अजय बोकिल
यूं तो यह शब्दावली पत्रूकारिता की है, लेकिन इससे सियासत की नई राहें भी खुल सकती हैं, नए राजनीतिक समीकरण बन सकते हैं, हिंदी फिल्मों की माफिक दो (लड़कर) बिछुड़े ‘भाई’ भी फिर मिल सकते हैं। शायद इसीलिए शिवसेना के बड़बोले प्रवक्ता संजय राउत, भाजपा नेता व महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस का अपने अखबार ‘सामना’ के लिए कथित ‘इंटरव्यू’ करने पहुंचे थे। एक ऐसा ‘इंटरव्यू’ जिसके होने से पहले ही सियासी बवाल मच गया। मीडिया के सवालों पर फडणवीस ने इशारों में कहा-हां, वो मेरा इंटरव्यू लेने आए थे। मैंने कहा कि अगर ये इंटरव्यू ‘अन कट’ हो और इंटरव्यू के दौरान मेरा कैमरा भी हो तो मैं इंटरव्यू देने तैयार हूं। इन दो नेताओं की 2 घंटे से ज्यादा चली मुलाकात के बाद ‘सामना’ के कार्यकारी संपादक संजय राउत ने सफाई के अंदाज में कहा कि चूंकि फडणवीस बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा के प्रभारी भी हैं, इसलिए उनसे इंटरव्यू करना है। वैसे भी हम दोनो कोई ‘दुश्मन’ थोड़े ही हैं।
गौरतलब है कि अभिनेता सुशांत मौत प्रकरण की जांच का सिरा बाॅलीवुड में गहरे तक फैले ड्रग्स के जाल में खुलने का सीधा असर राज्य में राजनीतिक पार्टियों के सियासी रिश्तों पर भी होता दिख रहा है। उधर सुशांत के लिए न्याय की मांग कर रहा उनका परिवार मामले के इस मोड़ से हतप्रभ है कि क्या से क्या हो गया। सुशांत की मौत की प्रोफेशनली जांच कर रही सीबीआई के हाथ मर्डर के अब तक क्या ठोस सबूत हाथ लगे हैं, यह किसी को नहीं पता। उल्टे यह खतरा सता रहा है कि कहीं सुशांत का नाम ड्रग्स मामले में न उलझ जाए। इस मामले में ड्रग्स एंगल की जांच में जो नए-नए खुलासे हो रहे हैं, उससे केन्द्र सरकार और भाजपा की बांछें खिल उठी हैं। इससे यह संदेश जा रहा है कि सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स जैसी एजेंसियां भी अब उतनी काम की नहीं रह गई हैं, जितनी कि एनसीबी (नेशनल नारकोटिक्स ब्यूरो) हो सकती है। आश्चर्य नहीं कि ड्रग्स जांच के तार फिल्मी सितारों के मार्फत उन राजनीतिक दलों और नेताओं तक पहुंचने लगें, जनसे सियासी हिसाब चुकता कया जाना है। मान कर चलिए कि यह मामला बाॅलीवुड तक सीमित नहीं रहने वाला, कल को शिवसेना और फिर पंजाब भी इसकी लपेट में आ सकता है। क्योंकि कई अकाली नेताअों के नाम ड्रग कारोबार में पहले भी आते रहे हैं। इस दृष्टि से अब तक हाशिए में रही एनसीबी की यह नई राजनीतिक उपयोगिता भी है।
बहरहाल बात महाराष्ट्र की। सुशांत-रिया प्रकरण की आड़ में परस्पर जोर आजमाइश के बाद दो पुराने दोस्त लेकिन अब विरोधी खेमे में बैठे शिवसेना और भाजपा के बीच रिश्तों के तार नए सिरे से जुड़ने या ऐसी कोशिश करने की सुगबुगाहट है। यूं भी महाआघाडी सरकार के खाते में कोई ठोस उपलब्धि नहीं है सिवाय इसके कि कोरोना प्रकोप में महाराष्ट्र नंबर वन बना हुआ है। हालांकि सत्ता में भागीदार राकांपा-कांग्रेस कृषि बिल पर राज्य के किसानों को गोलबंद करने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन मामला उस तरह नहीं गर्मा रहा, जैसा कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंजाब में सुलगा दिया है।
वैसे भी बीते एक साल में सत्ता पर काबिज होने को लेकर शिवसेना और भाजपा में मची खींचतान और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ इस हद तक पहुंच गई है कि उससे और नीचे जाना अब शायद संभव नहीं है। उधर एनडीए से अलग होने के बाद भी शिवसेना अपना सियासी डीएनए नहीं बदल पा रही है। ‘कभी हां, कभी ना’ की मुद्रा में वह कभी मोदी सरकार का समर्थन करती है तो कभी विरोध। कृषि बिलों पर भी उसका विरोध दिखाऊ ज्यादा था। हिंदुत्व और राम मंदिर मामले पर वो भाजपा के साथ है तो महाराष्ट्र की