पश्चिम बंगाल में ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस का भारी मतों से जीतना तो पहले से ही तय था. क्योंकि उसका कोई विकल्प नहीं रह गया था. कौन था तृणमूल कांग्रेस का मुख्य प्रतिद्वंद्वी? जवाब है, वाममोर्चा-कांग्रेस (वाम-कांग) गठबंधन. शुरू से इस गठबंधन ने लोगों में गहरा भ्रम पैदा किया. इस दोस्ती का अनेक लोग कोई अर्थ नहीं निकाल पा रहे थे. लोगों में चर्चा थी कि दो साल पहले केंद्र में कांग्रेस के शासनकाल में चरम भ्रष्टाचार हुए. सरकारी धन का दुरुपयोग, धन कुबेरों को डूबने वाला कर्ज़ देने और कुशासन के मामले में कांग्रेस बुरी तरह बदनाम पार्टी रही है.
इस गठबंधन के पास न कोई साझा स्पष्ट नीति थी और न ही कोई आकर्षित करने वाला साझा एजेंडा. उनका नारा था, ममता बनर्जी के कुशासन को खत्म करें. मतदाताओं पर इस नारे का कोई खास असर नहीं था. रही सही कसर अखबारों में छपी एक फोटो ने पूरी कर दी. साझा चुनाव प्रचार के दौरान एक मंच पर वाममोर्चा के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ बड़ी सी माला पहने प्रसन्न मुद्रा में खड़े थे.
एक ही माला में दोनों नेता समाए हुए यूं दिख रहे थे जैसे कांग्रेस-कम्युनिस्ट भाई-भाई का नारा लगा रहे हों. सभी जानते थे कि केरल में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियों के खिलाफ अपनी पूरी ताकत से लड़ रही है. केरल में राहुल गांधी ने मंच से कहा था कि कम्युनिस्ट पार्टियों की विचारधारा सदियों पुरानी है, जिसकी प्रासंगिकता आज खत्म हो चुकी है. इधर पश्चिम बंगाल में वही राहुल गांधी एक ही माला में एक घनघोर कम्युनिस्ट नेता के साथ प्रसन्नतापूर्वक समाए हुए थे. ऐसे में लोगों में भ्रम और खीझ पैदा होना स्वाभाविक था. यह कैसी विचारधारा है? बसों, ट्रेनों और चाय की दुकानों पर मतदाताओं की यह खीझ देखी, सुनी और महसूस की जा सकती थी.
लोगों का प्रश्न था आखिर क्यों इस गठबंधन को सरकार बनाने का मौका देना चाहिए? इनकी विचारधारा एक कैसे हो गई? क्या समानता है कम्युनिस्ट और कांग्रेस पार्टी में? कांग्रेस सर्वहारा वर्ग की कब से हमदर्द हो गई? जब मतदाता यह प्रश्न उछालने लगे थे तभी लग गया कि कांग्रेस-वाममोर्चा गठबंधन को लोग धूल चटाने वाले हैं. चुनाव परिणाम सामने आए तो अगले दिन एक प्रमुख अखबार ने बुद्धदेव भट्टाचार्य की वह फोटो प्रकाशित की जिसमें वे गहरी सोच में डूबे हुए हैं.
क्या यह आत्ममंथन की तस्वीर है? भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी सुरावरम सुधाकर रेड्डी ने कहा कि कांग्रेस के साथ वाममोर्चा का गठजोड़ काम नहीं आया. हमें 36-36 प्रतिशत वोट मिलने चाहिए थे. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. हमें गंभीरता से आत्ममंथन करना होगा. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) जिसे हम संक्षेप में यहां माकपा लिखेंगे, की नेता वृंदा करात ने कहा कि चुनाव नतीजे आने के बाद गंभीर विचार-विमर्श की जरूरत आ खड़ी हुई है. इस बार हुए विधानसभा चुनाव में कुल 294 सीटों में से तृणमूल कांग्रेस को 211, कांग्रेस को 44, वाममोर्चा (प्रमुख घटक माकपा) को 32 और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 3 सीटें मिली हैं. बाकी 4 सीटें अन्य उम्मीदवारों को मिली हैं जो स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ रहे थे.
