पिछली बार
इंदिरा गांधी की उनके ही एक सिख अंगरक्षक द्बारा हत्या करने के बाद, 1984 में जो सिख विरोधी दंगे और सुव्यवस्थित तरीके से सिखों का संहार हुआ, वह भारतीय इतिहास में सबसे काले अध्याय के रूप में दर्ज है. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अकेले दिल्ली में 2733 पुरुषों, औरतों और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया. वैसेमरने वालों की वास्तविक संख्या शायद इससे ज्यादा भी हो सकती है. यहां डरावना सन्नाटा पसरा हुआ था. हवा भी मानो सहम कर चल रही थी. माहौल में मानो दहशत और डर घोल दिया गया था. इंदिरा गांधी की उनके एक अंगरक्षक ने हत्या कर दी, यह ख़बर देश के विभिन्न कोने में पहुंच चुकी थी. शाम पांच बजे तक त्रिलोक पुरी और पूर्वी दिल्ली के चारों ओर के इलाक़े में हलचल मची हुई थी, लेकिन 31 अक्तूबर 1984 की शाम को उस क्षेत्र में एक परिंदा भी पर नहीं मार सका. इस मध्यम वर्गीय क्षेत्र में सिखों की संख्या काफी अधिक थी. इनमें से अधिकतर छोटे-मोटे दुकानों के मालिक थे. जैसे ही ख़बर उन तक पहुंची, उन लोगों ने अपनी दुकान का शटर बंद कर अपने घर की ओर चल दिए. अफवाहें तेज़ी से फैलती रही. किसी ने कहा सिख उत्सव मना रहे थे तो किसी ने कहा कि सिखों ने लड्डू बांटें. इस तरह की अफवाहों का दौर चलता रहा.
वास्तविकता कुछ और थी. सिख परिवारों के पुरुष, औरत और बच्चे घरों में बंद हो गए. कुछ गुरुद्बारों में रहने चले गए. वह समुदाय भयभीत और तनावग्रस्त था. वयस्क शायद ही खाते थे और रात-रात भर जगते थे. जैसे ही सुबह का उजाला फूटा, कुछ ने ख़ुद को दिलासा देना शुरू कर दिया कि सबसे बुरा पल बीत चला है. आख़िरकार, रात किसी न किसी तरह बीत ही गई थी. पूरी रात लूटपाट और दंगे की एकाध ही घटना हुई थी. अधिकतर सिखों को यह विश्वास था कि इस दुखद घटना के बाद भी दिल्ली शांत रहेगी, क्योंकि यह भारत की राजधानी है. पुलिस और प्रशासन 24 घंटे के अंदर स्थिति पर क़ाबू पा सकता है. हालांकि, यह विश्वास झूठा ही साबित हुआ.
दिल्ली में ख़ूनी खेल की शुरुआत इंदिरा गांधी की हत्या के 24 घंटे बाद हुई. पहले सिख की हत्या एक नवंबर की सुबह 10 बजे हुई. त्रिलोकपुरी में सुबह दस बजे के बाद हिंसा भड़क उठी. उपद्रवियों ने लोहे की छड़ों, तलवार, मिट्टी के तेल और बंदूकों से लैस होकर सिखों के घरों पर हमला करना शुरू कर दिया. उपद्रवी पूरी तरह तैयार थे और इसका नेतृत्व कांग्रेस के प्रमुख नेता कर रहे थे. इनमें रामपाल सरोज (इलाक़े के कांग्रेस अध्यक्ष), डॉ. अशोक गुप्ता ( एमसीडी में पार्षद) शामिल थे. स्पष्ट रूप से उस रात पूर्वी दिल्ली के कांग्रेस सांसद एचकेएल भगत ने अपने समर्थकों को सिखों से बदला लेने के लिए उकसाया और एकत्रित किया. जब उपद्रवियों ने सिखों के घरों पर हमला करना शुरू किया तो उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया. बहुत सिख परिवारों ने अपनी रक्षा की और उपद्रवियों को भागने के लिए मजबूर किया. हालांकि, उपद्रवियों का अधिक संख्या में आना जारी रहा. उपद्रवियों की योजना दरवाजे तोड़कर लूटपाट करने की थी. उसके बाद पुरुषों को मारना शुरू किया. बहुतों को ज़िंदा ही जला दिया. इसके बाद घरों को जलाने लगे. कई मामलों में बच्चों और महिलाओं को नहीं बचाया जा सका. त्रिलोकपुरी में उपद्रवियों को कोई जल्दबाज़ी नहीं थी. वे इंतज़ार कर रहे थे. हालात को देख रहे थे. एकजुट होकर हमला करने की तैयारी में थे.
