समकालीन कविता के चर्चित हस्ताक्षर ब्रज श्रीवास्तव की आज पांच कविताएँ प्रस्तुत हैं।

इन कविताओं पर कवि लेखकों ने कुछ टिप्पणियां भी लिखीं हैं।उन्हें भी लगाया जा रहा है।

संपादक.

1.

खराबियां भी कविताओं में आ जातीं हैं
ताकि सनद रहे
खराब लोगों की चालाकियां
इस तरह आतीं हैं
कविताओं में
जैसे कोई राक्षसी आती हो
सतर्क करती हो
एक बदसूरत से खूबसीरत लोगों को

ध्यान से सुनता हुआ
इन कविताओं को
एक शख्स
पहचाना नहीं जाता

एक वक्त ओह ऐसा
आता है
कि वह अपनी ख़राबी के साथ
प्रकट होता है दिलोदिमाग में

ओह उसे नहीं आना चाहिए था
एक इल्जाम के घेरे में
कविता में खलनायक होकर
उसे नहीं आना चाहिए था.

ब्रज श्रीवास्तव

2.

 

मत करो उसे फ़ोन

 

जब दिल हो किसी से बात करने का
तो मत करो उसे फ़ोन
एक कविता लिखो

लिखो कि याद आती है तो
क्या गुजरती है दिल पर
लिखो कि इस वक़्त
तुम्हें और कोई काम नहीं
याद से ज्यादा ज़रूरी

लिखो कि उसके बात कर लेने भर से तुम कितने हो जाते हो हल्के

लिखो कि मसरूफ़ियत का कोई रिश्ता नहीं बातचीत करने से

और यह भी लिखो कि
बात करने की तीव्र इच्छा को
तुमने सृजन में बदला
और लिखी एक कविता।

ब्रज श्रीवास्तव.

3.

समय एक स्थान है।

बड़े शहर की तरह इसके खंड मंहगे हैं
इस पर आधिपत्य करने के लिए
कभी कभी चला आता है तुम्हारा फोन
अस्वास्थ्य चला आता है
कुछ लोग आ जाते हैं बैठक के लिए

मैं इसमें एक भवन बनाना चाहता हूँ
आकर बैठे तितली ऐसे फूल होंगें यहां
ईश्वर के लिए कोई जगह नहीं रहेगी
गोया वह रूकता भी नहीं सदैव के लिए
उसकी जगह नियत करना अच्छा नहीं

उपन्यास की तरह तवील होगा
इसका छत
जिस पर एक झूला होगा
सीढ़ियों के पास दीवार पर मैं बस
तारीखों के चित्र लगाऊंगा
ताकि दिखाई देता रहे समय अपने रूप में
स्थानों पर काबिज दिखाई दे समय

स्थान के अलावा भला क्या चाहिए
समय को
स्मृति में आकर भी वह मष्तिस्क पर रहने
लगता है आते जाते हुए

आग और समुद्र भी कोई कीमती
स्थान घेरकर बैठ जाते हैं
घड़ी को बिना देखे हुए
वे अभी भी मौजूद हैं मनुष्य के भीतर

प्रेम अपनी म्याद लेकर आता है
घृणा के बरक्स
विस्मित,अचरज और आनंद
शोक के बरक्स ज्यादा समय चाहते हैं
जगहें इनके लिए नियत नहीं हो पातीं

मैं तमाम भावों के नाम
कर देना चाहता हूँ बड़े बड़े भूखंड
समय को स्थान मैं नहीं दूंगा
तो भी वह ले ही लेगा अपना हिस्सा
इस धरती पर

ब्रज श्रीवास्तव

 

4.

साथ नहीं दिया

 

स्त्रियों ने स्त्रियों का साथ नहीं दिया
शोषण के मुद्दे पर
मजदूरों ने नहीं चुना इकट्ठा होकर
लड़ना

शोषित लगातार शोषित होते रहे
पर साथ नहीं हुए
मोर्चे में किसी के विरूद्ध

एक और प्राणी है दुनिया में
लड़ने वाला झूठ से
कलमकार

वह भी अकेला ही हुआ
शोषितों और स्त्रियों की तरह
किसी भी कलमकार ने
उसका नहीं
व्यापारी का साथ दिया
अन्याय का और
स्वारथ का साथ दिया।

ऐसा अक्सर होता रहा
अक्सर अट्टहास करता रहा
आततायी.
बाज़ार हावी होता रहा
हाठ के मेलों पर.
अकेला होता गया सच…

ब्रज श्रीवास्तव.

