भारत की रचना महासंघ (फेडरेशन) के बजाय एक संघ (यूनियन) के रूप में की गई थी. इसके संस्थापक सदस्यों ने यह सोचा था कि कांग्रेस केंद्र के साथ-साथ सभी राज्यों में सत्ता में रहेगी. इसलिए इसकी शासन व्यवस्था का झुकाव केंद्र की तऱफ कर दिया गया. समय के साथ केंद्र कुछ कमज़ोर हुआ, लेकिन फिर भी आर्थिक नियंत्रण केंद्र के पास ही रहा. इस बीच राज्य और अधिक शक्तिशाली बन गए. उदाहरण के लिए तमिलनाडु, जो केवल कहने के लिए एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं है. अब हमारे सामने एक प्रतिस्पर्धी महासंघ है. बड़े राज्यों, जो इतने बड़े हैं कि एक स्वतंत्र राष्ट्र बन सकते हैं, ने अपनी शासन व्यवस्था और नीतियों में नए-नए प्रयोग करने शुरू कर दिए हैं. ऐसा नहीं है कि उनके सभी नए प्रयोगों को बहुत सफल या अच्छा कहा जा सकता है, लेकिन इसके बावजूद यह स्थानीय स्वायत्तता के लिए महत्वपूर्ण है. भारत कई राष्ट्रों का एक राष्ट्र है, जैसा कि यूरोप है. हालांकि, यूरोप में आज भी एक कारगर संघ निर्मित करने का संघर्ष जारी है.
स्वायत्तता के साथ विविधता आती है और प्रयोगों के प्रभावी होने, लोगों में उनकी लोकप्रियता या अलोकप्रियता में फर्क भी ज़ाहिर होता है. इस संबंध में तीन प्रयोग ग़ौर करने योग्य हैं. पहला प्रयोग दिल्ली से संबंधित है, जहां ट्रैफिक में कमी लाने और कारों के बजाय बसों को प्राथमिकता देने की कोशिश की गई. बेशक यह बहुत मुश्किल काम था, जिसे अचानक नहीं किया जा सकता था. लेकिन फिर भी, अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की विभिन्न खामियों के बावजूद ऑड-इवेन नीति की सफलता स्वीकार करनी पड़ेगी. दिल्ली के नागरिकों ने क़ानून तोड़ने की अपनी प्रवृत्ति छोड़कर आश्चर्यजनक रूप से इसमें सहयोग दिया. यह नीति सफल रही. इसे होशियारी के साथ लागू किया गया था. बेशक यह नीति प्रदूषण की समस्या का निदान नहीं बन पाई, लेकिन इससे प्रदूषण की समस्या में कमी ज़रूर आई. यह राज्यों को प्राप्त सीमित स्वायत्तता का एक बुद्धिमत्ता भरा प्रयोग था.
अब महाराष्ट्र का रुख करते हैं, जहां एक प्रगतिशील नौजवान मुख्यमंत्री ने बीफ पर प्रतिबंध लगा दिया, जो गैर ज़रूरी और उकसाने वाला फैसला था. इसकी शुरुआत जैनियों को खुश करने के लिए सांकेतिक तौर पर हुई थी, लेकिन बाद में इसे जारी रखने का कोई औचित्य नहीं रह गया. गौ-कशी और बीफ खाने पर पाबंदी ग़ैर ज़रूरी है. सनातन धर्म में बीफ खाने के प्रति विरोध या घृणा की भावना का अनुमोदन नहीं मिलता. इस ़फैसले में गाय और भैंस के मांस को गड्डमड्ड कर दिया गया है. बहरहाल, राज्य सरकार का यह ़फैसला मुंबई के कॉस्मोपॉलिटन प्रकृति के विपरीत है. इस वजह से बड़े कॉरपोरेशंस, जिनमें विदेशी कर्मचारी काम करते हैं, मुंबई (यहां तक कि महाराष्ट्र) से किसी दूसरी जगह जाने के बारे में सोच सकते हैं. यह राज्यों को हासिल अधिकारों का दुरुपयोग है.
बिहार के करिश्माई मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शराबबंदी की योजना बना रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं कि स्वास्थ्य और परिवार की आमदनी पर शराब के दुष्प्रभाव से लोगों को अवगत कराना अच्छी बात है. शराबी व्यक्ति घरेलू हिंसा में भी शामिल होता है. लोगों को शराब के दुष्प्रभाव से अवगत कराना कोई मुश्किल काम नहीं है, लेकिन शराब पर पाबंदी एक खराब विकल्प है. इसकी वजह से न केवल राजस्व की हानि होगी, बल्कि आपराधिक मामलों में भी वृद्धि होगी. शराब पर पाबंदी ग़ैर क़ानूनी समूहों के लिए एक बड़ा धंधा बन जाएगी. ग़रीब लोग खराब एवं अवैध शराब पीना शुरू कर देंगे और अमीर लोग इससे बचने के उपाय ढूंढ लेंगे. अब सवाल यह उठता है कि गुजरात के इस नाकाम मॉडल को अपनाने की क्या ज़रूरत है? बिहार में विकास की ज़रूरत है, न कि शराब माफिया की वापसी की. इससे तो यही साबित होता है कि हर एक राज्य को अपना ऩुकसान करने का अधिकार भी है.
बहरहाल, समय के साथ महाराष्ट्र और संकीर्ण हो जाएगा. दूसरे राज्य, जहां क्या खाना है, क्या पीना है आदि जैसे कट्टरपंथी क़दम नहीं उठाए जाएंगे, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आकर्षित करने लगेंगे. बिहार में शराबबंदी की वजह से जहां राजस्व का ऩुकसान होगा, वहीं शराब माफिया को काबू में रखने पर पैसा भी खर्च करना होगा. वह पैसा, जिसे विकास कार्यों में लगना चाहिए. दरअसल, प्रतिस्पर्धी महासंघ के काम करने का यही तरीका है. यहां जो राज्य तर्कसंगत होंगे, वे फायदे में रहेंगे.