अगर सब कुछ सामान्य रहा, तो तीन महीने बाद मध्य प्रदेश में चुनाव होने हैं, लेकिन इधर पहली बार दोनों प्रमुख पार्टियों से इतर राज्य के आदिवासी समुदाय में स्वतंत्र रूप से सियासी सुगबुगाहट चल रही है. गोंडवाना गणतंत्र पार्टी तो पहले से ही थी, जिसका कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में अहम रोल माना जाता है, लेकिन अब ‘जयस’ यानि जय आदिवासी युवा शक्ति जैसा संगठन भी मैदान में आ चुका हैं, जो विचारधारा के स्तर पर ज्यादा शार्प है और जिसकी बागडोर युवाओं के हाथ में है.
जयस की सक्रियता दोनों पार्टियों को बैचैन कर रही है. डेढ़ साल पहले आदिवासियों के अधिकारों की मांग के साथ शुरू हुआ यह संगठन आज ‘अबकी बार आदिवासी सरकार’ के नारे के साथ 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है. ‘जयस’ द्वारा निकाली जा रही आदिवासी अधिकार संरक्षण यात्रा में उमड़ रही भीड़ इस बात का इशारा है कि बहुत ही कम समय में यह संगठन प्रदेश के आदिवासी समाज में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहा है. ‘जयस’ ने लम्बे समय से मध्य प्रदेश की राजनीति में अपना वजूद तलाश रहे आदिवासी समाज को स्वर देने का काम किया है. आज इस चुनौती को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियां महसूस कर पा रही हैं.
मध्य प्रदेश में आदिवासियों की आबादी 21 प्रतिशत से अधिक है. राज्य विधानसभा की कुल 230 सीटों में से 47 सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं. इसके अलावा करीब 30 सीटें ऐसी मानी जाती हैं, जहां पर्याप्त संख्या में आदिवासी आबादी है. 2013 के विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से भाजपा को 32 तथा कांग्रेस को 15 सीटें मिली थीं.
पिछले तीन विधानसभा चुनावों के दौरान आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की स्थिति
वर्ष कुल सीटें भाजपा कांग्रेस
2003 41 34 2
2008 47 29 17
2013 47 32 15
कांग्रेस-भाजपा की बेचैनी
‘जयस’ की विचारधारा आरएसएस की सोच के खिलाफ है. ये खुद को हिन्दू नहीं मानते हैं और इन्हें आदिवासियों को वनवासी कहने पर भी ऐतराज है. यह संगठन आदिवासियों की परम्परागत संस्कृति के संरक्षण और उनके अधिकारों के नाम पर उन्हें अपने साथ जोड़ने में लगा है और इसके लिए आदिवासियों की परम्परागत पहचान, संस्कृति के संरक्षण व उनके अधिकारों के मुद्दों को प्रमुखता उठाता है. 2013 में डॉ. हीरा लाल अलावा द्वारा जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) का गठन किया गया था, जिसके बाद इसने बहुत तेजी से अपने प्रभाव को कायम किया है. पिछले साल हुए छात्रसंघ चुनावों में ‘जयस’ ने एबीवीपी और एनएसयूआई को बहुत पीछे छोड़ते हुए झाबुआ, बड़वानी और अलीराजपुर जैसे आदिवासी बहुल ज़िलों में 162 सीटों पर जीत दर्ज की थी. आज पश्चिमी मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों अलीराजपुर, धार, बड़वानी और रतलाम में ‘जयस’ की प्रभावी उपस्थिति है, जबकि यह क्षेत्र भाजपा और संघ परिवार का गढ़ माना जाता रहा है.
मध्य प्रदेश में आदिवासियों को कांग्रेस का परम्परागत वोटर माना जाता रहा है, लेकिन 2003 के बाद से इस स्थिति में बदलाव आना शुरू हो गया, जब आदिवासियों के लिए आरक्षित 41 सीटों में से कांग्रेस को महज 2 सीटें ही हासिल हुई थीं, जबकि भाजपा ने 34 सीटों पर कब्ज़ा जमा लिया था. 2003 के चुनाव में पहली बार गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई थी, जो कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने का एक प्रमुख कारण बनी. वर्तमान में दोनों ही पार्टियों के पास कोई ऐसा आदिवासी नेता नहीं है, जिसका पूरे प्रदेश में जनाधार हो.