निश्चय ही आप के मन में सवाल उठ रहा होगा कि चुनाव से ठीक पहले नारदा कांड, निर्माणाधीन फ्लाई ओवर के अचानक गिरने और तमाम तरह के आरोपों के बावजूद कैसे ममता बनर्जी की पार्टी को भारी बहुमत से जीत हासिल हो गई? आइए क्रम से इस पर गौर करते हैं.
सबसे पहला कारण है अल्पसंख्यकों का एकजुट होकर ममता बनर्जी का समर्थन करना. पश्चिम बंगाल में मुस्लिम समुदाय के लोगों की आबादी 25.2 प्रतिशत है. इस बार चुनाव में इस समुदाय के ज्यादातर लोग ममता बनर्जी के साथ थे. इसके अलावा व्यक्तिगत रूप से ममता बनर्जी की छवि एक ईमानदार और कड़क नेत्री की है. उनकी साफ-सुथरी व्यक्तिगत छवि को कोई चुनौती नहीं दे सकता. सभी जानते हैं कि हवाई चप्पल पहन कर ही वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठती हैं. ममता पहली रेल मंत्री थीं जिन्होंने 60 साल और उससे ज्यादा की आयु वालों को वरिष्ठ नागरिक माना और उनके टिकट दर में छूट देने का ऐलान किया था. रेलवे में उनकी बनाई यह परंपरा आज भी जारी है. दूसरी खूबी यह है कि बिना लाग-लपेट के वह दो टूक बातें करती हैं. एकदम स्पष्ट शब्दों में. वहीं उनकी छवि में कोई दाग नहीं है.
दूसरा कारण यह है कि वाममोर्चा के शासन को मतदाता लगातार 34 सालों तक देख चुके हैं. कांग्रेस पश्चिम बंगाल के लोगों से लगातार दूर जा रही है. हालांकि, इस चुनाव में उसे 44 सीटें मिली हैं. लेकिन ये वही सीटें हैं, जहां के मतदाता पार्टी को नहीं, नेता को वोट देते हैं. भारतीय जनता पार्टी का पश्चिम बंगाल में मजबूत जनाधार नहीं है. इस पार्टी के प्रति लोगों में आकर्षण का कोई कारण नहीं दिखता. महंगाई पहले से ज्यादा हो गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब तक पश्चिम बंगाल के लिए आकर्षण का केंद्र नहीं बन पाए हैं. लोग अब तक समझ नहीं पा रहे हैं कि वह भारतीय जनता पार्टी को वोट क्यों दें. यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी तीन सीटें ही बटोर सकी है. ये सीटें हैं- खड़गपुर सदर (पश्चिम मेदिनीपुर), मदारीहाट (अलीपुरदुआर) और वैष्णवनगर (मालदा). हालांकि भाजपा इस बात से खुश है कि उसकी सीटों की संख्या बढ़ रही है.
तीसरा कारण यह है कि लोग यह मानते हैं कि दीदी यानी ममता बनर्जी अपनी पार्टी के उन नेताओं को अवश्य दंडित करेंगी जो उन्हें बदनाम कर रहे हैं या जिनका नाम घोटालों में सामने आया है. वह अपनी या पार्टी की छवि को धक्का पहुंचाने वाले नेता को बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं करतीं. सुस्ती या लापरवाही उनके शब्दकोश में नहीं है. मतदाता उनकी इसी कार्य शैली के कारण उन्हें पसंद करते हैं.
चौथा कारण यह है कि लोग मानते हैं कि ममता बनर्जी के लिए पांच साल का समय बहुत कम है. उन्हें और ज्यादा समय देना चाहिए. कई योजनाओं को मूर्त रूप देने में समय लगता है. जैसे सागरद्वीप को पर्यटन स्थल बनाना या कोलकाता को लंदन जैसा रूप देना उनका सपना है. अन्य कई योजनाएं उनके दिमाग में हैं जिन्हें वह कहती हैं पूरा करना है, उसकी रूपरेखा को अंतिम रूप देना है. मतदाता दीदी को कुछ और समय देना चाहते थे. ममता बनर्जी की जीत के कारणों में से एक यह भी है.