अस्मिता और राज्य के हितों को लेकर वह भाजपा के विरोध में है। शिवसेना को राकांपा- कांग्रेस के साथ सत्ता साझा करने में संकोच नहीं है, लेकिन वह कांग्रेस के साथ बैठी हुई भी नहीं दिखना चाहती। ऐसे में जैसे ही संजय राउत और फडणवीस की मुलाकात की खबरें वायरल हुई, राकांपा नेता और ठाकरे सरकार के असली सूत्रधार शरद पवार तुरंत उद्धव से जाकर मिले। हालांकि घोषित तौर पर शिवसेना ने किसी ‘मिली भगत’ से साफ इंकार कर दिया। लेकिन ‘दुश्मन’ से भी ‘इंटरव्यू’ कर सकने की यह ‘पत्रकारीय अदा’ लोगों के दिलों में शक के बीज जरूर बो गई।
यह भी सच है कि महाराष्ट्र की राजनीति में कभी हिंदुत्व के सवाल पर कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली भाजपा और िशवसेना के बीच राजनीतिक दूरियां और परस्पर अविश्वास इतना बढ़ गया है कि वह किसी एक ‘इंटरव्यू’ से वापस लौटना मुश्किल है। भले ही वह इंटरव्यू ‘अन कट’ हो या डबल कैमरे वाला हो। मजे की बात यह है कि इशारों में हो रही इस सियासी गुफ्त गू की प्रकट कार्रवाई एक गैर भाजपाई सूत्रधार रामदास आठवले के माध्यम से हो रही है। लगता है केन्द्र में सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण राज्य मंत्री आठवले पर अब दलितों से ज्यादा भाजपा को राज्य में राजनीतिक न्याय दिलाने की जिम्मेदारी आन पड़ी है। सुशांत प्रकरण में भी आठवले ने रिया चक्रवर्ती पर हत्या का शक जताते हुए जांच की मांग की थी। अब फडणवीस-राउत मुलाकात के बाद आठवले ने भाजपा की परोक्ष पेशकश को यह कहकर आगे बढ़ाया है कि दो पुराने साथी भाजपा और शिवसेना को 50-50 फार्मूले के आधार पर राज्य में सरकार बनाना चाहिए। मुख्यममंत्री का पद पहले की तरह देवेन्द्र फडणवीस को सौंप देना चाहिए। बदले में शिवसेना को केन्द्र में मंत्री पद मिले। जाहिर है कि इस गोलबंदी में आठवले की रिपब्लिकन पार्टी के लिए भी जगह होगी। आठवले का दावा है कि यह सरकार पांच साल चलेगी। यह प्रस्ताव इसीलिए भी अहम है कि इसी की वजह से भाजपा-शिवसेना की युति भंग हुई थी।
यही नहीं आठवले ने शिवसेना के राजी न होने पर सत्ता में वापसी का भाजपा का ‘प्लान बी’ भी सार्वजनिक किया। आठवले ने कहा कि यदि शिवसेना साथ न आए तो भाजपा को राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर राज्य में सरकार बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि शरद पवार जैसे अनुभवी नेता अगर एनडीए में आते हैं तो मोदीजी की ताकत ही बढ़ेगी। इस बयान से राज्य में नई राजनीतिक खलबली मची है। आठवले के माध्यम से प्रेषित इस प्रस्ताव पर शिवसेना क्या निर्णय लेगी और शरद पवार जैसे घुटे हुए नेता इस जाल में फंसेंगे या नहीं अभी नहीं कहा जा सकता। पर कोई खिचड़ी भीतर ही भीतर पकाने की कोशिश चल रही है।
दिलचस्प बात यह है कि इस नई पहल में भी कहीं न कहीं बिहार एंगल भी काम कर रहा है। क्योंकि बिहार चुनाव को ध्यान में रखकर ही भाजपा ने सुशांत की मौत को सियासी रंग में रंग दिया था। आशंका यह भी है कि बिहार चुनाव निपटते ही पूरा मामला ठंडे बस्ते में चला जाए। गहराई से समझें तो जिस बिहार विधानसभा चुनाव की वजह से भाजपा और शिवसेना में बाॅलीवुड के मंच पर खुली तलवारें चलीं, वही बिहार दूसरे रूप में भाजपा- शिवसेना को फिर करीब ला सकता है। फिलहाल यह संभावना ही है, लेकिन यह हकीकत में बदली तो सियासी खेमो में बंट चुकीं कंगना, रिया, दीपिका, पायल आदि का क्या होगा? उनके लिए जो ट्रोल और पे-ट्रोल आर्मियां लगी हैं, उनकी बंदूकों का क्या होगा? क्योंकि राजनीति में कभी भी और कुछ भी हो सकता है। यह संयोग भर नहीं है कि इस वक्त देवेन्द्र फडणवीस बिहार में भाजपा के विधानसभा चुनाव के प्रभारी हैं और राउत को भी इसी मुद्दे पर उनसे ‘इंटरव्यू’ करना है।
वरिष्ठ संपादक
‘सुबह सवेरे