शिवराज सिंह चौहान को आम तौर पर भाजपा का नरम चेहरा माना जाता रहा है. लेकिन उनके मौजूदा कार्यकाल में ऐसे कदम उठाये गये हैं, जो कुछ अलग ही तस्वीर पेश करते हैं. राजधानी भोपाल में धरनास्थल के लिये कुछ चुनिन्दा स्थानों का निर्धारण कर दिया गया है, जो बंद पार्क या शहर से कटे हुए इलाके है. इसी तरह से पूरे प्रदेश में जलूस निकालने, धरना देने, प्रदर्शन,आमसभाएं करने में कई तरह की अड़चने पैदा की जा रही हैं. भाजपा शासन में मध्यप्रदेश में विधानसभा की प्रासंगिकता कम होती गयी है. इस दौरान विधानसभा सत्रों की अवधि लगातार कम हुई है. पिछले दिनों मौजूदा विधानसभा का आखिरी सत्र मात्र पांच दिन के लिए तय किया गया था और इसे दो दिन में ही स्थगित कर दिया गया. ऐसा लगता है कि शिवराज सरकार विधायिका के इस बुनियादी विकल्प को ही खत्म कर देना चाहती है कि कोई उससे सवाल पूछे और उसे इसका जवाब देना पड़े.
पहला मामला बीते 21 मार्च 2018 विधानसभा सत्र खत्म होने के दिन का है. संसदीय कार्य विभाग द्वारा सभी विभागों को एक परिपत्र जारी किया गया था, जिसमें साफ निर्देश दिया गया था कि सम्बंधित विभाग मंत्रियों से विधानसभा में पूछे गये ऐसे किसी प्रश्न का कोई उत्तर न दिलवायें, जिससे उनकी जवाबदेही तय होती हो. परिपत्र का मजमून इस तरह से है कि विभागीय अधिकारी प्रश्नों के उत्तरों की संरचना, प्रश्नों की अंतर्वस्तु की गहराई से विवेचना करें, तो आश्वासनों की व्यापक संख्या में काफी कमी आ सकती है. मंत्रियों को प्रत्येक विषय पर आश्वासन देने में बड़ी सतर्कता बरतनी होती है.
यदि किसी विषय पर आश्वासन दे दिया जाए तो यथाशीघ्र उसका परिपालन भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए. अतः अपेक्षा की जाती है कि नियमावली के अनुबंध डी में आश्वासनों के वाक्य तथा रूप की सूची दी गई है. यह शब्दावली उदाहरण स्वरूप है. विधानसभा सचिवालय सदन की दैनिक कार्यवाही में से इसके आधार पर आश्वासनों का निस्तारण करता है. अतः विधानसभा सचिवालय को भेजे जाने वाले उत्तर/जानकारी को तैयार करते समय इस शब्दावली को ध्यान में रखा जाए तो अनावश्यक आश्वासन नहीं बनेंगे.
जवाब देते समय जिन 34 शब्दावलियों से बचने की हिदायत दी गयी है उनमें मैं उसकी छानबीन करूंगा, मैं इस पर विचार करूंगा, सुझाव पर विचार किया जाएगा, रियायतें दे दी जायेंगी, विधिवत कार्यवाही की जाएगी आदि शब्दावली शामिल हैं. नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने इसे सरकार द्वारा लोकतंत्र का गला घोंटने, विपक्ष की आवाज दबाने और विधानसभा का महत्व खत्म करने की साजिश बताया है और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से इस परिपत्र को वापस लेने की मांग की है.
इससे पहले मध्यप्रदेश विधानसभा का 2018 बजट सत्र में ही शिवराज सरकार द्वारा विधानसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन संबंधी नियमावली में संशोधन किया गया था, जो सीधे तौर पर सदन में विधायको के सवाल पूछने के अधिकार को सीमित करने की कोशिश थी. इसी तरह किये गये संशोधनों के तहत ये प्रावधान किया गया था कि विधयाक किसी अति विशिष्ट और संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की सुरक्षा के संबंध में हुये खर्च और ऐसे किसी भी मसले पर जिसकी जांच किसी समिति में चल रही हो, और प्रतिवेदन पटल पर नही रखा गया हो, के बारे में सवाल नही पूछ सकते हैं. प्रदेश में विघटनकारी, अलगाववादी संगठनों की गतिविधियों के संबंध में भी विधायकों द्वारा जानकारियां मांगने पर पाबंदी लगायी गयी थी. कुल मिलाकर यह एक ऐसा काला कानून था, जिससे विपक्ष की भूमिका बहुत सीमित हो जाती. इन नियमों को विपक्ष, मीडिया और सिविल सोसाइटी के दबाव में अंततः शिवराज सरकार को स्थगित करने को मजबूर होना पड़ा है.
