journalये 2018 का वर्ष चल रहा है. हिंदुस्तान में यह उत्साह का वर्ष होना चाहिए था. लेकिन यह वर्ष उन लोगों के लिए क्यों ऐसा वर्ष बन रहा है, जिनके ऊपर सबसे ज्यादा भरोसा था और अब उन्हीं का सबसे ज्यादा मजाक सोशल मीडिया पर उड़ रहा है. ऐसे में एक भारतीय कंपनी के प्रोडक्ट को विदेशों में अधिक केमिकल्स होने की वजह से प्रतिबंधित किया जा रहा है, आदेश दिया जा रहा है कि तत्काल प्रभाव से सारे उत्पादों को नष्ट कर दिया जाए, लेकिन न भारत सरकार और न जनता को यह महसूस होता है कि दुनिया में हमारा नाम कितना खराब हो रहा है. हम सोचते हैं कि अपने देश में समाचारों को रोककर चेहरे की चमक बनाए रखेंगे, पर शायद फिलहाल ये संभव न हो पाए. किसानों के साथ जिस तरह का व्यवहार हो रहा है, जितनी उनकी अनदेखी की गई और अपमान किया गया वह दुखद है, निंदनीय है और कल्पना से परे है.


 

मैं लगातार देख रहा हूं कि अब बहुत सारी चीजों के मतलब बदल रहे हैं. जब लोकहित का मतलब ही बदल रहा हैं, तो बाकी शब्दों के बारे में चिंता करना अजीब लगता है. सबसे बड़ा अर्थ बदला है पत्रकारिता का. अगर आप सच बोलने की या लिखने की कोशिश करते हैं तो आप फौरन विकास के खिलाफ मान लिए जाते हैं. ‘मान लिए जाते हैं’ का एक और विडंबनापूर्ण अर्थ है. अर्थ यह है कि जो चीज बाजार में तेजी से अच्छी पैकेजिंग के साथ प्रदर्शित की जाए, वही सत्य है. यह मान लिया जाता है कि वही सार्थक भी है, साख वाली भी है. यह बात इन दिनों हमारे देश में चारों तरफ सौ प्रतिशत दिखाई देती है, क्योंकि सत्ता में बैठे लोग बाजार की शक्तियों के प्रतिनिधि बन गए हैं. इसलिए वो एक विशेष रणनीति पर चल रहे हैं. वो रणनीति ये है कि विकासशील देशों को विकास के ऐसे सपने में उलझा देना, जो कभी पूरे हो ही नहीं सकते. भारत में ये काम अब विदेशी शक्तियां सीधे नहीं कर रही हैं.

उनके लिए सरकारें फ्रेंचाइजी एजेंट के रूप में काम कर रही हैं. इसीलिए जब भी कोई पत्रकार अपने लेख में, टीवी पर होने वाली बहसों में, सोशल मीडिया पर उस सच को दिखाना चाहे, तो फौरन उसे ऐसा व्यक्ति घोषित कर दिया जाता है, जिसकी आंखें ठीक नहीं हैं या जिसका चश्मा अलग तरह का है. इसकी पराकाष्ठा तब होती है जब आपको कहा जाता है कि आप देश की प्रगति के बढ़ते कदम को नहीं देख पाते, इसलिए आप आयोग्य हैं, आप देश विरोधी हैं. अगर आपकी भाषा चोट पहुंचाने वाली है, तो आप कहीं देशद्रोही की श्रेणी में भी चले जाते हैं.

