सरकार हाथ से क्या गई, दिमाग के साथ मुंह और जुबान पर भी काबू जाता रहा…! जिस बात पर विपक्ष की भूमिका दिखाई जाना चाहिए, वहां मुंह में दही जमा कर बैठ जाते हैं, जहां बोलने से पहले सोचने की जरूरत होती है, वहां भक-भक बोलते रहते हैं…!
सत्ताधीशों के किसी भी जुमले को लेकर कुछ भी कहने की होड़ में सज्जनता और मर्यादित भाषा को भी भुला दिया गया है…! पन्द्रह महीने की सरकार में मंत्री रहे सज्जन बखान कर रहे हैं कि लड़की की प्रजनन की उम्र क्या होती है और उसकी शादी की उम्र क्या होना चाहिए…!
उनको मुख से शब्द निकालने की जरूरत इसलिए पड़ गई कि प्रदेश के मुखिया ने बच्चियों की शादी की उम्र को 21 कर देने की पैरवी की थी…! महज बयानों में बने रहने की लालसा मुंह से वह शब्द निकलवा रही है, जो एक मर्यादित, सभ्य, सुसंस्कृत समाज में अशोभनीय कहे जाते हैं…!
श्रेय की होड़ में इन्हीं के जोड़ीदार रहे एक निवृत्तमान मंत्री जी छाती ठोंकते नजर आ रहे हैं कि मंदिर निर्माण की शुरूआत हमारी पार्टी से हुई है, इसका पुण्य लाभ हमें मिलना चाहिए, इसके लिए चंदे की रणनीति और इसका तरीका हम तय करेंगे…!
दो जुमलों से उन्हें रामभक्तों की सिम्पैथी तो नहीं मिलेगी, लेकिन इस निर्माण के लिए धराशायी हुए एक इबादतगाह को चाहने वालों की नाराजगी इनके माथे जरूर गिरने वाली है…! ऐन छोटी सरकार के चुनाव के कुंए के पास खड़े होकर दिए जाने वाले ये बयान इन्हें प्रदेश के साथ मुहल्लों से भी विदा न कर दें, इस बात का ख्याल करना चाहिए…!
पुछल्ला
महा-राज के सपने चूर
यहां से छल्लांग लगाकर वहां फुदकने गए कुछ लोगों के हिस्से अब जिल्लत के घूंट ही बाकी दिखाई दे रहे हैं। पहले चुनावों से नाकामयाबी हाथ आई। फिर निगम-मंडलों में समाहित होने के अरमान धरे रह गए। अब नई पार्टी ने बाहरी कहते हुए संगठन के पदों से भी दूर खड़े रहने की सजा दे दी है। धोबी… घर… घाट जैसे कुछ हालात इनकी स्थितियों से मैच करते दिखाई नहीं देते क्या अब…!
खान अशु