हज़रत अमीर ख़ुसरो बहुत सारी खूबियों के मालिक थे और उनकी शख़्सियत बहुत वअसी थी। वो शायर थे, तारीख़दां थे, सियासतदां थे, फ़ौजी जनरल, अदीब, मौसीक़ीकार, गुलूकार, फलसफ़ी, सूफ़ी और न जाने क्या क्या। हिंदुस्तान की गुजिश्ता 700 बरस की तारीख़ में अगर किसी एक शख्स ने ज़ाती तौर पर हिंदुस्तान की तहज़ीब, तमद्दुन और सक़ाफ़त को सबसे ज़्यादा मालामाल किया और ज़ीनत बख़्शी, तो बिला–शुबहा, उस शख़्सियत का नाम हज़रत अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो है जिन्हें लोग प्यार से अमीर ख़ुसरो देहलवी और तूती–ए–हिंद के नाम से जानते हैं। वो ख़ुद अपने बारे में लिखते हैं: “तुर्क़ हिंदुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जबाब” यानि “मैं तुर्क हिंदुस्तानी हूं और हिंदी बोलता और जानता हूं।“
मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी ने बहुत ही ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ मैं अमीर ख़ुसरो का ख़ाका कुछ यूँ बयाँ किया है “अमीर ख़ुसरो, अमीरों में अमीर, फ़क़ीरों में फ़क़ीर, आरिफ़ों (इल्म) का सरदार, शायरों का ताजदार, शेर–ओ –अदब के दीवान उसकी अज़मत के गवाह, ख़ानक़ाहें और सज्जादे उसके मरतबाए रूहानी से आगाह सर। मुशायरा आ जाये तो मीर महफ़िल उसे पाइए। ख़ानदाने चिश्त एहले बहिश्त के कूचे में आ निकले तो हल्क़ा–ए–ज़िक्र बा फ़िक्र में सरे मसनद जलवा उसका देखिये।अच्छे अच्छे शेख़ उसका दम भर रहे हैं। मार्फ़त और तरीक़त के खीक़ीपोश कलमा उसके नाम का पढ़ रहे हैं। (इन्शाए माजदी पेज 318-319).
अमीर ख़ुसरो ने इस बर्रेसग़ीर को एक नया और बहुत ही ख़ूबसूरत नाम दिया– हिंदोस्तान, शहरियत दी– हिंदी और एक बहुत ही ख़ूबसूरत ज़ुबान दी– हिंदवी जो आगे चल कर हिंदी और उर्दू ज़ुबान के नामसे मशहूर हुई। उर्दू के अज़ीम शायर जां निसार अख्तर उर्दू शायरी के एक ज़खीम मजमुए “हिन्दोस्ताँ हमारा” की तम्हीद में लिखते हैं “खड़ी बोली में अरबी, फ़ारसी और तुर्की के लफ़्ज़ों की मिलावट का जो सिलसिला शुरू हुआ था वो अमीर ख़ुसरो के ज़माने में रेख़्ता कहलाया, जो एक नयी हिन्दोस्तानी ज़बान को जनम देने में कामयाब हुआ जिसे शुरू में हिंदी या हिन्दवी कहा गया और जो बाद में उर्दू कहलायी।” (हिन्दोस्ताँ हमारा)
अमीर ख़ुसरो ने इस ज़बान को नया रंग–रूप दिया।एक तरफ़ जहाँ उन्होंने अपनी शायरी मैं फ़ारसी का इस्तेमाल करते हुए लिखा “ज़ेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराये नैना बनाये बतियां, ….. , सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूं अँधेरी रतियाँ।” वहीँ दूसरी जानिब उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा का इस्तेमाल करते हुए लिखा “छाप तिलक सब ले ली री मोसे नैना मिलाई के” और “बहुत कठिन है डगर पनघट की” जैसी शायरी क़ी।अमीर ख़ुसरो ने मौसीक़ी को दो ऐसे नायाब तोहफ़े दिए जिन्हें सितार और तबला के नाम से जाना जाता है।अमीर ख़ुसरो ने फ़ारसी और हिंदी में शायरी की, ख़याल को तरतीब किया ग़ज़ल, मसनवी, क़ता, रूबाई, दोबैती,और तरक़्क़ीबंद में अपनी शायरी की। इसके अलावा उन्होंने अनगिनत दोहे, गीत, कहमुकरियां, दोसुख़ने,पहेलियां, तराना और न जाने क्या क्या लिखा।हज़रत अमीर ख़ुसरो “बाबा–ए–कव्वाली” भी कहे जाते हैं जिन्होंने मौसीक़ी के इस सूफ़ीफन को नया अंदाज़ दिया और बर्रेसग़ीर की शायद ही कोई ऐसी दरगाह हो जहां सालाना उर्स के दौरान अमीर ख़ुसरो का कलाम न पढ़ा जाता हो। उर्स के आख़िरी दिन यानि कुल के दिन अमीर ख़ुसरो का रंग तो लाज़िमी तौर पर गाया जाता है।
आज रंग है ऐ मां रंग है री,
आज रंग है, मेरे महबूब के घर रंग है री,
सजन मिलावरा, सजन मिलावरा, मोरे आंगन को,
जग उजियारो, जगत उजियारो..मैं तो ऐसे रंग और नहीं देखी रे,
मोहे पीर पायो निज़ामुद्दीन औलिया, निज़ामुद्दीन औलिया, अलाउद्दीन औलिया..
