलों के तंबुअों में अफरातफरी भारतीय राजनीति का चरित्र बन चुका है। सम्बन्धित पार्टी का जनसमर्थन खिसकता देख नेता अपना सियासी भविष्य सुरक्षित करने वैचारिक रूप से विरोधी राजनीतिक दलों में भी बचत खाते खुलवाने में रत्तीभर संकोच नहीं करते। जाहिर है कि दिनेश त्रिवेदी ने भी अधबीच में सांसदी छोड़ने का दांव किसी ठोस आश्वासन के बाद ही खेला होगा। हो सकता है कि वो राज्य में विधानसभा का चुनाव लड़ें या भाजपा के टिकट पर फिर राज्यसभा में लौटें।
पिछले दिनों केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बंगाल में अपने एक सार्वजनिक भाषण में कटाक्ष किया था कि विधानसभा चुनाव आते-आते ममता बैनर्जी अकेली रह जाएंगी। त्रिवेदी के टीएमसी छोड़ने के बाद शाह का तंज हकीकत में तब्दील होता दिख रहा है। यह बात अलग है कि इतने आयातित नेताअो को भरते जाने से लोग कहीं भाजपा को ‘भारतीय तृणमूल पार्टी’ न कहने लगें। इसलिए क्योंकि भाजपा पश्चिम बंगाल में परिवर्तन की बात कर रही है, लेकिन पुर्जे वही इस्तेमाल कर रही है, जो ‘खटारा’ गाड़ी में लगे थे। हालांकि नई गाड़ी में दिनेश त्रिवेदी जैसे नेताअों की ‘घुटन’ खुली हवा में सांस की शक्ल किस तरह ले पाती है, इसके लिए हमें चुनाव नतीजों का इंतजार करना पड़ेगा।
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल