एक किताब, “प्रेम में पड़े रहना” रंजीता सिंह फलक के संग्रह पर लक्ष्मीकांत जवणे की एक समीक्षा
रंजीता सिंह ‘फ़लक’ की उनके संग्रह ‘प्रेम में पड़े रहना’ में उपस्थित कविताएँ बार- बार पढ़ा, तो भीतर के पाठकीय आग्रह से हुई बात को कागज़ पर उतारने का मन हो आया |
ये रचनाएं स्त्री-रचनात्मकता की सामग्री से ‘दिक्-यथार्थ’ के वर्तमान समूचे ‘कवितापन’ के लिए सुविधापूर्ण स्थान बनाने की ताकतवर कोशिश लगती है | दिशा रेखाओं की होती है, रेखाओं से पैदा आकार उस आकृति से घिरी जगह का प्रमाण बन जाता है और यही ‘दिक्-यथार्थ’ जारी वर्तमान में उस ‘जगह का यथार्थ’ बनकर उभरता है |
हिन्दी कविता में प्रगतिवादी कविता, युवा कविता की रमणीयता से दो-चार होने बाद फिर नई कविता के पड़ाव पर यह पीढ़ी है | प्रगतिवादी कविता के केंद्र में ‘विचार’ मानक था | उसे उस कालखंड का प्रतिनिधी जैसा प्रस्तुत किया गया, दरअसल वह विचार-वस्तु भी था और वस्तुपन भी | इसी तरह युवा कविता के केंद्र में मानक की भूमिका में ‘आक्रामक-बोध’ रहा आया | इस संघर्ष के दौर से गुजराती हुई कविता नये बाने में सामने आई, जिसे नई कविता के नाम से स्थापित किया गया | समकालीन यथार्थ की प्रवक्ता होने के कारण इसे सैमकालीन कविता की संज्ञा से भी जाना गया |
नई कविता के केंद्र में ‘राग-अनुराग’ आ गए | इस तरह आए कि ‘राग-अनुराग’ ने कविता में डूबने को ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ से जोड़ दिया | यह तो वैसे अच्छा संकेत था, परन्तु ‘आक्रामक-बोध’ के सड़क से संसद या लोहे का स्वाद और नई कविता के ‘राग-अनुराग’ के पेड़ पंछी के निहितार्थ शास्त्रीय सामना करने से हटकर शस्त्रीय सामना करने के अधिक निकट थे | भले ही शस्त्र के बतौर हाथ में पुष्प हो |
‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ के मानक की मौजूदगी अभी तक गैर-जरूरी नहीं हुई है क्योंकि यह प्रतिक्रिया में सीमित होने से अभी भी बचाती है और समकालीन कविता की इस प्रवृत्ति को समझाने में रंजीता सिंह का यह कविता संग्रह ‘प्रेम में पड़े रहना’ बहुत मददगार है |
इन कविताओं में जो नहीं हुआ, वह कविता के लिए बहुत आशावान लगा —-
प्लेटोनिक प्रेम का निजी-सामग्री सा इस्तेमाल, प्रेम का असाधारणीकरण, ब्योरों में छिपाकर रखी गयी अनुनय या कातरता, कामगारों या वंचितों की तरह स्त्री की तरफ से उनकी प्रेम के लिए नुमाईंदगी यहाँ तक कि एकाध जगह कविता में आई ‘देह’ भी ‘दोहराई गयी किसी कुदरती कमजोरी’ की ओर इशारा नहीं करती |
अब देखिए आरम्भ –
‘प्रेम से ही उपजते हैं दुनिया के सारे विमर्श’ | इसमें ‘ख़ूबसूरत दुनिया’ शब्दों का अपने अन्य सहयोगी शब्दों के साथ उपयोग इसे स्त्री की कविता नहीं बनाता बल्कि जो बनाता है तो वह है हिन्दी व्याकरण | अन्यथा यदि यह अंग्रेजी में होती तो पता ही नहीं चलता कि कलमकार स्त्री है या पुरुष ? अभिप्राय यह है कि स्त्री होने की अवचेतन में किसी सुप्त हीन-भावना या लादे गए किसी जेंडर-दुराग्रह की यह प्रतिक्रया नहीं है | यह बात सभी कविताओं पर लागू है और ध्येय है, आपसी बराबरी से दुनिया को ख़ूबसूरत बनाना |