जमुना देवी के जाने के बाद से कांग्रेस में प्रभावी आदिवासी नेतृत्व नहीं उभर पाया है, पिछले चुनाव में कांग्रेस ने कांतिलाल भूरिया को प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया था, लेकिन वे अपना असर दिखाने में नाकाम रहे, खुद कांतिलाल भूरिया के संसदीय क्षेत्र झाबुआ में ही कांग्रेस सभी आरक्षित सीटें हार गई थी. वैसे भाजपा में फग्गगन सिंह कुलस्ते , विजय शाह, ओमप्रकाश धुर्वे और रंजना बघेल जैसे नेता जरूर हैं, लेकिन उनका व्यापक प्रभाव देखने को नहीं मिलता है. इधर, आदिवासी इलाकों में भाजपा नेताओं के लगातार विरोध की खबरें भी सामने आ रही हैं, जिसमें मोदी सरकार के पूर्व मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते और शिवराज सरकार में मंत्री ओमप्रकाश धुर्वे शामिल हैं. ऐसे में ‘जयस’ की चुनौती ने भाजपा की बैचैनी को बढ़ा दिया है और कांग्रेस भी सतर्क नजर आ रही है.
जयस का उद्भव
मध्य प्रदेश में आदिवासियों की स्थिति खराब है, शिशु मृत्यु और कुपोषण सबसे ज्यादा आदिवासी बाहुल्य जिलों में देखने को मिलता है, इसकी वजह यह है कि सरकार की नीतियों के कारण आदिवासी समाज अपने परम्परागत संसाधनों से लगातार दूर होता गया है. विकास सम्बन्धि परियोजनाओं की वजह से वे व्यापक रूप से विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर हुए हैं और इसके बदले में उन्हें विकास का लाभ भी नहीं मिला. वे लगातार गरीबी व भूख के दलदल में फंसते चले गए.
भारत सरकार द्वारा जारी ‘रिर्पोट ऑफ द हाई लेबल कमेटी आन सोशियो इकोनामिक, हैल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस आफ ट्राइबल कम्यूनिटी 2014’ के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी समुदाय में शिशु मृत्यु दर 88 है, जबकि मध्य प्रदेश में यह दर 113 है, इसी तरह से राष्ट्रीय स्तर पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 129 है, वही प्रदेश में यह दर 175 है. आदिवासी समुदाय में टीकाकरण की स्थिति भी चिंताजनक है.
रिर्पोट के अनुसार, देश में 12 से 23 माह के बच्चों के टीकाकरण की दर 45.5 है, जबकि मध्य प्रदेश में यह दर 24.6 है. जाहिर है, सरकारों द्वारा लगातार की गई अवहेलना के कारण ही आज आदिवासी समाज गरीबी और कुपोषण की जकड़न में है. दूसरी तरफ, स्थिति यह है कि पिछले चार सालों के दौरान मध्य प्रदेश सरकार आदिवासियों के कल्याण के लिए आवंटित बजट में से 4800 करोड़ रुपए खर्च ही नहीं कर पाई है. 2015 में कैग द्वारा जारी रिपोर्ट में भी आदिवासी बाहुल्य राज्यों की योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर सवाल उठाए गए थे. आदिवासियों की इन तमाम समस्याओं ने ‘जयस’ जैसे संगठनों के लिए जमीन तैयार करने का काम किया है. इस चुनावी मैदान में ‘जयस’ अपनी कई मांगों को जोर-शोर से उठा रहा है, जिनमें प्रमुख हैं-
- 5वीं अनुसूची के सभी प्रावधानों को पूरी तरह से लागू किया जाए
- वन अधिकार कानून 2006 के सभी प्रावधानों को सख्ती से लागू किया जाए
- जंगल में रहने वाले आदिवासियों को स्थायी पट्टा दिया जाए
- ट्राइबल सब प्लान के पैसे अनुसूचित क्षेत्रों की समस्याओं को दूर करने में खर्च हों
- पांचवी अनुसूची की धारा 244(1) के तहत आदिवासियों को मिले विशेषाधिकार वाले प्रावधान, जिन्हें सरकारों ने लागू नहीं किया है, उन्हें लागू किया जाए
नए समीकरण की संभावना
आदिवासी बहुल जिलों में ‘जयस’ के लगातार बढ़ रहे प्रभाव को देखते हुए कांग्रेस और भाजपा दोनों के रणनीतिकार उलझन में हैं. स्थिति सुधारने के लिए भाजपा पूरा जोर लगा रही है. इसके लिए शिवराज सरकार ने 9 अगस्त यानि आदिवासी दिवस को आदिवासी सम्मान दिवस के रूप में मनाया, जिसके तहत आदिवासी क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर कार्यक्रम हुए. इस मौके पर धार में आयोजित एक कार्यक्रम में खुद मुख्यमंत्री ने कई सारे वादे किए, जिनमें राज्य के कुल बजट का 24 फीसदी आदिवासियों पर ही खर्च करने, आदिवासी समाज के लोगों पर छोटे-मोटे मामलों के केस वापस लेने, जिन आदिवासियों का दिसंबर 2006 से पहले तक वनभूमि पर कब्जा है, उन्हें वनाधिकार पट्टा देने, जनजातीय अधिकार सभा का गठन करने जैसी घोषणाएं शामिल हैं. इस दौरान उन्होंने ‘जयस’ पर निशाना साधते हुए कहा कि कुछ लोग भोले-भाले आदिवासियों को बहका रहे हैं, पर उनके बहकावे में आने की जरूरत नहीं है.