सिखों को भागने के लिए कोई जगह नहीं बची थी. उन लोगों ने सभी गलियों को घेर लिया था. समय के साथ मौत का नंगा नाच और प्रचण्ड व उग्र हो रहा था. ब्लॉक में धुएं के बादल एक किलोमीटर दूर से देखे जा सकते थे और हवा में मांस के जलने की बदबू आ रही थी. यह नरसंहार ब्लॉक 32 में दिनदहाड़े इत्मीनान से किया गया. कल्याणपुरी पुलिस स्टेशन ने कोई कार्रवाई नहीं की, जो उसके क्षेत्र के नज़दीक था. एसएचओ सूर वीर सिंह त्यागी ने कल्याणपुरी जाना भी ज़रूरी नहीं समझा. कुछ समय बाद उन्होंने पत्रकारों से कहा कि उस क्षेत्र में शांति है. क्या यह नरसंहार एक नवंबर को ही ख़त्म हो गया? यहां तक कि इस सवाल को भी नहीं पूछा गया. दो नवंबर को दिन के दो बजे तीन पत्रकार त्रिलोकपुरी पहुंचे. इसमें इंडियन एक्सप्रेस के जोसेफ मैलियकन व राहुल बेदी और जनसत्ता के आलोक तोमर थे. पुलिसकर्मियों ने उन्हें यह कहा कि यहां स़िर्फ दो लोगों की मौत हुई है. उन्होंने इसको सच नहीं माना और नरसंहार के सबूत ख़ुद तलाशने के लिए खोजबीन शुरू कर दी.
उन्हें झुलसी और जली हुई लाशें मिलीं. इनमें से कुछ शवों को ट्रक में रखा गया था. ये तीनों पत्रकार सीधे पुलिस हेडक्वार्टर गए, जो यहां से कुछ ही दूरी पर था. आफिसर सेवा दास जिला के इंचार्ज थे और निखिल कुमार- जो बाद में पुलिस कमिश्नर बने और हाल में कांग्रेस के एमपी भी- को व्यक्तिगत तौर पर सूचना दी गई. नरसंहार को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया, जो अगले 24 घंटे (3 नवंबर) तक जारी रहा. कुल मिलाकर ब्लॉक 32 में 400 पुरुषों, बच्चों और महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया गया. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में कुल 2733 लोगों की हत्या हुई, जिनमें 1234 लोगों की हत्या स़िर्फ पूर्वी दिल्ली में हुई.
क्या भारत में हुए इस वीभत्स नरसंहार की ज़िम्मेदारी लेने के लिए कोई है? न ही एक पुलिसकर्मी, न ही एसएचओ, न ही डीसीपी. इस दुखद अध्याय के दौरान कई अधिकारी दिल्ली में ही तैनात थे. सभी को अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाने के बदले पुरस्कृत किया गया. लेकिन यह अगले लेख के लिए. मैंने सूचना के अधिकार के तहत दूसरे प्रश्न के साथ एक प्रश्न यह भी पूछा कि दंगे के दौरान पूर्वी दिल्ली में पुलिस क्या कर रही थी. इस पर जो जवाब मुझे डीसीपी ऑफिस से मिला मैं उसे लिख रहा हूं- पुलिस बल ने अपने कर्तव्य को क़ानून के दायरे में रह कर निभाया. ठीक इसी प्रश्न के दूसरे जवाब
में कहा गया कि दिल्ली पुलिस के अफसर 1984 दंगे के दौरान निष्पक्ष और प्रशंसनीय काम करते रहे. अगर न्याय करना आप पर होता, अगर दिल्ली पुलिस ने क़ानून के अंदर कार्रवाई की होती और अगर वे निष्पक्षता के साथ अपने कर्त्तव्य को अच्छे तरीक़े से निभाते. लेकिन प्रसिद्ध लेखक विलियम डेलरिंपल ने अपनी किताब सिटी ऑफ जिन्स- ए ईयर इन डेल्ही में इस नरसंहार को दूसरे रूप में बताया है. जब बाहरी दुनिया ने पहली बार इस नरसंहार के बारे में जाना तो, यह ब्लॉक 32 ही था, जो सुर्खियों में था. कुत्तों को मानव की आंतों को नोचते देखा गया. झुलसा और जला हुआ शव नाली में बह रहा था. तेल और पेट्रोल की गंध अब भी हवा में घुली हुई थी. सिखों को ज़िंदा जलाने से पहले उनके बाल काट दिए जाते थे, जिससे बाहर बालों का अंबार लगा हुआ था.
मैं निश्चित हूं कि इतिहास दिल्ली पुलिस की भूमिका को लेकर कभी उसकी बड़ाई नहीं करेगा. विडंवना यह है कि किसी को भी इसके लिए दोषी और ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया है. शायद इसलिए दिल्ली पुलिस अपनी भूमिका पर इस तरह की प्रतिक्रिया दे रही है. यह डरावना और ख़ौ़फनाक है, क्योंकि अगर हम इतिहास से नहीं सीखेंगे तो यह निश्चित रूप से अपने को दोहराएगा.