हुड्डा सरकार जहां पिछले दस सालों के दौरान अपने कामकाज को लेकर जनता के बीच है, वहीं वह भ्रष्टाचार और ज़मीन घोटाले के आरोपों को लेकर विरोधियों के निशाने पर है. भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरकार चलाने के दौरान काफी निरंकुश दिखे. उन्होंने आलाकमान का आशीर्वाद प्राप्त करने के बहाने अपने विरोधियों को एक-एक करके ठिकाने लगाया. उनके कई अहम सहयोगियों ने भी चुनाव आते-आते पाला बदल लिया. कांग्रेस के कद्दावर जाट नेता एवं हुड्डा के धुर विरोधी चौधरी बीरेंद्र सिंह भी भाजपा में शामिल हो गए हैं. उनकी पत्नी भाजपा के टिकट पर किस्मत आजमा रही हैं.
पिछले दस सालों से राज्य की सत्ता पर काबिज कांग्रेस जहां अलोकप्रियता का दंश झेल रही है, वहीं इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) नेतृत्वहीनता से परेशान है, जिसके बड़े नेता ओमप्रकाश चौटाला जमानत पर रिहा हैं, अस्वस्थ हैं, और बार-बार विरोधियों का निशाना बन रहे हैं. वहीं भाजपा मंद पड़ती मोदी लहर एवं हरियाणा जनहित कांग्रेस से गठबंधन टूटने के बाद राज्य में कोई प्रभावी और बड़ा नाम न होने के कारण असहज स्थिति से गुजर रही है. हरियाणा जनहित कांग्रेस मोदी लहर के बावजूद अपना खाता न खुलने से परेशान थी. दूसरा झटका भाजपा ने उसे चुनाव से पहले गठबंधन तोड़कर दिया. ऐसे में वह भी अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है. अन्य पार्टियां भी जोड़-तोड़ के सहारे मैदान में हैं. बसपा ने कांग्रेस के सांसद रहे अरविंद शर्मा को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध लगाने का प्रयास किया है. इसके अलावा कुछ अन्य छोटे-छोटे दल एवं व्यक्ति भी धनबल के भरोसे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में लगे हैं. पूर्व मंत्री एवं कांग्रेस नेता विनोद शर्मा ने कुलदीप विश्नोई से हाथ मिला लिया है. चर्चित नेता गोपाल कांडा भी बाहुबल एवं धनबल के भरोसे चुनाव में डटे हुए हैं.
हुड्डा सरकार जहां पिछले दस सालों के दौरान अपने कामकाज को लेकर जनता के बीच है, वहीं वह भ्रष्टाचार और ज़मीन घोटाले के आरोपों को लेकर विरोधियों के निशाने पर है. भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरकार चलाने के दौरान काफी निरंकुश दिखे. उन्होंने आलाकमान का आशीर्वाद प्राप्त करने के बहाने अपने विरोधियों को एक-एक करके ठिकाने लगाया. उनके कई अहम सहयोगियों ने भी चुनाव आते-आते पाला बदल लिया. कांग्रेस के कद्दावर जाट नेता एवं हुड्डा के धुर विरोधी चौधरी बीरेंद्र सिंह भी भाजपा में शामिल हो गए हैं. उनकी पत्नी भाजपा के टिकट पर किस्मत आजमा रही हैं. पूर्व मंत्री विनोद शर्मा, जिन्हें मुख्यमंत्री का काफी क़रीबी समझा जाता था, भी कुलदीप विश्नोई की पार्टी से हाथ मिलाकर मैदान में हैं. निश्चित रूप से इसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ रहा है. बावजूद इसके वह कुछ ज़िलों में विपक्षियों पर भारी पड़ रही है, जैसे रोहतक और सोनीपत. पिछली बार कांग्रेस पार्टी ने 90 सीटों पर चुनाव लड़कर 40 सीटों पर सफलता प्राप्त की थी. उसे 35.08 फ़ीसद वोट मिले थे और वह पहले स्थान पर रही थी, लेकिन इस बार उसे अपना पिछला प्रदर्शन दोहराने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है.