अब तो हालत यह हो गई है कि अगर आप एक वर्ग के साथ नहीं हैं, तो आप देशद्रोही हैं. पर यहां एक बड़ा अंतरविरोध है कि उस विचारधारा विशेष को मानने वाले, बाजार को नियंत्रित करने वाले लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं कि जिन्हें वो अपना समर्थक मानते हैं, वो उनके समर्थक हैं ही नहीं. जैसे सावन के अंधे को चारों तरफ हरा ही दिखाई देता है, उसी तरह इन लोगों को लगता है कि सारा हिंदुस्तान सचमुच बहुत विकसित हो गया है. ये शक्तियां समझती हैं कि ऐसे सारे लोग उनके साथ हैं और वो यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि पिछले सालों में क्या-क्या टूटा है, क्या क्या धुंध साफ हुई है और किन-किन के चेहरे खोल से निकलकर बाहर आए हैं.

आजकल एक चीज देखकर मन को बहुत सुख मिलता है. जैसे, आज सरकार में बैठे बहुत सारे लोग इतने भविष्यद्रष्टा कैसे हो गए थे. भाषा थोड़ा अलग है, पर स्थिति वही है. 2012 और 2013 में इन्हीं लोगों ने यह कल्पना की थी कि पेट्रोल और डीजल इतनी महंगे क्यों हो रहे हैं? उसके पीछे क्या कारण हैं? जिन्होंने ये कल्पना की थी कि डॉलर मजबूत क्यों हो रहा है? रुपए अपनी साख क्यों खो रहे हैं? जिन्होंने राजघाट पर इन सवालों पर ठुमके लगाए थे, जिन्होंने तब महंगाई के कारण बताए थे, जिन्होंने भारत की कमजोरी को, चाहे वो पाकिस्तान या चीन के मसले को लेकर रही हो, रेखांकित किया था, वही सारे लोग अब चार साल बाद की स्थिति का वर्णन कैसे कर रहे हैं? स्थितियां वही हैं, तर्क बदल गए हैं.

आज अगर हम उनके पुराने वीडियो देखें तो लगेगा कि सचमुच ये लोग भविष्य्द्रष्टा ही थे. आप यूट्यूब पर सिर्फ नाम डालिए और आपके सामने वो सारी चीजें सामने आ जाएंगी कि कैसे इन बड़े नेताओं ने तब जो बातें कही थी, आज कैसे सच साबित हो रही है. ये भविष्यद्रष्टा आज हमारे देश का शासन चला रहे हैं और अब ये उन सवालों पर बोलना ही नहीं चाहते, जिन सवालों पर उन्होंने 2012 से लेकर और 2014 तक देश में घूम-घूम कर लोगों का मन बदला था.

अब इन्हें किसानों का दर्द, उस दर्द को दूर करने के तरीके दिखाई नहीं देते. अब इन्हें बेरोजगारी के आंकड़ों में कोई दिलचस्पी नहीं है. ये सिर्फ कहते हैं कि 10 करोड़ लोगों को रोजगार मिल गया. किस क्षेत्र में और कहां मिला, न वो बताते हैं और न देश की जनता को वो सबकुछ दिखाई देता है. इस समय तो पूरे तौर पर राम मंदिर का माहौल है. जो लोग पत्रकारिता की नब्ज जानते हैं, उन्हें इसका अंदाजा हो चुका है कि इस बार शायद राम मंदिर का मुद्दा लोगों को भटकाने में कामयाब न हो पाए.

हालांकि 2012 और 2013 में जिस सोशल मीडिया ने उस समय के सत्ताधीशों को बेरहमी से सत्ता से हटा दिया था, वही सोशल मीडिया आज के सत्ताधीशों के चेहरे पर पड़े हुए नकाब को बेरहमी से खींच रहा है. शायद इसीलिए इस बार सोशल मीडिया इतना प्रमुख रोल नहीं अदा कर रहा है, जितना देश के टीवी चैनल अपनी भूमिका निभा रहे हैं, वो चाहे क्षेत्रीय चैनल हों या नेशनल चैनल होने का दावा करने वाले लोग हों. हालत यहां तक पहुंच गई है कि स्टार टीवी एंकर अपना नाम बोलते हुए अपने नाम के आगे मोदी लगा देते हैं. ये स्थिति बताती है कि कैसी हवा बह रही है.