‘सच भी, झूठ भी’, सामाजिक सजावट में वे लोग जो प्रभुत्व के उस ऊंचे ठीये पर हैं, जहां से अपना झूठ भी ‘बेहतर’ तरीके से बेच लेते हैं, पर साधारण जमीन पर खड़ा खिन्न जन-यूथ खांटी सच अपने पूरेपन में नहीं बेच पाता | असली प्रसाधन पर नकली प्रसाधन भारी पड़ जाते हैं |
पूरी कविताएँ; सामाजिक सजावट में स्त्री पुरुष के हिस्से का अपना श्रेष्ठतम देने के सरोकार की कविताएँ हैं | यहाँ ‘सजावट’ शब्द सस्ताऊ सा आपत्तिजनक न लगे, इसलिए कि समाज के स्त्री पुरुष की गट-फीलिंग्स में स्त्री का नैसर्गिक झुकाव सुख-समृद्धि और पुरुष का झुकाव शक्ति-सामर्थ्य की तरफ होता है और दोनों में सजावट आवश्यक है |
जब इन दिनों समाज पर अविश्वसनीयता का संकट हो, तब कविता का सावधान और सतर्क हो जाना
जरूरी लगता है | कविता के आत्मविच्छेदन पर ऐसा न लगे जैसा नारों के भीतर वचनबद्धता के अभाव से लगने लगता है | ‘प्रेम में पड़े रहना’ में सावधानी के तौर पर स्पष्ट दिखाई देता है कि सारी संज्ञाएँ विशेषणों के बीच कीचड़ में फँसी सद्य-प्रसूता गाय जैसी नहीं है |
बहनापे और भाईचारे को मिली यथेष्ठ जगह में उत्कीर्ण कवितायेँ जैसे ‘उदास होना वक़्त की तल्खियों पर’, ‘बिसराई गई बहनें भुलाई गई बेटियाँ’, ‘भाई- एक, दो, तीन’ आदि में ब्योरे पराश्रित नहीं हैं | पडौसी के घर से मिली हुई सारी चॉकलेट अपने पॉकेट में भरकर दीदी के लिए लाने वाले बाबू के लिए ‘सबका पराया होना’ तब भी…… “रहूँगी..तुम्हारे साथ, तुम्हारे पास”……….बाबू……और मेरा कौन है तुम्हारे सिवा”, दूरस्थ भाई के लिए नम मन से बुदबुदाने में जो खरापन और खारापन है, वह पृष्ठों पर भी जैसा का वैसा ही है | पीर-पीड़ा की पराकाष्ठा का स्केच – “हमारे बड़े होते होते/ छूट गए हैं/ कई छोटे छोटे सुख |”
शक्ति-स्वरूपा देवियों के प्रस्थान बिंदु अर्थात भारतीय स्त्री की व्यथा-कथा के आरम्भ से इक्कीसवीं सदी की चल रही तिथियों तक किस्सा-ए-औरत के प्रचुर प्रसंग वर्जनाओं और चेतावनियों से भरे पड़े हैं | विडम्बना यह है कि ये सब पथ-संकेतक गुफा, पशु, प्राकृतिक आपदाओं और प्रलय से बचाव की बजाय पुरुष की मनचीती से बचने अथवा बचाने के लिए हैं, दुर्भाग्य कि इसमें स्त्रियों का तबका भी शामिल रहा है, बेशक वे संग्रह में दिखाई नहीं दीं |
‘मन की स्लेट’ के मूर्त-शिल्प में उपर्युक्त सन्दर्भ सम्प्रेषनीय और मुखर है | दादी के मुख से निकली समझाईश में “सबर करना अपने भाग्य पर …..विधि का लेखा कौन टाले/ जो होता है/ अच्छे के लिए होता है |” संग्रह की प्रतिनिधि दादी से पूछती भी है – “ज्यादा पढ़कर खाली औरतों की ही / बुद्धि क्यों खराब हो जाती है/ मर्दों की काहे नहीं,….” | “नहीं पूछना क से शुरू होता कोई भी प्रश्न – क्या, क्यों, कहाँ, कैसे वाला” /…….सफ़ेद रखो मन की/ स्लेट ……. हमेशा/ कोरी रहनी चाहिए/ औरतों के मन की/ स्लेट | कुल मनुष्य की आधी इकाईयों पर आयद वर्जनाएं, प्रतिबन्ध जिनकी वजह से जिन्दगी के गणित में ये शामिल नहीं हो पा रही हैं | बस, सुनिए या पढ़िए |