इधर कांग्रेस भी आदिवासियों को अपने खेमे में वापस लाने के लिए रणनीति बना रही है. इस बारे में कार्यकारी अध्यक्ष बाला बच्चन ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को एक रिपोर्ट सौंपी है. जिसमें पार्टी से बीते चुनावों से दूर हुए इस वोट बैंक को वापस लाने के बारे में सुझाव दिए गए हैं. कांग्रेस का जोर आदिवासी सीटों पर वोटों के बंटवारे को रोकने पर है. इसके लिए वो छोटे-छोटे दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहती है. अगर कांग्रेस गोंडवाना पार्टी और ‘जयस’ को अपने साथ जोड़ने में कामयाब रही, तो इससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. हालांकि यह आसन भी नहीं है.
कांग्रेस लम्बे समय से गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से समझौता करना चाहती है, लेकिन अभी तक बात बन नहीं पाई है, उल्टे गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने शर्त रख दी है कि उनका समर्थन कांग्रेस को तभी मिलेगा जब उनका सीएम कैंडिडेट आदिवासी हो. कुल मिलाकर, कांग्रेस के लिए गठबंधन की राहें उतनी आसान भी नहीं है, जितना वो मानकर चल रही थी. आने वाले समय में मध्य प्रदेश की राजनीति में आदिवासी चेतना का यह उभार नए समीकरणों को जन्म दे सकता है और इसका असर आगामी विधानसभा चुनाव पर पड़ना तय है. बस देखना बाकी है कि भाजपा व कांग्रेस में से इसका फायदा कौन उठता है या फिर इन दोनों को पीछे छोड़ते हुए सूबे की सियासत में कोई तीसरी धारा उभरती है.
‘जयस’ एक्सप्रेस का तू़फानी कारवां अब नहीं रुकने वाला: डॉ. अलावा
‘जयस’ अब आदिवासी बाहुल्य विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने की तैयारी में है. इसके लिए वे आदिवासी समूहों के बीच एकता की बात कर रहे हैं, जिससे राजनीतिक दबाव समूह के रूप में चुनौती पेश की जा सके. जयस’ के राष्ट्रीय संरक्षक डॉ. हीरालाल अलावा कहते हैं कि ‘जयस’ एक्सप्रेस का तूफानी कारवां अब नहीं रुकने वाला है. हमने बदलाव के लिए बगावत की है और किसी भी कीमत पर बदलाव लाकर रहेगे. आज आदिवासियों को वोट बैंक समझने वालों के सपनों में भी अब हम दिखने लगे हैं. आदिवासी वोटरों को साधने के लिए आज दोनों ही पार्टियों को नए सिरे से रणनीति बनानी पड़ रही है.
शिवराज अपने पुराने हथियार घोषणाओं को आजमा रहे हैं, तो वहीं कांग्रेस आदिवासी इलाकों में अपनी सक्रियता और गठबंधन के सहारे अपने पुराने वोटबैंक को वापस हासिल करना करना चाहती है. ‘जयस’ ने 29 जुलाई से आदिवासी अधिकार यात्रा शुरू की है, जिसमें बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग जुड़ भी रहे हैं. जाहिर है अब ‘जयस’ को हल्के में नहीं लिया जा सकता है. आने वाले समय में अगर वे अपने इस गति को बनाए रखने में कामयाब रहे, तो मध्य प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है.
कहा जा रहा है कि भाजपा द्वारा ‘जयस’ के पदाधिकारियों को पार्टी में शामिल होने का ऑफर भी दिया जा चुका है, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया है. डॉ हीराराल अलावा ने साफ़ तौर पर कहा कि वे भाजपा में किसी भी कीमत पर शामिल नहीं होंगे, क्योंकि भाजपा धर्म-कर्म की राजनीति करती है, उनकी विचारधारा ही अलग है, वे आदिवासियों को उजाड़ने में लगे हैं.