5.

पसंद

एक ठसक के साथ
पसंद अब एक अभियान में बदल चुकी है

वो दिन गये जब पसंद
चयन के सौंदर्य में शामिल होती थी
अब तो वह खुद चयनित होने लगी है
साजिश के हाथों द्वारा

 

भव्य दुकानों में
जब वह मुस्कराती है
क्रेडिट कार्ड
पसंद के वृत्त में करते हुए परिक्रमा
बना रहे होते हैं बड़ी त्रिज्या
अपने स्वभाव में घोल लेते हैं
पसंद के गौरव की गंध

विचारों की सरणियों में
पसंद के फूल सजा दिये जाते हैं
नकली फूलों वाली पंक्ति में
प्रवेश करना पसंद करते हैं बड़े अंक
छोटे अंक
सैर करते हैं छोटी क्यारी में

मानक पसंद का रंग फीका हो जाता है
श्रेष्ठताएँ रह जाती हैं कम संख्या में
धीरे धीरे चलन से बाहर हो जातीं हैं

पसंदों के निवेश से नियत चीज़ों को
उगलता हुआ
एक बड़ा कारखाना
उत्सर्जित कर रहा होता है धन ही धन
धन के आधिक्य के कोहरे में
कुछ असली विचार
अवसाद में डूब जाते हैं।

टिप्पणी -1

अनिल शर्मा (आगरा)

ब्रज जी की कविताऐं पढ़ता रहा हूँ उनका संकलन भी पढ़ा है

लेकिन आज पटल पर ब्रज श्रीवास्तव जी की जो रचनाएँ हैं ये कवि द्वारा धैर्य व शांति से लिखी गयी शोर की कविताऐं हैं
वह शोर जो हर क्षेत्र में खलनायक की तरह हस्तक्षेप / अतिक्रमण कर एक स्थान बनाता जा रहा है
जो पूरी विचार प्रक्रिया को ही बदले डाल रहा है
हमारी प्राथमिकता, हमारी चयन पद्धति , सामाजिक पारिवारिक सम्बन्धों पर अनचाहा सा पूँजी-भाव हावी होता जा रहा है जिसकी कसक कवि की हर कविता में देखी जा सकती है
समय समय पर बदलते हुऐ घटनाक्रम को देखना उन पर कलम चलाना एक जागरूक कवि का धर्म है इन कविताओं में कवि ने कवि कर्म का समय समय पर पूर्ण निर्वाह किया है
सुदंर उपमाओं व शिल्प ,बिम्ब का प्रयोग रचनाओं को गहराई व पठनीय बना रहा है पाठक को सोचने पर मजबूर करता है

-चालाकी जैसे कोई राक्षसी आती हो
-लिखो याद आती है तो क्या गुजरती है दिल पर
– तारीख़ों के चित्र
-प्रेम की मियाद
-भावों के नाम भूखंड
-झूँठ से लड़ने वाला प्राणी
– विचार की सारणियाँ
-धन के कोहरे से अवसाद में गये असली विचार
विचारणीय व स्तरीय कविताओं ने मुझे प्रभावित किया

 

टिप्पणी-2

मधु सक्सेना

 

ब्रज जी की कविताएं अलग ही विम्ब और विचार लेकर चलती है । कविताओ में खलनायक किस तरह आता है ….मस्तिष्क में कब्ज़ा कर के ।बहुत गहन अर्थ है और विस्तार भी है । कवि को अपना मस्तिष्क दूषित नही होने देना चाहिए ।इशारों में कवि के कर्म को इंगित किया ।

मत करो उसे फोन .. पहले भी पढ़ी है । बात खत्म हो जाती है पर कविता नही ।अतः जब याद आये कविता लिखो ।धीरे से गम्भीर बात कह दी ।

समय एक स्थान है … इसी बात को विस्तार देते हुए कविता आगे चलती है थोड़ी भटकती है पर फिर राह पकड़ लेती है । गणित की तरह कवितामें भी मान का मान निकाला गया ..

सहयोग , एकजुट , एक साथ आदि शब्दों को काम मे न लेकर इन्ही शब्दो के अर्थों से भरी हुई कविता .. .. बहुत सी पीड़ा है इसमे ..शोषण का प्रतिकार भी । सच अकेला ही रहा ….