इनेलो जहां इस बार सत्ता विरोधी लहर भुनाने में लगी हुई है, वहीं दूसरी तरफ़ खुद भी टिकट वितरण में असंतोष और पार्टी अध्यक्ष ओमप्रकाश चौटाला द्वारा चुनाव में समय न दे पाने के चलते परेशानी महसूस कर रहा है. विरोधी दल चौटाला को स्वास्थ्य कारणों से मिली जमानत पर पार्टी का प्रचार करने की शिकायत चुनाव आयोग से कर चुके हैं. हालांकि चौटाला अपने स्वास्थ्य के चलते पिछले चुनाव की तरह सक्रिय नहीं हैं, लेकिन वह अपनी कुशल रणनीति के सहारे दीगर पार्टियों के बड़े नेताओं को इनेलो के प्रचार के लिए लाने में कामयाब रहे. जींद में हुई सफल रैली में जहां उनके मंच पर शिरोमणि अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल ने पहुंच कर अपनी सहयोगी भाजपा को असहज स्थिति में ला दिया, वहीं बिहार में कांग्रेस पार्टी के साथ सरकार चला रहे जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव, पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एवं पार्टी के प्रधान महासचिव के सी त्यागी ने पहुंच कर कांग्रेस के लिए असहज स्थिति उत्पन्न कर दी.
पिछले विधानसभा चुनाव में इंडियन नेशनल लोकदल एवं अकाली दल गठबंधन ने 90 सीटों पर चुनाव लड़ा और 32 सीटों पर सफलता हासिल की. वहीं 28 सीटों पर गठबंधन के प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे. गठबंधन को 25.79 फ़ीसद वोट मिले. गठबंधन अपने पिछले प्रदर्शन से सुधार की ओर जाता नज़र आ रहा है. भाजपा लोकसभा चुनाव में मिली ऐतिहासिक सफलता से उत्साहित है, लेकिन बाद में हुए विभिन्न राज्यों के उपचुनाव में मिली शिकस्त और मंद पड़ती मोदी लहर के चलते राज्य विधानसभा चुनाव उसके लिए एक चुनौती है. वहीं टिकट वितरण के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं ने जिस तरह सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किया, उससे नेतृत्व के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई हैं. दूसरी तरफ़ राज्य में पार्टी के पास मुख्यमंत्री के तौर पर कोई बड़ा नाम नहीं है, जिसका उसे खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. उसके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों में कैप्टन अभिमन्यु, रामविलास शर्मा एवं ओ पी धनकड़ जैसे नाम हैं, जो अपने चुनाव क्षेत्रों में कड़ी लड़ाई में फंसे हुए हैं. चुनाव के वक्त मध्य प्रदेश से प्रभारी बनाकर लाए गए कैलाश विजयवर्गीय अभी हरियाणा को समझने में लगे हुए हैं.
भाजपा यहां अपने पिछले प्रदर्शन में सुधार करती नज़र आ रही है. उसे पिछली बार मात्र चार (9.04 फ़ीसद वोट) पर संतोष करना पड़ा था. इस बार वह 20 सीटों के आसपास पहुंचती नज़र आ रही है, क्योंकि लोकसभा चुनाव का कुछ असर मतदाताओं में बाकी है. हरियाणा जनहित कांग्रेस भाजपा के साथ अपना गठबंधन टूटने के बाद संकट के दौर से गुजर रही है. वह पिछले चुनाव में अपने प्रदर्शन (छह सीटें, 7.40 फ़ीसद वोट) को दोहराने के लिए कड़ी मशक्कत कर रही है. बसपा इस बार दलित-ब्राह्मण समीकरण के सहारे मैदान में है. उसने कांग्रेस के सांसद रहे अरविंद शर्मा को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, लेकिन उसका यह प्रयोग ज़मीन पर बहुत सफल होता नज़र नहीं आ रहा है. पिछले चुनाव में बसपा को एक सीट मिली थी और इस बार भी वह अपने पिछले प्रदर्शन के आसपास ही नज़र आ रही है.
हरियाणा में धनबल का अपना इतिहास रहा है. पिछले चुनाव में 7 निर्दलीय प्रत्याशियों ने सफलता हासिल की थी और इस बार भी यह संख्या इसी के आसपास रहने की संभावना है. भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक बार पुन: राज्य विधानसभा चुनावों में स्टार प्रचारक के रूप में उतारना यह साबित करता है कि वह हाल में हुए उपचुनावों के परिणाम से सकते में है और किसी भी प्रकार का जोखिम इन चुनावों में नहीं लेना चाहती. हरियाणा विधानसभा चुनाव का परिणाम एक तरफ़ जहां केंद्र सरकार के 100 दिनों के कार्यकाल के पश्चात मोदी की लोकप्रियता के लिए अग्नि परीक्षा साबित होगा, वहीं दूसरी तरफ़ यह पड़ोसी राज्य दिल्ली की चुनावी रणनीति भी तय करेगा. अगर हरियाणा में भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिली, तो वह दिल्ली में शायद ही चुनाव का जोखिम उठाए. ऐसे में फिर जोड़-तोड़ की सरकार ही एकमात्र विकल्प बनेगी.