लेकिन उनके मंत्रिमंडल में रह चुके आठ नेता इस चुनाव में हार गए हैं. हार का मुंह देखने वाले ये नेता हैं- बिजली मंत्री रहे मनीष गुप्ता (जादवपर), क़ानून व स्वास्थ्य मंत्री रह चुकीं चंद्रिमा भट्टाचार्य (दमदम-उत्तर), पिछड़ी जाति व जनजाति विकास मामलों के मंत्री रह चुके उपेन विश्वास (बागदा), कपड़ा मंत्री रह चुके श्यामापद मुखर्जी (विष्णुपुर), खाद्य प्रसंस्करण मंत्री कृष्णेंदु नारायण चौधरी (इंग्लिश बाजार), बिना किसी विभाग की मंत्री रह चुकी सावित्री मित्र (माणिकचक), पीडब्लूडी मंत्री रह चुके शंकर चक्रवर्ती (बालूरघाट) और पूर्व परिवहन व खेल मंत्री मदन मित्र (कमरहाटी). मदन मित्र तो सारधा घोटाले के आरोप में जेल में बंद हैं. मतदाताओं को ये सभी मंत्री पसंद नहीं आए. पश्चिम बंगाल में इस जीत का श्रेय सिर्फ और सिर्फ ममता बनर्जी को जाता है.
जो वाममोर्चा पश्चिम बंगाल में लगातार 34 सालों तक सत्ता में रहा, वह आज तीसरे नंबर पर है. जिस कांग्रेस पार्टी से उसने गठजोड़ किया था वह दूसरे नंबर पर आ गई और विपक्ष के नेता का पद मांगने लगी. अब तक यह पद वाममोर्चा के पास था. पिछली विधानसभा में विपक्ष के नेता रह चुके माकपा के सूर्यकांत मिश्र इस बार भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किए गए थे, लेकिन वे अपने क्षेत्र नारायणगढ़ से हार गए. यह वाममोर्चा के लिए बड़ा झटका है. सूर्यकांत मिश्र की छवि तेज-तर्रार नेता की है. लेकिन मतदाताओं ने उन्हें अस्वीकार कर दिया. जिस सिंगुर को लेकर वाममोर्चा खुश था कि ममता बनर्जी तो इंतजार कर रहे किसानों को आखिरकार अधिग्रहित ज़मीन नहीं लौटा सकीं (मामला अदालत में है), वहां शायद जीत होगी, लेकिन यह खुशी कुछ ही दिनों की रही और माकपा के रॉबिन देव चुनाव हार गए. वहां तृणमूल कांग्रेस के रवींद्रनाथ भट्टाचार्य बीस हजार से ज्यादा वोटों से जीत गए.
मुख्यमंत्री समेत सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के कई उम्मीदवार जीते तो हैं लेकिन पिछले चुनाव की तुलना में जीत का अंतर काफी घट गया है. आइए कुछ उदाहरण देखें-
- मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, भवानीपुर विधानसभा सीट से पिछली बार 54,213 वोटों से जीती थीं. इस बार वह 25,301 वोटों से जीती हैं.
- शोभनदेव चट्टोपाध्याय, रासबिहारी सीट से पिछली बार 49,894 वोटों से जीते थे. इस बार वह 14,553 वोटों से जीते हैं.
- सुब्रत मुखर्जी, बालीगंज सीट से पिछली बार 41,184 वोटों से जीते थे. इस बार 15,225 वोटों से जीते हैं.
- नयना बंद्योपाध्याय (सांसद सुदीप बंद्योपाध्याय की पत्नी) चौरंगी सीट से पिछली बार 57,739 वोटों से जीती थीं. इस बार 13,216 वोटों से जीती हैं.
- स्मिता बक्शी, जोड़ासांको सीट से पिछली बार 31,509 वोटों से जीती थीं. इस बार 6,290 वोटों से जीती हैं. इसी इलाके में फ्लाईओवर बनते समय ही गिर पड़ा था. स्मिता बक्शी पर बचाव कार्य में सक्रिय रूप से हिस्सा न लेने का आरोप था.