बाज़ार हमसे था कभी …अब लगता है बाज़ार से हम है ।हमारे सारे निर्णय बाजार ही करता है ।बड़े और बड़े .. छोटे और व छोटे होते जाते है ।
मनुष्य की मानसिकता का बारीकी से आकलन ..

ब्रज जी की कविताएं सरल सहज भाषा के साथ गहन अर्थ ,समझ और तंज लिए होती है । चाशनी में डुबा कर तीखी बात को भी सहजता से कह देते है ।
लिखते रहे सदा ..
शुभकामनाएं ..💐💐

टिप्पणी 3.

मिथिलेश राय.(शहडोल)

 

ब्रज श्रीवास्तव जी मेरे काव्य गुरू हैं।उन पर लिखना कठिन है फिर भी मैं कहना चाहता हूँ कि

कविता का लिखना सैद्धांतिक और प्रयोजन मूलक होना दो अलग अलग बात है पर इन दोनों बातों के समायोजन के साथ कविता को रचना ही दूसरे अन्य कवियों से आप को अलग कर देता है। इसी आधार पर मैं आपको अपना प्रिय कवि कहता हूँ। आप केवल भाषा, शिल्प, शैली शब्द चयन से कविता नही बुनते है बल्कि उसका दार्शनिक व्यवहार, लोकव्यवहार भी रचते है।आप अपनी कविता में आनन्द, मार्मिकता, सामाजिक राजनीतिक गहराई, को नजाकत के साथ केवल उकेरते ही नही है बल्कि आत्मीय रूप से इस जटिल जीवन को जीने की ऊर्जा व आस्वादन भी अपनी कविता में देते है। खराबियाँ भी कविताओं में यह कोई उक्ति या मात्र सहज वाक्य खण्ड नही है, जीवन के प्रति एक लगाव है , एक सच्चाई है जिसे कवि जीत है। इसके भीतर एक आदमी छुपा है, सबसे जरूरी यह की यह अकारण ही नही आया है, यह हमारी काव्य परंपरा से जुड़ा है। हर कवि खराबियों को ही तो दूर करने में लगा है। इसलिए वे कहते है।

ओह उसे नही आना चाहिए था
एक इल्जाम के घेरे में,
कविता में खलनायक होकर
उसे नही आना चाहिए,

ब्रज सर को उनकी दूसरी कविता में उन्हें अत्यधिक नागरिक होते हुए हम पाते है। एक संतुलन पूर्ण वेग से वे कथ्य को लेकर आगे बढ़ते है, वे अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित या व्याकुल नही है बल्कि उसे ही सृजन में ढाल देने की बात कहते दिख पड़ते है यथा
बात करने की—————
————— सृजन में बदला
लिखी एक कविता।

अपनी भाषा का अदभुत रंग ली कविता बार बार पढ़ने को मन होता है। समय एक स्थान है। यह अपने आप मे एक मुहावरा भी है और सूत्र कविता भी , इसमें एक गहरा विक्षोभ है जिसके दरकने की आवाज कविता में शुरू से लेकर अंत तक आता है।
यह कविता अपने नए भाषाई अंदाज में शुरू होती है यथा-
“”बडे शहर की तरह, इसके खंड महँगे है।
यह मानते हुए भी कवि कविता के अंत मे इस अपना सकारात्मक हस्तक्षेप प्रस्तुत करता है, वह कह उठता है।
“” समय को स्थान मैं नही दूंगा”

अपनी अगली कविता में वे बाजार और कलमकार, सच को लेकर आते है, जैसा कि उनका स्वभाव है वे बड़े सहज रूप से वैचारिक मर्म को रखते है, वे कविता को ललकारने अतिवादिता से दूर रख सृजन के से गुजरते है। कविता में आज के समय का सच अपने मूल में खड़ा है। कविता में उसका संघर्ष स्पष्ट रूप से मौजूद है। यथा-
बाज़ार हावी होता रहा,
हाट के मेलों पर,
अकेला होता गया सच

पसंद बिल्कुल अलग और नए अर्थ सन्दर्भ को लेकर मौजूद है इस कविता में , सच है,
”वो दिन गए जब पसंद
चयन के सौंदर्य में शामिल होती थी”” आज बाज़ार ने हमारे स्व का हमारे निज लगातार अतिक्रमण करना जारी रखा है, और धन के सामने हम निरुपाय खड़े है, यह सब कुछ के घटने के मात्र गवाह बनकर मौजूद है हमारी हताशा से भरी मौजूदगी है।