इन सारी स्थितियों के बीच, दिल्ली में गांधी जयंती और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती के दिन टीवी चैनलों पर एक खबर चल रही थी कि जवान और किसान आमने-सामने हैं. जिसने भी ये हेडलाइन पूरे दिन चलाई, उसने भविष्य का एक संकेत दे दिया कि अब किसान भी आतंकवादी हैं. ये बातें टीवी चैनल की एंकर बोल रही थी कि आतंकवादी किसानों को दिल्ली में घुसने दिया तो दिल्ली की कानून व्यवस्था समाप्त हो जाएगी. ऐसे शब्द टीवी चैनलों के एंकर की दिमाग से निकले हुए ईमानदार शब्द हैं. क्योंकि पिछले चार साल में उनके सोचने-समझने की प्रक्रिया इसी माहौल में पूर्ण हुई है. उनके टीवी चैनल के मालिक या उनके संपादक इस पूरी कवायद के नियंता हैं. उन्होंने अपने चैनल में काम करने वाले लोगों को ये बताया ही नहीं कि रिपोर्टिंग क्या होती है, भाषा क्या होती है, जिम्मेदारी क्या होती है और देश क्या होता है? देश का मतलब, देश के लोग क्या होते हैं.

ये 2018 का वर्ष चल रहा है. हिंदुस्तान में यह उत्साह का वर्ष होना चाहिए था. लेकिन यह वर्ष उन लोगों के लिए क्यों ऐसा वर्ष बन रहा है, जिनके ऊपर सबसे ज्यादा भरोसा था और अब उन्हीं का सबसे ज्यादा मजाक सोशल मीडिया पर उड़ रहा है. ऐसे में एक भारतीय कंपनी के प्रोडक्ट को विदेशों में अधिक केमिकल्स होने की वजह से प्रतिबंधित किया जा रहा है, आदेश दिया जा रहा है कि तत्काल प्रभाव से सारे उत्पादों को नष्ट कर दिया जाए, लेकिन न भारत सरकार और न जनता को यह महसूस होता है कि दुनिया में हमारा नाम कितना खराब हो रहा है. हम सोचते हैं कि अपने देश में समाचारों को रोककर चेहरे की चमक बनाए रखेंगे, पर शायद फिलहाल ये संभव न हो पाए.

किसानों के साथ जिस तरह का व्यवहार हो रहा है, जितनी उनकी अनदेखी की गई और अपमान किया गया वह दुखद है, निंदनीय है और कल्पना से परे है. किसानों के लिए यह एक बहुत बड़ा झटका है कि उन्होंने जिन लोगों को विधानसभाओं और संसद में अच्छे भविष्य को गढ़ने के लिए भेजा, उन लोगों ने किस तरह उनके सपनों को तोड़ा, उनकी आशाओं को धूमिल किया. यह सचमुच दुखद है.

अब पेट्रोल, डीजल या रसोई गैस के सवाल उठाने का कोई मतलब ही नहीं है, क्योंकि लोग चाहते हैं कि डीजल, पेट्रोल और रसोई गैस के दाम बढ़े, ताकि कीमतें बढ़ाने का फैसला करने वाले लोग सत्ता में और पांच साल तक बने रहें. इसके खिलाफ कहीं से भी संगठित रूप से आवाज नहीं उठ रही है. क्योंकि लोगों ने मान लिया है कि पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमत कुछ पैसे ही तो बढ़ रही है. लोगों की समझ ऐसी बन गई है कि अगर कीमतें नहीं बढ़ेंगी, तो विकास कैसे होगा और ईंधन की कीमतें बढ़ने से देश में महंगाई थोड़े बढ़ती है. ऐसी समझ जब उस मध्यम वर्ग में विकसित हो जाए, जो इस महंगाई का सबसे बड़ा शिकार है, तो फिर कहने के लिए कुछ रह नहीं जाता.

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