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी किताब– Discovery of India- में अमीर ख़ुसरो को बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में ख़िराज़े–तहसीन पेश की है। वो लिखते हैं: “अमीर ख़ुसरो फ़ारसी के अव्वल दर्जे के शायर थे और संस्कृत भी बख़ूबी जानते थे। वो अज़ीम मौसीक़ीकार थे जिन्होंने हिंदुस्तानी मौसीक़ी में कई तज़ुर्बे किए और सितार ईजाद किया। अमीर ख़ुसरो ने मुख़्तलिफ़ मौज़ुआत पर लिखा, ख़ासकर हिंदुस्तान की तारीफ़ में क़सीदे पढ़े।उन्होंने यहां के मज़ाहिब के बारे में फलसफे और मन्तिक़ के बारे में, अलजबरा के बारे में, साइंस के बारे में, और फलों के बादशाह आम और ख़रबूज़े के बारे में खूब लिखा।पंडित नेहरू लिखते हैं: “हिंदुस्तान मैं उनकी मक़बूलियत का राज़ आम–फ़हम ज़ुबान में की जानेवाली उनकी शायरी थी। जानबूझकर उन्होंने बड़ी दानिशमंदी से उस अदबी ज़ुबान का सहारा नहीं लिया जिसे चंद लोग ही जानते थे। वो गांव और देहात में जाकर रहे, वहां के लोगों के तौर तरीक़े और रस्मो रिवाज सीखे।वो हर मौसम में नए तरीके के गीत लिखते, और कदीम हिंदुस्तानी क्लासिकी रिवायतों के तहत हर मौसम की अपनी एक नई धुन नए अल्फ़ाज़ के साथ तैयार करते। उन्होंने ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ दौर और पहलुओं पर शायरी की जिनमें बेटी का बाप के घर से विदा होना, बहू का घर आना, आशिक़ का माशूक़ से बिछड़ना, और विरह के गीत गाना, बरसात का होना, बहार का मौसम आना, ठंड पड़ना और फिर गर्मी में ज़मीन का सूख जाना। सैकड़ों बरस पहले लिखे गए अमीर खुसरो के गीत आज भी शुमाली हिंदुस्तान के बहुत से गांवों में गाए जाते हैं। ख़ासकर बरसात के मौसम में बाग़ों में या दरख़्तों पर बड़े बड़े हिंडोले/ झूले जाले जाते हैं और गांव की लड़कियां और लड़के एक साथ इकठ्ठा हो कर बरखा ऋतु का जश्न मनाते हैं।अमीर ख़ुसरो ने बेइंतहा पहेलियां और कहमुकरियां लिखीं जो आज तक लोगों में बेहद मक़बूल हैं और ख़ुसरो को अमर बनाए हुए हैं।
अमीर ख़ुसरो की पैदाइश उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के पटियाली गांव में गंगा किनारे सन् 652 हिजरी यानि 1253 ईस्वी को हुई थी। अमीर ख़ुसरो के वालिद सैफुद्दीन ख़ुरासान के तुर्क़ क़बीले के सरदार थे। अमीर खुसरो 4 बरस की उम्र में देहली आ गए और 8 बरस की उम्र में मशहूर सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीद बन गए। कहा जाता है 16-17 बरस की उम्र में अमीर खुसरो मशहूर शायर हो चुके थे और देहली के मुशायरों में अपनी धाक जमाने लगे थे। अमीर खुसरो ने हिन्दोस्तानी शायरोें खास कर उस वक़्त के फ़ारसी शायरोें की बहुत तारीफ़ की है और उनकी शायरी को दुसरे मुल्क़ो की फ़ारसी शायरी से शफ़्फ़ाफ़ और अफ़ज़ल बताया है। ग़ुर्रत्तुल कमाल के दीबाचे में अमीर ख़ुसरो लिखते हैं “हिन्दोस्तान के आलिम ख़ुसूसन वो जो देहली में मुक़ीम हैं, उन तमाम अहले ज़ौक़ से जो दुनिया में कहीं भी पाये जाते हैं फ़न्ने शेर में बरतर हैं। अरब, ख़ुरासान, तुर्क वग़ैरा जो हिंदोस्तान के इन शहरों से आते हैं और जो इस्लामी हुकूमत में हैं मसलन देहली, मुल्तान या लखनौती (बंगाल)अगर सारी उम्र भी यहाँ गुज़ार दें तो भी अपनी ज़बान नहीं बदल सकते और जब शेर कहेंगें तो अपने मुल्क़ के मुहावरे में ही कहेंगे।