टिप्पणी 4

बबीता गुप्ता

ब्रज सर की कविताएँ गहरी अर्थव्यंजना लिए…लोकव्यवहार की छटाएं पढ़कर अनुभूति होती हैं…
सतर्क करती हो
एक बदसूरत से खूबसीरत लोगों को…
समयाभाव का रोना कि फोन पर बात ना हो पाना…सर्वोत्तम उपाय मन की बातों को शब्दों में पिरोकर सृजन कर दो।
आज वर्तमान भविष्य बनकर कल भूत बन ही जाता हैं। चाहते ना चाहते हुये समय अपना स्थान निश्चित कर ही लेता हैं। फिर चाहे कालखण्ड कोई-सा भी हो।
बेहतरीन पंक्तियाँ आग और समुद्र घेरे बैठे हैं…..वे अभी भी मनुष्य के अंदर मौजूद हैं। बहुत सटीक बात प्रतीकात्मक शैली में।
शोषित कोई भी हो….बिना किसी सहयोग के शोषण के खिलाफ आवाज उठाना नामुमकिन-सा…यहां तक कि कलमकार ने भी अपनी लेखनी में सच की आवाज को दवाकर बाजारीकरण कर आमदनी साधन बना लिया।
अंतिम रचना समसामयिक विषय पर करारा प्रहार करती अंतिम पंक्तियाँ
धन के आधिक्य के कोहरे में
कुछ असली विचार
अवसाद में डूब जाते हैं।

टिप्पणी 5

ब्रजेश कानूनगो

ब्रज श्रीवास्तव एक सुपरिचित कवि हैं। उनकी कविताओं में समकालीन कविता का मुहावरा भी होता है, संवेदनाएँ और विचार भी पाठक तक पहुंचते हैं।
1
खराब आदमियों का समाज में होना उन्हें इतना खराब लगता है कि कविता तक में खराबी एक तरह से राक्षसी की तरह नजर आने लगती है।
2
बात करने का अभिलाषी कवि बात को सृजन में बदल देना चाहता है। यहां सम्भवतः सामने वाले की बातचीत में अरुचि या निरर्थकता से उत्पन्न शून्य की संवेदना को कविता से भर देने का प्रयास करता नजर आता है कवि।
3
समय एक स्थान है। ब्रज जी की व्यापक कविता है तथा आज प्रस्तुत कविताओं में सबसे बेहतर व स्वाभाविक रूप से उनकी प्रतिभा और काव्य विवेक के दर्शन होते हैं। तितली जैसे फूलों वाले घर सहित अन्य आकांक्षाए भी बहुत खूबसूरती से अभिव्यक्त हुई हैं।
4
उनकी कविताओं में बाजारवाद और समय के प्रश्न बहुत अंडरटोन तरीके से रेखांकित होकर हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं।

5
ऐसा लगता है कुछ कविताएं हाल ही में लिखी गई हैं और उनपर अभी ब्रज जी कुछ और काम अवश्य करेंगे।
कविताएं पढ़कर अच्छा लगा है। बहुत बधाई और शुभकामना

टिप्पणी 6

डॉ वनिता वाजपेयी


ब्रज श्रीवास्तव जी की कविताएं ध्यान खींचती हैं,
पहली ही कविता सतर्क करती है।
दूसरी कविता हमारे समय का महत्वपूर्ण रेखांकन है जहां बड़ी खूबसूरती से रिश्तों के बीच की ऊष्मा को अभिव्यक्त करने की बात कही गई है ।
तीसरी कविता के लिए तो बस यही कहने का मन है
आमीन
मैं तमाम भावों के नाम
कर देना चाहता हूं बड़े बड़े भू खंड , वाह वाह
साथ नहीं दिया कि बुनावट तो अच्छी है पर विषय बड़े फलक का है साथ क्यों नहीं दिया इसके बहुत से ऐसे भी कारण हैं जिन पर साधी जाती रही है चुप्पी
अंतिम पंक्ति महत्वपूर्ण है जहां वे कहते हैं
बाजार हावी होता रहा
मेलों पर
अंतिम कविता बाजारवाद और पूंजीवादी व्यवस्था का क्रूर सच प्रकट करती है
सभी कविताएं एक सजग और चिंतनशील मन की अभिव्यक्ति हैं

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