मध्यप्रदेश में लम्बे समय से पुलिस कमिश्नर प्रणाली को लागू करने की बात की जाती रही है. इसी क्रम में शिवराज सरकार एकबार फिर भोपाल और इंदौर में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लाने की कवायद कर रही है. बीते मार्च महीने में गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह ने बयान दिया था कि उनकी सरकार पुलिस कमिश्नर सिस्टम को लागू करने पर विचार कर रही है. दलील यह दी जा रही है कि इस व्यवस्था के लागू होने से अपराध में कमी आयेगी.
अगर यह व्यवस्था लागू होती है तो कलेक्टर की जगह पुलिस को मजिस्ट्रियल पावर मिल जाएगा और उसे धारा 144 लागू करने या लाठीचार्ज जैसे कामों के लिए कलेक्टर के आदेश की जरूरत नहीं रह जाएगी. जानकार बताते है कि आगामी चुनाव में कानून-व्यवस्था चूंकि सबसे बड़ा मुद्दा हो सकता है, इसलिये शिवराज सरकार चुनावी साल में खराब कानून व्यवस्था और बढ़ते अपराधों पर से ध्यान हटाने के लिये पुलिस कमिश्रर सिस्टम को लागू कराने के लिए पूरी ताकत लगा रही है. इससे सरकार को अपने खिलाफ होने वाले धरना-प्रदर्शन और आंदोलनों को काबू करने में भी आसानी हो जायेगी.
इसके अलावा, मध्यप्रदेश सरकार जन सुरक्षा एवं संरक्षा विनियमन विधेयक लाने की तैयारी में है. जन सुरक्षा एवं संरक्षा विनियमन विधेयक पुलिस को असीमित अधिकार देता है. इसमें कई ऐसे प्रावधान हैं जो एक नागरिक के तौर पर किसी भी व्यक्ति और समाज की निजता व गरिमा पर प्रहार करते हैं. अगर यह कानून अस्तित्व में आ जाता है तो एक तरह से पुलिसिया राज कायम हो जायेगा. इससे पुलिस को आम लोगों की जिंदगी में दखल देने का बेहिसाब अधिकार मिल जाएगा और किसी व्यक्ति पर पुलिस द्वारा की गयी कारवाई को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकेगी.
साल 2015 में शिवराज सरकार द्वारा एक ऐसा विधेयक पास कराया गया था जो कोर्ट में याचिका लगाने पर बंदिशें लगाती है, इस विधयेक का नाम है तंग करने वाला मुकदमेबाजी (निवारण) विधेयक 2015. मध्यप्रदेश सरकार ने इस विधेयक को विधानसभा में बिना किसी बहस ही पारित करवाया लिया था और फिर राज्यपाल से अनुमति प्राप्त होने के बाद इसे राजपत्र में प्रकाशित किया जा चुका है. अदालत का समय बचाने और फिजूल की याचिकाएं दायर होने के नाम पर लाया गया यह एक ऐसा कानून है जो नागरिकों के जनहित याचिका लगाने के अधिकार को नियंत्रित करता है. इसका मकसद सत्ताधारी नेताओं और अन्य प्रभावशाली लोगों के भ्रष्टाचार और गैरकानूनी कार्यों के खिलाफ नागरिकों को कोर्ट जाने से रोकना है.
उपरोक्त परिस्थितयां बताती हैं कि मध्यप्रदेश में प्रतिरोध की आवाज दबाने और विरोध एवं असहमति दर्ज कराने के रास्ते बंद किये जा रहे हैं, विधानसभा को कमजोर किया जा रहा है और जन-प्रतिनिधियों के विशेषाधिकारों को सीमित किया जा रहा है, नागरिकों से उन्हें संविधान द्वारा प्राप्त बुनियादी अधिकारों को कानून व प्रशासनिक आदेशों के जरिये छीना जा रहा है. यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है. शिवराज सरकार को चाहिए कि वो हिटलरशाही का रास्ता छोड़े और प्रदेश में लोकतांत्रिक वातावरण बहल करें और संवैधानिक भावना के अनुसार काम करे.