अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक
इनके लिए किसी ने कोई ‘दिवस’ या ‘वक्त’ तय नहीं किया है। इनकी जीवटता और जज्बे के लिए कोई पुरस्कार भी नहीं है। ये वो लोग हैं, जिन्होंने जिंदगी में जूझना और जीतना सीखा है। ये वो आम बाशिंदे हैं जो ‘रिजल्ट’ के बजाए ‘एफर्ट’’ पर क्लिक करते हैं। रिजल्ट खुद कूरियर की माफिक उन्हें ढूंढते हुए उनके दरवाजे तक आता है। ये वो ‘शिक्षक’ हैं तो खुद सीखते हुए जीवन की बारहखड़ी रचते हैं। वो इबारत लिखते जाते हैं, दुनिया उन्हें दोहराती रहती है।
यकीनन देश भर में सेलीब्रेट हो रहे 59 वे शिक्षक दिवस पर जरा उन ‘अनाम शिक्षकों’ पर एक नजर डालें, जो सही मायनों में वैसे शिक्षक नहीं हैं, जो औपचारिक शिक्षा देते हैं। गुरू कहलाते हैं। ‘शिक्षक दिवस’ पर जिनका माथा आम दिनो के मुकाबले 1 इंच ऊंचा ही रहता है। जिनके आसपास शिष्यों की भीड़ रहती है। कम से कम हर साल 5 सितंबर को समाज उनका सम्मान करता ही है। बहुत पीछे न भी जाएं तो बीते चार माह में कुछ ऐसी मिसालें अंधेरे में रोशनी की तरह चमकीं, जहां इन अनाम शिक्षकों ने बिना शोर-शराबे के चुपचाप नए ‘लाइट हाउस’ खड़े कर दिए। और इनमें भी बेटियां ज्यादा हैं।
बिल्कुल ताजा उदाहरण उन मांझी दंपती का है, जो एक स्कूटर पर 1176 किमी का सफर तय कर झारखंड के गंडेतोला गांव से मप्र के ग्वालियर पहुंचे ताकि पत्नी सोनी मांझी अपने बीएड डिप्लोमा के दूसरे साल की परीक्षा दे सके। इतनी दूरी तय करने में 2 हजार रू. का पेट्रोल खर्च हुआ और इतनी लंबी यात्रा के खर्चे-पानी के लिए सोनी को अपने गहने गिरवी रखने पड़े। सफर का साथी था तो एक रेनकोट। पति धनंजय नहीं चाहते थे कि पत्नी गर्भावस्था में इतनी कठिन यात्रा की रिस्क ले। लेकिन सोनी ने तय कर लिया था कि परीक्षा तो देगी। धनंजय और सोनी मांझी झारखंड के गंडातोला गांव के रहने वाले हैं, इन दोनों ने 28 अगस्त को अपनी सवारी शुरू की और 30 अगस्त को मध्य प्रदेश के ग्वालियर पहुंचे। पूरी यात्रा के दौरान सोनी स्कूटर की पीछे की सीट पर बैठी रही। सोनी सात महीने की गर्भवती है। परीक्षा न देती तो एक साल िबगड़ जाता। सोनी पढ़ाई पूरी कर शिक्षिका बनना चाहती है। धनंजय ने बताया कि स्कूटर पर इतनी लंबी और जोखिम भरी यात्रा पर निकलने का फैसला इसलिए किया क्योंकि कोरोना के कारण कई राज्यों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट बंद है। टैक्सी का पैसा देने की हैसियत नहीं है। फिर क्या करें। सो अनजानी राह पर स्कूटर से ही चल पड़े। ग्वालियर में भी उन्होंने रात एक बगीचे में काटी। धनंजय की मासिक आय महज 9 हजार रू. है। लेकिन मांझी दंपती का हौसला अरबों रू. से भी बड़ा है। उनके इसी जज्बे को देखते हुए मप्र सरकार ने उन्हें हवाई जहाज व अन्य साधनों से वापस भेजने की सराहनीय पहल की। ग्वालियर जिला प्रशासन ने भी इस अनोखे दंपती की आर्थिक मदद की।
कुछ इसी तरह का चेप्टर कोरोना लाॅक डाउन में एक बेटी ज्योति कुमारी के अटूट जज्बे ने भी लिखा। बेहद गरीब परिवार की ज्योति के पिता मोहन पासवान गुरूग्राम में रिक्शा चलाते थे। कोरोना काल में काम- धंधा ठप हो जाने के बाद बिहार में अपने गांव लौटने का फैसला किया। ट्रक वाले से पूछा तो उसने 6 हजार रू. मांगे, इतने पैसे अंटी में होते तो वापस जाते ही क्यों? दूसरे सभी साधन बंद होने से मोहन पासवान ने अपनी साइकिल से जाना तय किया। लेकिन बूढ़े बाप के लिए 1200 किमी का सफर तय किया करना बहुत मुश्किल था। ऐसे में 13 साल की बेटी ज्योति ने ही श्रवण कुमार बनना तय किया और पैडल मारते चल पड़ी गांव की तरफ और दरभंगा जिले में अपने गांव सिरहुल्ली पहुंचकर ही दम लिया। निडरता और जीवटता के पहियों ने उनके कठिन सफर को संभव बना दिया। दुबली-पतली ज्योति में दुर्गा-सी यह ताकत केवल अडिग संकल्पशक्ति के कारण आई।