- अरूप विश्वास, टॉलीगंज सीट से पिछली बार 27,860 वोटों से जीते थे. इस बार 9,896 वोटों से जीते हैं.
- पार्थ चटर्जी, बेहला पश्चिम सीट से पिछली बार 59,021 वोटों से जीते थे. इस बार 8,896 वोटों से जीते हैं.
- व्रत्य बसु, दमदम सीट से पिछली बार 31,477 वोटों से जीते थे. इस बार 9,316 वोटों से जीते हैं.
- सुजीत बसु, विधान नगर सीट से पिछली बार 85,925 वोटों से जीते थे. इस बार 6,988 वोटों से जीते हैं.
इस तरह स्पष्ट है कि मतदाताओं में इन उम्मीदवारों के प्रति आकर्षण घटा है. लेकिन चूंकि ममता बनर्जी अकेले ही सौ पर भारी पड़ने वाली नेता हैं, इसलिए उनकी ईमानदार और जुझारू छवि ने ही इस बार सत्ता की चाभी उन्हें सौंप दी है.
किस पार्टी को कितने प्रतिशत वोट मिले यह भी जान लें. ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस को 44.9 प्रतिशत, कांग्रेस को 12.3 प्रतिशत, वाममोर्चा को 27.41 प्रतिशत, भारतीय जनता पार्टी को 10.2 प्रतिशत वोट मिले. इसमें एक बात नोट करने लायक है. जिस भारतीय जनता पार्टी को पिछले चुनाव में सिर्फ चार प्रतिशत वोट मिले थे, आज उसे 10.2 प्रतिशत वोट मिल रहे हैं तो इसे महत्वपूर्ण माना जा सकता है. चूंकि पश्चिम बंगाल बांग्लादेश के बॉर्डर पर है, इसलिए वहां एक खास समुदाय के वोट भाजपा के पाले में जाएं तो आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए.
अब कांग्रेस-वाममोर्चा गठबंधन के कुछ अन्य तथ्यों और माकपा के भीतर इसे लेकर अंतर्विरोध के कुछ बिंदुओं पर नज़र डालें. पोलित ब्यूरो के ज्यादातर सदस्य जिनके अगुवा प्रकाश करात थे, कांग्रेस के साथ किसी भी गठबंधन के विरोध में थे. करात ने सिर्फ तारकेश्वर में एक सभा को संबोधित किया. इसके बाद वह किसी जनसभा में नहीं आए. जबकि वृंदा करात और सीताराम येचुरी ने कुछ अन्य जनसभाओं को संबोधित किया. लेकिन ये नेता मंच पर कांग्रेस के नेताओं के साथ नहीं बैठे. लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ पार्क सर्कस में आयोजित एक जनसभा में एक मंच पर बैठे और एक माला में समाए. अब पोलित ब्यूरो के जो लोग कांग्रेस के साथ गठबंधन का विरोध कर रहे थे, वे खुलकर अपनी नाराज़गी जताने लगे हैं. माकपा के मोहम्मद सलीम पहले से ही इस गठजोड़ का विरोध करते रहे हैं.
अब राज्य के माकपा सचिव सूर्यकांत मिश्र, जो खुद अपनी सीट पर हार गए हैं, पर जिम्मेदारी आ गई है. वह इस चुनावी हार का विश्लेषण पोलित ब्यूरो के सामने रखेंगे. यह तथ्य सभी जानते हैं कि पश्चिम बंगाल माकपा के ज्यादातर स्टेट कमेटी के सदस्य कांग्रेस के साथ गठजोड़ चाहते थे. उनका कहना है कि वह 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस के साथ गठजोड़ रखना चाहेंगे. लेकिन अब इस गठजोड़ को दोहराना इतना आसान नहीं है क्योंकि पोलित ब्यूरो का एक बड़ा हिस्सा इसके खिलाफ था और है.
