साहित्य और कलाओं के परिदृश्य में किसी भी किस्म की संकीर्णता वर्जित है ।साहित्य और कलाओं का सृजन अनन्त मानवीय मूल्यों और विश्व दृष्टि से प्रेरित होता है ।
कोई भी आदर्शवान सच्चा साहित्यकार और कलाकार कभी भी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता ।यदि कोई साहित्यकार और कलाकार साम्प्रदायिक करतूतों में लिप्त है , तो इससे सिर्फ यह ही सिद्ध होगा कि वह पाखंडी है जो साहित्य और कलाओं के महान आदर्शों व लक्ष्यों से विमुख होकर अपने तत्कालिक स्वार्थों के लिए जनता को भ्रमित कर रहा है ।
किसी भी किस्म के जातिवाद के प्रचार , प्रसार के साहित्य और कलाओं का कोई मंच तथा संगठन बनाना अक्षम्य है ।कभी कभी यह मूर्खतावश भी होता है ।
साहित्य और कलाओं की मूल प्रवृत्ति धर्म निरपेक्ष होती है ।लेकिन इस धर्म निरपेक्ष प्रवृत्ति को ठेस पहुंचाने की अनुचित हरकतें भी अक्सर होती रहती हैं ।क्योंकि साहित्य और कलाओं की यह धर्म निरपेक्ष प्रवृत्ति अभी भी फासीवाद के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
साहित्य और कलाओं के परिदृश्य को भी जातिवाद और सांप्रदायिकता की संकीर्ण मानसिकता से प्रदूषित करने की साजिशें तेज हो गई हैं ।यहां भी मूर्खताओं और अपराधियों के महिमा मंडन करने के मंच बनते जा रहे हैं ।इन मंचों को फासीवादी सत्ता का संरक्षण प्राप्त है ।यह अत्यंत चिंताजनक है ।
जन शिक्षण के माध्यम से इसका प्रतिरोध करना और साहित्य तथा कलाओं के मूल भाव को रेखांकित करना बेहद जरुरी है । फासीवाद के प्रतिरोध हेतु मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध साहित्यकारों और कलाकारों पर यह ऐतिहासिक जिम्नेदारी है ।महान साहित्यकार प्रेमचंद जी के इस प्रेरक कथन को हमेशा याद रखना चाहिए कि
साहित्य समाज और राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है ।