अगर हम क्षेत्रवार हरियाणा की स्थिति देखें, तो पिछली बार पश्चिम हरियाणा की आठ सीटों (सिरसा की पांच एवं फतेहाबाद की तीन) में से इनेलो को चार, कांग्रेस को एक, शिरोमणि अकाली दल को एक और निर्दलीयों को दो सीटें मिली थीं.
इस बार भी यहां इनेलो का दबदबा साफ़ दिखाई देता है. उत्तरी हरियाणा की 23 सीटों में से इनेलो को 11, कांग्रेस को आठ, भाजपा को एक, हजकां को एक और अन्य को दो सीटें मिली थीं. इस बार भी यहां इनेलो की स्थिति मजबूत बताई जाती है. भाजपा भी अपनी स्थिति में सुधार करती नज़र आ रही है, लेकिन वहीं कांग्रेस को नुक़सान होता दिख रहा है. पिछली बार मध्य हरियाणा की 36 सीटों में से कांग्रेस को 20, इनेलो को नौ, हजकां को चार, भाजपा को दो और अन्य को एक सीट पर सफलता मिली थी. इस बार यहां कांग्रेस को नुक़सान होता दिख रहा है, वहीं भाजपा एवं इनेलो की स्थिति में सुधार नज़र आ रहा है. यह हजकां का प्रभाव क्षेत्र है. वह यहां अपना पिछला प्रदर्शन बरकरार रखने के लिए संघर्ष कर रही है और भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाने का प्रयास भी.
दक्षिण हरियाणा की सभी सात सीटों पर पिछली बार की तरह इस बार भी कांटे की लड़ाई है. पिछली बार यहां कांग्रेस को चार, इनेलो को दो और हजकां को एक सीट पर कामयाबी मिली थी. इस बार यहां भाजपा का खाता खुल सकता है. अगर पूर्वी-दक्षिण हरियाणा की बात करें, तो यहां की 16 सीटों में से सात पर कांग्रेस, पांच पर इनेलो, एक पर भाजपा और तीन पर निर्दलीय काबिज हैं. यहां बसपा का भी कुछ प्रभाव क्षेत्र है. इस बार यहां इनेलो एवं भाजपा को साफ़ बढ़त दिखाई दे रही है, वहीं कांग्रेस को ऩुकसान होता दिख रहा है. कुल मिलाकर इस बार इनेलो को लगभग 35 सीटों पर सफलता मिलने की संभावना है. वहीं कांग्रेस और भाजपा के बीच दूसरे नंबर की लड़ाई है, दोनों को 20 से 25 सीटें मिल सकती हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव के बाद क्या भाजपा चौटाला को समर्थन देगी, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में चौटाला के ख़िलाफ़ व्यक्तिगत टिप्पणियां करके माहौल इतना खराब कर दिया है कि चुनाव के बाद दोनों पार्टियों का साथ आना लगभग असंभव है.
पिछले विधानसभा चुनाव में इंडियन नेशनल लोकदल एवं अकाली दल गठबंधन ने 90 सीटों पर चुनाव लड़ा और 32 सीटों पर सफलता हासिल की. वहीं 28 सीटों पर गठबंधन के प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे. गठबंधन को 25.79 फ़ीसद वोट मिले. गठबंधन अपने पिछले प्रदर्शन से सुधार की ओर जाता नज़र आ रहा है. भाजपा लोकसभा चुनाव में मिली ऐतिहासिक सफलता से उत्साहित है, लेकिन बाद में हुए विभिन्न राज्यों के उपचुनाव में मिली शिकस्त और मंद पड़ती मोदी लहर के चलते राज्य विधानसभा चुनाव उसके लिए एक चुनौती है. वहीं टिकट वितरण के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं ने जिस तरह सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किया, उससे नेतृत्व के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई हैं. दूसरी तरफ़ राज्य में पार्टी के पास मुख्यमंत्री के तौर पर कोई बड़ा नाम नहीं है, जिसका उसे खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. उसके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों में कैप्टन अभिमन्यु, रामविलास शर्मा एवं ओ पी धनकड़ जैसे नाम हैं, जो अपने चुनाव क्षेत्रों में कड़ी लड़ाई में फंसे हुए हैं.