इसी कविता की कहन-गढ़न से मेरी नज़र में आये कुछ दिलचस्प किन्तु संजीदा प्रयोगों की बात जरूर करूंगा जो समान रूप से सारी कविताओं पर लागू होती है |
पृष्ठ 42 पर ‘खाली औरतों की’ वाक्यांश में ‘खाली’ का प्रयोग ध्यान खींचता है | उदाहरण के तौर पर हिन्दुस्तानी बोली भाषा से अपरिचित कोई अंगरेजी मूल का अनुवादक इसका तर्जुमा करना चाहे तो खाली का अर्थ एम्टी, वोईड यानी रिक्तता, अधिक हुआ तो निठल्लेपन से लेगा, परन्तु इस सृजन में वह ‘केवल या सिर्फ (ओनली)’ का अर्थ लेकर आया है | पृष्ठ 44 पर ‘सफ़ेद रखो मन की स्लेट’ स्लेट और मन की सफेदी चौंकाकर खुशी देता है | ‘छोडी गईं औरतें और भुलाई गईं प्रेमिकाएँ’ पृष्ठ 59 में परित्यक्ताओं का खुद से अंकवार होना माँ या पत्नी या किसी भी स्त्री से गले मिलने के अर्थ से पार ले जाता है, इसी पृष्ठ पर परित्यक्त वयस्क मन में चौदहवें या सोलहवें साल के चेहरे की स्मृति से खुद में ताजगी को उदय करने की कोशिश का बिम्ब बहुत गहरे में छूता है |
एक संकेतक जिस पर लिखा है ‘जाना मना है’ और तीर का निशान सड़क पर जिस ओर है उधर भाषा का मैदान है | उसे तो स्त्री की कलम कब का उठाकर अलग कर चुकी है | पर फ़लक उस मैदान पर पहुँच चुकी है क्योंकि वह देख चुकी है, अपनी ‘पीठ की आँख’ से | पांच वाक्यांशों की यह क्षणिका व्यंजना बहुल है, रोशनी का विस्फोट भी | अपने रिफ्लेक्स एक्शन के साथ जब पुरुष कहता है – मेरी पीछे भी आँख है तो उसकी अंगुलियाँ मस्तक के समानांतर सिर के पिछले हिस्से को ठोकती है पर फ़लक शीश-पार्श्व की जगह पीठ को इंगित करती है और पीठ ह्रदय के समानांतर है | यह नारी लेखन के वैशिष्ट्य-खाते में फ़लक के निजी प्रतिभा खाते से ट्रांसफर है |
ये कविताएं साहचर्य के अभ्यंतर की हैं, जिनका मंतव्य है कि भीतरी नवाचार से बहिरंग में नवोन्मेष का निष्पादन सहज करना | ऐसा सृजन अपेक्षाकृत कम है, पर है | यह लेखन देह-भाषा, बोलचाल, भदेस-चिंतन, औसत आदमी के औसत व्यवहार के संवेदनात्मक कारणों की पड़ताल और समाधान वैज्ञानिकी के सिद्धांतों से करता है |
मुल्क में जब ‘व्यवस्था की कौनसी दिशा’ का प्रश्न काल चल रहा है, तब ये कवितायेँ वैज्ञानिक रचनात्मकता की ओर संकेत करती हैं | साहित्य में वैज्ञानिक चिंतन का अर्थ है कि सृजन किसी धारा के समर्थन या विरोध में नहीं होता बल्कि उत्पाद चीजों को बेहतर ढंग से समझने का सटीकता के लिए आश्वासन देता है | रंजीता की इन कविताओं में यह घटक है |
ये कवितायेँ मुझे बतला रही है कि बाबा तुलसी ने बतलाया –
धीरज धर्म मित्र अरु नारी | आपदकाल परिखिअहिं चारी ||
पर यदि माँ रत्नावली बतलाती तो –
धीरज धरम सखि नर चारी | आपद में हि परिखिअहिं सारी ||
सुश्री रंजीता ‘फ़लक’ की और कविताओं की प्रतीक्षा करूंगा | शुभकामना |
लेखक:
लक्ष्मीकांत जवणे
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