लेकिन जो अदीब हिन्दोस्तान के शहरों में पला बढ़ा है ख़ुसूसन देहली में,बग़ैर किसी मुल्क़ को देखे या वहां के लोगों से मिले जुले उस मुल्क़ की तर्ज़ में लिख सकता है बल्कि उनकी नज़्म व नस्र में तसर्रुफ़ कर सकता है और जहाँ भी चला जाये वहां के असलूब के मुताबिक़ बख़ूबी लिख सकता है।
अमीर ख़ुसरो की एक किताब रसायले–एजाज़ या एजाज़े–खुसवरी–पांच बाब पर मुश्तमिल है जो हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की मनकबत से शुरू होती है और इसमें फारसी असलूब के 9 हिस्सों को लिया गया है। इसमें खास ओ–आम से लेकर आलिम फाज़िल, सूफीयाए एकराम, मज़दूर, किसान और करखंदारोें का ज़िक्र किया गया है। अमीर ख़ुसरो ने इस किताब को अपना बेहतरीन असलूब बताया है।और अपनी दूसरी किताब अफ़ज़लुल फवायद में अमीर खुसरो ने अपने पीर–ओ–मुर्शिद हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की हिकायात और उनके कौल यकजा किए गए हैं।
अमीर खुसरो ने किरानुस्सादैन नाम से एक मसनवी लिखी जो 6 माह में पूरी हुई। (688 हिज्री)। इसमें उस वक्त के देहली की इमारते, मौसीकी वगैरह का जिक्र किया गया है। इसमें दिल्ली की खासतौर पर तारीफ की गई है इसलिए इसे मसनवी ‘दर सिफत–ए–देहली‘ भी कहते है इसमें शेरों की भरमार है। अमीर खुसरो अपनी इस मसनवी में लिखते हैं कि कैकुबाद को उनके पीर निजामुद्दीन औलिया का नाम भी सुनना पसंद नही था।खुसरो आगे लिखते हैं– ‘क्या तारीखी वाकया हुआ। बेटे ने अमीरों की साजिश से तख्त हथिया लिया, बाप से जंग को निकला। बाप ने तख्त उसी को सुपुर्द कर दिया। बादशाह का क्य़ा? आज है कल नहीं। ऐसा कुछ लिख दिया है कि आज भी लुत्फ दे और कल भी जिंदा रहे। अपने दोस्तों, दुश्मनों की, शादी की, गर्मी की, मुफलिसों और खुशहालों की, ऐसी–ऐसी रंगीन, तस्वीरें मैंने इसमें खेंच दी है कि रहती दुनिया तक रहेंगी। कैसा इनाम ? कहां के हाथी–घोडे़ ? मुझे तो फिक्र है कि इस मसनवी में अपने पीरो मुरशिद हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन का जिक्र कैसे पिरोऊं ? मेरे दिल के बादशाह तो वही हैं और वही मेरी इस नज्म में न हों, यह कैसे हो सकता है ? ख्वाजा से बादशाह ख़फा है, नाराज है, दिल में गांठ है, ये न जलता है। ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने शायद इसी ख्याल से उस दिन कहा होगा कि “देखा खुसरो, ये न भूलो कि तुम दुनियादार भी हो, दरबार सरकार से अपना सिलसिला बनाए रखो। मगर दरबार से सिलसिला? क्या हैसियत इसकी। तमाशा है, आज कुछ कल कुछ।”
अमीर खुसरो की ग़ज़लो मैं ग़ज़ब की चाशनी होती थी, लेकिन बावजूद इसके खुसरो तसव्वुफ़ वाले अपने कलाम से पूरी तरह इंसाफ करते। खुसरो मज़हबी शख्स थे। इन्हीं के एक कसीदे से यह पता चलता है कि वो नमाज पढते थे रोज़ा रखते थे। शराब नही पीते थे। बादशाहों की अय्याशी से उन्होंने अपने दामन को सदा बचाए रखा। वो दिल्ली में बिला नाग़ा निजामुद्दीन औलिया साहब की ख़ानक़ाह जाते थे फिर भी वे ख़ालिस सूफ़ी नहीं थे। वे गाते थे, नाचते थे, हंसते थे, गाना सुनते और दाद देते थे। शाहों और शहजादों की शराब–महफिलों में हिस्सा जरूर लेते थे। मगर हाज़िरी की हद तक।