कांग्रेस पार्टी तो खुश है. माकपा के साथ गठबंधन का भरपूर फायदा उसे ही मिला है. उसने वाममोर्चा के मतदाताओं का वोट तो अपनी ओर खींचा ही है, अपने मतदाताओं की संख्या भी बढ़ाई है. इसीलिए कांग्रेस को कई लोग गठजोड़ का वोट सोख लेने वाली पार्टी कह रहे हैं. इसीलिए ममता बनर्जी के सामने यह गठजोड़ कमजोर का कमजोर ही रहा.
वाममोर्चा-कांग्रेस गठबंधन बना रहेगाः सूर्यकांत मिश्र
चुनाव परिणाम आने के एक दिन बाद ही माकपा के राज्य सचिव सूर्यकांत मिश्र ने एक संवाददाता सम्मेलन में अपनी पार्टी के साथ कांग्रेस के गठबंधन को उचित बताया और कहा कि कई वाममोर्चा के साथियों के विरोध के बावजूद यह जारी रहेगा. पार्टी के प्रमुख नेताओं के साथ बैठक करने के बाद वह अलीमुद्दीन स्ट्रीट स्थित माकपा के राज्य मुख्यालय (सेक्रेटेरिएट) में ऐसा कह रहे थे. उन्होंने कहा, हम राज्य में चुनाव परिणामों की विस्तार से समीक्षा करेंगे. लेकिन जो लोग इस गठजोड़ पर सवाल उठा रहे हैं, वे गलत हैं.
पिछली बार वाममोर्चा और कांग्रेस ने विधानसभा में 56 सीटें हासिल की थीं. इस बार हमारे गठजोड़ को 77 सीटें मिली हैं. पिछली बार से हम ज्यादा मजबूत हुए हैं. क्या यह प्रगति नहीं है? हम भविष्य में गठबंधन जारी रखने के लिए अपनी सहयोगी पार्टियों और कांग्रेस से बातें करेंगे. जो लोग इस गठबंधन का विरोध कर रहे हैं वे जनता के दिमाग में भ्रम और शंकाएं पैदा कर रहे हैं. मतदाताओं ने सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ हमें वोट दिया है.
यह बात अब स्पष्ट हो चुकी है कि माकपा का एक धड़ा राज्य सचिव सूर्यकांत मिश्र औऱ पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के गठबंधन सिद्धांत के खिलाफ था और है. मुखालफत करने वाले ये नेता कह रहे हैं कि कांग्रेस ने गठबंधन करके हमारे वोटों का फायदा उठाया और सिर्फ 91 सीटों पर लड़कर 44 सीटें हथिया ले गई. इधर माकपा, राजद और जद (यू) गठबंधन को 32 सीटों से ही संतोष करना पड़ा.
राज्य स्तर के कुछ नेताओं ने तो मीडिया के सामने भी इस गठबंधन का विरोध किया. वाममोर्चा के चेयरमैन रहे विमान बोस ने कहा, एटा जोट कोथाय, घोंट होएछे. शुधू बोझापोड़ा होएछे (यह गठबंधन कहां है? यह तो एक पैच-अप था, आपसी सहमति थी). माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य मोहम्मद सलीम ने शुरू में ही कहा था कि यह गठबंधन ठीक नहीं है. उनका कहना था कि कांग्रेस, माकपा की मदद करने की स्थिति में नहीं है.
इस चुनाव परिणाम ने दिल्ली के पोलित ब्यूरो और सेंट्रल कमेटी के लोगों को भी सोच में डाल दिया है. इस गठबंधन का माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने समर्थन किया था. अब पार्टी के भीतर उनके इस कदम की आलोचना हो रही है. पश्चिम बंगाल के माकपा के सचिव सूर्यकांत मिश्र भी इस आलोचना के शिकार हैं और भविष्य की बैठकों में भी होंगे. माकपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, भवानीपुर से ममता बनर्जी 25 हजार से कुछ ज्यादा वोटों से जीतीं. उनका वोट प्रतिशत 47.6 था. माकपा नेता कांति गांगुली को रायदीघी में 46 प्रतिशत वोट मिले. वह केवल 1200 वोटों से हारे. तो ये सारी बातें सेंट्रल कमेटी की बैठक में उठने वाली हैं. गठबंधन के समर्थन या विरोध वाले खेमों में इतनी असहमतियां हैं कि परिणाम आने में समय लग सकता है.