एक और बेटी ने अपनी जिद के चलते भारतीय रेलवे को भी झुका दिया। बीएचयू में पढ़ने वाली छात्रा अनन्यारांची जाने के लिए नई दिल्ली रांची स्पेशल राजधानी एक्सप्रेस में बैठी थी। लेकिन बीच रास्ते में चल रहे जनांदोलन के कारण ट्रेन रोक दी गई। यात्रियों को आगे बस से ले जाया जा रहा था। लेकिन छात्रा ने बस से जाने से इंकार कर दिया। रेल अधिकारियों ने उसे काफी समझाया। लेकिन अनन्या नहीं मानी। बोली कि उसके पास ट्रेन का टिकट है, वह इसी से जाएगी। मामला रेलवे मुख्यालय तक गया। रेलवे ने भी उसके के जज्बे को सलाम करते हुए उस अकेली बेटी के लिए रूट बदलकर 500 किमी रांची तक पूरी राजधानी एक्सप्रेस चलवाई। साथ में सुरक्षा भी मुहैया कराई। अनन्या का यह न तो बाल हठ था और न ही स्त्री हठ था। था तो अपने सही होने का जायज हठ।
एक और उदाहरण जालंधर का। वहां 15 साल की बेटी कुसुम कुमारी उसका मोबाइल लूटने वाले लुटेरों से भिड़ गई। हाथापाई में घायल होने के बाद भी उसने लुटेरे को पकड़वा कर ही दम लिया। बाद में पुलिस ने दूसरे लुटेरे को भी धर दबोचा। बहादुर कुसुम के पिता मजदूर हैं और किसी तरह अपनी बेटी को पढ़ा रहे हैं। घटना के वक्त कुसुम सड़क किनारे जा रही थी कि पीछे से आए दो लुटेरों ने उसका मोबाइल छीनने की कोशिश की। लेकिन कुसुम का साहस उन पर भारी पड़ा। उसकी तमन्ना पुलिस अफसर बनने की है।
कोरोना अनलाॅक के दौरान एक प्रेरक खबर महाराष्ट्र से आई। जिसमें शराब बेचकर परिवार का पेट पालने वाली एक गरीब मां का बेटा कलेक्टर बन गया। इस देश के लोकमानस में कलेक्टर बनना सत्ताधीश होने का पर्याय है और जो किसी आम आदमी के लिए किसी कुतुब मीनार की तरह है। ये कहानी है कि आदिवासी परिवार के डाॅ. राजेन्द्र भारूड़ की, जिन्होने कंगाली और अशिक्षा के माहौल में शराबियों द्वारा उनके लिए नमकीन आदि लाने के काम से खुश होकर दिए जाने वाले पैसो से किताबें खरीद कर पढ़ाई की। छुटपन में भूख से रोते थे तो मां शराब की दो-चार बूंदे मुंह में टपकाकर चुप करा देती थी। लेकिन राजेन्द्र इस नर्क सी जिंदगी में भी हरदम उम्मीदों के मोती चुनते रहे। 10 वीं 95 फीसदी और 12 वीं 90 फीसदी अंकों से पास की। डाॅक्टर बने और फिर आईएएस बनकर नंदुरबार ज़िले के कलेक्टर बन गए। अपढ़ मां को भरोसा ही नहीं हुआ की उसका बेटा सचमुच कलेक्टर बन गया है।
वैसे हरेक के जीवन में शिक्षक का महत्व अन्यतम है। उसका मान पूरी दुनिया में है। ‘शिक्षक दिवस’ भी विश्व के कई देशों में अलग-अलग तारीखों को मनता है। इसकी शुरूआत सबसे पहले अर्जेंटीना ने 11 सितंबर 1915 को अपने प्रिय नेता, लेखक, एक्टिविस्ट और पूर्व राष्ट्रपति डोमिंगो फाउस्तीनो सारमिंतो की याद में की थी। यूनेस्को ने 5 अक्टूबर को ‘विश्व शिक्षक दिवस’ घोषित किया है। भारत में दूसरे राष्ट्रपति डाॅ: सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाने की परंपरा 1962 में शुरू हुई। लेकिन हमारे यहां ‘गुरू पूर्णिमा’ के रूप में अपने गुरुओं के प्रति आदर प्रकट करने की परंपरा बरसों पुरानी है।
इन सबसे हटकर हर दिन को ‘शिक्षक दिवस’ में बदलने वाले वो लोग हैं, जो अपनी कहानियां खुद लिख रहे हैं। किसी क्लास रूम में पाठ पढ़ाने के बजाए चुपचाप जीवन के अध्याय रच रहे हैं। इन्हे किसी ने ‘शिक्षक दिवस’ पर न तो कोई गुलदस्ता दिया और न ही पैर छूने की रस्म निभाई। लेकिन लाखों लोगों ने उन्हें मन ही मन सलाम किया। अपनी हिम्मत, समर्पण, ध्येयनिष्ठा, जीवटता और सकारात्मक सोच से उन्होंने जो अमिट इबारत लिख दी है, वही एक शिक्षक का मूल भाव और उद्देश्य है। इन अघोषित शिक्षकों को सौ-सौ सलाम..!
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