अपने दिल का हाल खुसरो कुछ इस तरह बयां करते हैं— ”फौज चली। मैं क्यों जाऊं? मेरा दिल तो दूसरी तरफ जाता है, मेरे पीर मेरे …मुर्शिद, मेरे महबूब के तलवों में, मैं बल बल जाऊं।” रात गए जमुना किनारे गयासपुर गांव के बाहर, जहां अब हुमायूं का मकबरा है, चिश्ती सूफी खानकाह में एक फकीर बादशाह, नागारों, मोहताजों, मुसाफ़िरों, फ़क़ीरों, दरवेशों, साधुओं, उलेमाओं, संतों, सूफियों, जरूरतमंदों, गवैयों, और बैरागियों को खिला पिला कर अब अपने तन्हा हुजरे में जौ की बासी रोटी और पानी का कटोरा लिए बैठा है। ये हैं ख़्वाजा निज़ामुद्दीन चिश्ती। ख़्वाजा निज़ामुद्दीन उर्फे़ महबूबे इलाही उर्फ़ सुल्तान उल मशायख, जिन्होंने ज़िंदगी भर रोजा़ रखा और बानवे साल तक अमीरों और बादशाहों से बेनियाज़ अपनी फकीरी में बादशाही करते रहे।” अमीर खुसरो जब भी दिल्ली में होते इन्ही के कदमों में रहते। राज़ो–न्याज़ की बातें करते और रुहानी शांति की दौलत समेटा करते। अपने पीर से कठिन और नाजुक हालात में सलाह मशवरा किया करते और वक़्तन–फ़वक़तन अपनी गलतियों की माफी अपने गुरू और खुदा से मांगा करते थे। खुसरो और निजामुद्दीन अपने दिल की बात व राज की बात एक–दूसरे से अक्सर किया करते थे। कई बादशाहों ने इस फकीर, दरवेश और सूफी निजामु्द्दीन औलिया की जबरदस्त मकबूलियत को चैलेंज किया मगर वो अपनी जगह से न हिले। कई बादशाहों ने निजामुद्दीन की ख़ानक़ाह में आने की इजाजत उनसे चाही मगर उन्होंने कबूल न की। एक रात निजामुद्दीन चिश्ती की खानकाह में हजरत अमीर खुसरो हाजिर हुए। आते ही बोले– ‘ख्वाजा जी मेरे सरकार, शहनशाह अलाउद्दीन खिलजी ने आज एक राज़ की बात मुझसे तन्हाई में की। कह दूं क्या ? ख्वाजा जी ने कहा कहो “खुसरो तुम्हारी जुबान को कौन रोक सकता है।” खुसरो ने संजीदा हो कर कहा कि “अलाउद्दीन खिलजी आपकी इस खानकाह में चुपके से भेस बदल कर आना चाहता है। जहां अमीर–गरीब,हिन्दू–मुस्लमान, ऊंच–नीच, का कोई भेद भाव नहीं। वह अपनी आंखों से यहां का हाल देखना चाहता है। उसमें खोट है, चोर है, दिल साफ, नही उसका।
उसे भी दुश्मनों ने बहका दिया है, वरगला दिया है कि हजारों आदमी दोनों वक्त यहां लंगर से खाना खाते हैं तो कैसे? इतनी दौलत कहां से आती है? और साथ ही शाहजादा ख़िज़्र खां क्यों बार–बार हाज़िरी दिया करते हैं।‘ ख्वाजा बोले – तुम क्या चाहते हो खुसरो? खुसरो कुछ उदास हुए बेमन से बोले– हुजूर, बादशाहे वक्त के लिए हाज़िरी की इजाज़त।‘ ख्वाजा साहब ने फरमाया– ” खुसरो तुम से ज्यादा मेरे दिल का राज़दार कोई नही। सुन लो। फकीर के इस तकिये के दो दरवाजे हैं। अगर एक से बादशाह दाख़िल हुआ तो दूसरे से हम बाहर निकल जाएंगे। हमें शाहे वक्त से शाही हुकूमत से, शाही तखत से क्या लेना देना?” खुसरो ने पूछा कि क्या ये जवाब बादशाह तक पहुंचा दे? तब ख्वाजा ने फरमाया– “अगर अलाउद्दीन खिलजी ने नाराजगी से तुमसे पूछा कि खुसरो ऐसे राज़ तुम्हारी जबान से? खुसरो इसमें तुम्हारी जान को खतरा है? तुमने मुझे यह राज़ बताया ही क्यों? खुसरो भारी आवाज में बोले– ‘मेरे ख्वाजा जी बता देने में सिर्फ जान का खतरा था और न बताता तो ईमान का खतरा था।