कल्पना कीजिये तो , 1955 में यूनेस्को का 8वां शिखर सम्मेलन था, पं0 नेहरू को सुनने के लिये पेरिस में बड़ी गहमागहमी थी, दुनिया के ताकतवर देशों में नेहरू को एक तिलस्माई नेता के रूप में देखा जाता था, हलांकि सम्पन्न देशों की कुटिलता भारत के संघीय लोकतंत्र को लेकर आशंकित रहती थी , उनकी नजरों में भारत बहुत लम्बे समय तक संघीय ढांचे को बरकरार नहीं रख सकने वाला था। नेहरू का भाषण हुआ तो दूसरे दिन के फ्रान्स के बड़े अखबार ने लिखा Chef intellectuel du pays pillé des Britanniques “अंग्रेजों के लूटे हुए देश का बौद्धिक सम्पन्न नेता ”

नेहरू ने यूनेस्को का 9वां सम्मेलन भारत में करने की पेशकश की, दो दिन तक निर्णय न हुआ फिर हामी भरदी गयी । रूस के मित्रों ने नेहरू को बाद में बताया कि ये हामी भारत की साख गिराने को भरी गयी है , भारत में यूनेस्को जैसी संस्था के आयोजन के लिये मानक के अनुरूप कुछ भी नहीं है, कैसे एक साल में कर लोगे, न विश्व के प्रतिनिधियों के रहने खाने लायक 5 सितारा सुविधा न पंचसितारा कान्फ्रेस हाल, देश में मौजूद विरोधियों ने इसे नेहरू की लोजिस्टिकल भूल घोषित कर दिया ।

नेहरू सुनते सब की थे, वही हुआ भी, नेहरू ने हर खरी खोटी , भली बुरी सब सुनी , नेहरू ने देश के सबसे बेहतरीन तत्कालीन दो वास्तुकारों ई. बी. डॉक्टर और आर ए गहलोते को अपने पास बुलाया और मन का डिजाइन साझा कर दिया , वास्तुकारों ने कहा आपके डिजाइन को साकार करने के लिये कम से कम 20 एकड़ जमीन और कम से कम 2.5 करोड रूपये की दरकार है जो वर्तमान हालात में दूर की कौड़ी नजर आते हैं ।

नेहरू ने उनकी बात सुनी और एक महीने बाद काम शुरू करने को कह दिया, अगले दिन नेहरू ने सुबह जम्मू कश्मीर के राजकुमार रीजेन्ट डा0 कर्ण सिंह को अपने पास बुलाया और सपना साझा किया, राजकुमार ने 9 दिन में सारी फार्मेलिटी निपटा के अपनी 25 एकड़ पार्कलैंड भारत सरकार को दान कर दी, फिर नेहरू ने मित्र रघुनन्दन सरन जो कांग्रेस के आजाद हिन्द फौज सैनिक सहायता कोष के ट्स्टी थे को बुलाया और बात साझा की इसी ट्रस्ट के मित्रों ने यथा संभव भारत सरकार को नकद रूपये दान किये, और फिर 10 महीने 28 दिन के दिन रात मिला कर 1956 में खडा हो गया कुल 3 करोड की लागत से भारत का सार्वजनिक क्षेत्र का पहला पंच सितारा होटल “द अशोक ” !! चाणक्यपुरी दिल्ली !

5 नवम्बर 1956 को जब नेहरू ने होटल अशोक के कान्फ्रेन्स हाल में UNESCO की दुनिया के अतिथियों का स्वागत किया तो अतिथियों की उंगलियां तो सबसे बडे पिलर लैस हाल में दांतों तले ही थीं किन्तु चैलेन्ज की मंशा से न्योता देने वाले कुटिल देशों के प्रतिनिधियों की आंखें फटी की फटी थीं क्योंकि आंखों का खून शर्म बन कर टपकने को उमड रहा था किन्तु सामने नेहरू को देख कर शर्म को पीने के सिवा कोई चारा न था ।

इस होटल में विकसित देशों के इतर और भी कुछ था जो उनकी कल्पना के भी परे था , वो था बेहद अनुशासित डेकोरम और भारत के ग्रामीण अंचलों के स्वादिष्ट पौष्टक पारंपरिक व्यन्जन । जो उन्होंने अपने जीवन में पहली बार खाये थे ।

भारत की जमीन को एक सम्प्रभु देश बनाने वाले निस्वार्थ दानियों , योजनाकरों और निस्वार्थ सेवकों की ये अनमोल गौरवशाली विरासत आज वो व्यक्ति बेचने को टेंडर निकाल रहा है जिसकी न तो खुद ना ही उसकी विचारधारा का इसे बनाने में कोई योगदान है !

उसे देश की हर धरोहर बेच कर अपने लिये 800 करोड का बोइंग खरीदना है, और उस बनिये को शैक्ष्रिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक हर धरोहर से चिढ है क्योंकि वो एैसी किसी भी जगह जब जाता है तो खुद को बौना पाता है , इसलिये अपने बौनेपन को अपने बौनों के बीच वो हर उंचे मानक, को ढहा देना चाहता है ताकि उस जैसे बौने से उंचा कोई दिखे ही नहीं ।

लेकिन वो ये भूल जाता है कि बौनापन आनुवंशिक बीमारी है उपलब्धि नहीं !

देश की अस्मिता के प्रतीक होटल अशोक को बेचने का विरोध कीजिये !!

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