‘ खवाजा ने पूछा ‘अच्छा खुसरो तुम तो अमीर के अमीर हो।शाही दरबार और बादशाहों से अपना सिलसिला रखते हो। क्या हमारे खाने में तुम आज शरीक होगे ? यह सुनते ही खुसरो की आंखों से आंसू टपक आए। वे भारी आवाज में बोले– “यह क्या कह रहें हैं पीर साहब। शाही दरबार की क्या हैसियत? आज तख़त है कल नही ? आज कोई बादशाह है तो कल कोई। आपके थाल के एक सूखे टुकड़े पर शाही दस्तरखान कुर्बान। राज–दरबार झूठ और फरेब का घर है। मगर मेरे खवाजा ये क्या सितम है कि तमाम दिन रोज़ा, तमाम रात इबादत और आप सारे जहां को खिला कर भी खुद एक रोटी, जौ की सूखी–बासी रोजी, पानी में भिगो–भिगो कर खाते हैं।‘ ख्वाजा साहब ने फरमाया, ‘खुसरो ये टुकड़े भी गले से नही उतरते।आज भी दिल्ली शहर की लाखों मख्लूक़ में से न जाने कितने होंगे जिन्हें भूख से नींद न आई होगी। मेरी ज़िंदगी में खुदा का कोई भी बंदा भूखा रहे तो, मैं कल खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा? तुम इन दिनों दिल्ली में रहोगे न। कल हम अपने पीर फरीदुद्दीन गंज शकर की दरगाह को जाते हैं। हो सके तो साथ चलना। खुसरो हमने तुम्हें तुर्क–अल्लाह का खिताब दिया है। बस चलता तो व सीयत कर जाते कि तुम्हें हमारी कब्र में ही सुलाया जाए। तुम्हें जुदा करने को जी नहीं चाहता मगर दिन भर कमर से पटका बांघे दरबार करते हो जाओ कमर खोलो आराम करो। तुम्हारे नफ़्स का भी तुम पर हक है। शब्बा ख़ैर।
ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया हर रोज ईशा की नमाज के बाद अकेले इबादत में मसरूफ़ हो जाया करते थे और इस इबादत के दौरान खुसरो के अलावा कोई और नहीं आ सकता था। निज़ामुद्दीन औलिया उन्हें जी–जान से चाहते थे।वो कहते – मैं और सब से ऊब सकता हूँ, यहाँ तक कि अपने आप से भी उकता जाता हूँ कभी–कभी, लेकिन खुसरो से नहीं उकता सकता कभी। और वो ये भी कहा करते थे कि तुम खुदा से दुआ मांगो कि मेरी उम्र लम्बी हो, क्योंकि मेरी जिंदगी से ही तेरी जिन्दगी जुडी है। मेरे बाद तू ज्यादा दिन नहीं जी सकेगा, यह मैं अभी से जान गया हूँ खुसरो, मुझे अपनी लम्बी उम्र की ख्वाहिश नहीं लेकिन मैं चाहता हूँ तू अभी और जिन्दा रह और अपनी शायरी से जहां को महकाता रहे। और हुआ भी यही, अमीर खुसरो किसी काम से दिल्ली से बाहर कहीं गए हुए थे वहीं उन्हें अपने ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के विसाल की खबर मिली। खबर क्या थी खुसरो की दुनिया लुट चुकी थी। वो दौड़े दौड़े दिल्ली पहुँचे, खानकाह के दरवाज़े पर खडे हो गए और अपने पीर ओ मुर्शिद के जनाज़े को देखने की हिम्मत न कर सके। आखिरकार शाम ढले जब उन्होंने अपने पीर का मुँह देखा तो बेहोश हो गए उसी हालत में उनके होटों से निकला,
“गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस,
चल खुसरो घर आपने सांझ भई चहुं देस“
छह माह बाद अमीर खुसरो का भी इंतेक़ाल हो गया और वो अपने पीर ओ मुर्शिद व अपने मालिक ए हक़ीक़ी से जा मिले। उनके पीर की वसीयत के मुताबिक़ अमीर खुसरो की मज़ार भी निजामुद्दीन औलिया ही बना दी गई।