वाकई मध्यप्रदेश में बड़ा सुरूरअंगेज माहौल है। एक तरफ सरकार राज्य में अवैध शराब से मौतों के मामले में सख्त कार्रवाई की बात कर रही है , दूसरी तरफ गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने प्रदेश में सरकारी की दुकानें बढ़ाने का ऐलान किया है। हालांकि इस पर बवाल मचने के बाद मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा कि शराब दुकानें बढ़ाने के बारे में कोई अंतिम फैसला अभी नही लिया गया है।

लेकिन ज्यादा दुकाने खोलने के पीछे दलील यह है कि जब पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में 1 लाख की आबादी पर 21 दुकाने हैं तो एमपी में सिर्फ 4 कैसे? यानी उसके चेहरे पर हमारे चेहरे से ज्यादा सुरूर क्यों? लिहाजा मध्यप्रदेश को इस मामले में भी ‘आत्मनिर्भर’ होना ही होगा। मजे की बात यह है कि जिस फैसले पर अमली जामा पहनाने की बात हो रही है, राज्य में शराब की दुकाने बढ़ाने का वो फैसला पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार के समय का है।

तब विपक्ष में बैठी ( और अब सत्तासीन) भाजपा ने इसका यह कहकर कड़ा विरोध किया था कि यह मध्यप्रदेश को ‘मद्यप्रदेश’ बनाने की कोशिश है। तब विपक्षी नेता के रूप में शिवराजसिह चौहान ने तत्कालीन सीएम कमलनाथ को चिट्ठी लिखकर कहा था कि हमने तो राज्य में शराब की दुकानें घटाई थीं, लेकिन आप इनकी संख्‍या बढ़ा रहे हैं। शराब बड़े पैमाने पर मिलने से राज्य में अपराध और खासकर महिलाओं पर अत्याचार बढ़ेंगे।

ध्यान रहे कि कमलनाथ सरकार ने मप्र शराब की उप दुकानें खोलने की अधिसूचना पिछले साल 6 जनवरी 2020 को जारी की थी। कमलनाथ सरकार के इस फैसले के खिलाफ तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष (अब मंत्री) गोपाल भार्गव ने धरने पर बैठने की धमकी दी थी। मीडिया ने भी इस निर्णय की खासी आलोचना हुई थी। व्यापक विरोध के चलते कमलनाथ सरकार ने उस नीति को लागू नहीं किया। बाद में कुछ करते, उसके पहले ही उनकी सरकार चली गई।

अब उसी फैसले की ‘पुरानी शराब’ वर्तमान सरकार की ‘नई बोतल’ में फिर सामने है। सरकार ने प्रस्ताव दिया है कि वह राज्य में नई शराब दुकाने खोलने जा रही है ताकि पड़ोसी राज्यों से होने वाली शराब की अवैध सप्लाई पर अंकुश लगाया जा सके। राज्य में जहरीली और अमानक स्तर की शराब की बिक्री पर रोक लगाने के लिए यह जरूरी है। मजे की बात यह है कि महाराष्ट्र की जो ठाकरे सरकार हर मामले में भाजपा और केन्द्र सरकार के निशाने पर रहती है, वही शराब के मामले में मध्यप्रदेश के लिए ‘आदर्श’ दिख रही है।

मंत्रीजी ने महाराष्ट्र के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि वहां प्रति 1 लाख की आबादी पर 21 शराब की दुकानें हैं तो हमारे यहां महज 4 ही है। कुछ इसी तरह का तर्क साल भर पहले तत्कालीन मुख्‍यमंत्री कमलनाथ ने भी दिया था। शिवराजसिंह चौहान को‍ लिखी अपनी जवाबी चिट्ठी में उन्होंने कहा था कि (भाजपा शासित) उत्तर प्रदेश की तुलना में मध्यप्रदेश में शराब दुकानों की संख्या बहुत कम है। यूपी में यह अनुपात जहां प्रति 1 लाख की आबादी पर 12 शराब दुकाने हैं तो मप्र में मात्र 5 शराब दुकाने ही हैं। हम बहुत पीछे हैं। अब यही तुलना जब महाराष्ट्र से की गई तो एमपी का आंकड़ा 1 नंबर और नीचे खिसक गया।

गौरतलब यह है कि उस वक्त कमलनाथ सरकार ने भी यही कहा था कि सरकारी खजाना भरने के लिए शराब की सुगम उपलब्धता जरूरी है। उस सरकार ने दो प्रस्ताव दिए थे। पहला, राज्य में शराब की ज्यादा उप दुकानें खुलेंगी, दूसरा शराब की आॅन लाइन बिक्री होगी। इसमें भी विरोधाभास यह था कि 2018 के विधानसभा चुनाव में जारी अपने वचन पत्र में कांग्रेस ने मध्यप्रदेश को ‘शराब मुक्त’ बनाने का वचन दिया था, लेकिन हकीकत में यह ‘वचन’ भी शराबी की माफिक निकला।

इस बार भी दस्तूर और मौका कुछ वैसा ही है। राज्य सरकार का कहना है कि सरकारी खजाना भरना है तो लोगों को शराब आसानी से मुहैया करानी पड़ेगी। मंत्रीजी ने महाराष्ट्र का हवाला शायद इसलिए भी दिया, क्योंकि उसे शराब बिक्री से खासी कमाई होती है। साल 2019-2020 में महाराष्ट्र सरकार ने शराब आदि बेचकर 25 हजार करोड़ रू. कमाए थे। जबकि इसी अवधि में मध्यप्रदेश में शराब की दुकानों से 8521 करोड़ की ही कमाई हुई।

ये आमदनी इस साल बढ़कर 10 हजार 318 करोड़ तक पहुंची बताई जाती है। यह सही है कि मध्यप्रदेश की माली हालत ठीक नहीं है। खर्चे चलाने के लिए राज्य सरकार कर्ज पर कर्ज लिए जा रही है। उसकी भी सीमा है। वैसे भी जीएसटी आने के बाद राज्यों की आय के अधिकांश स्रोत छिन गए हैं। ऐसे में शराब और पेट्रोल-डीजल ही बचे हैं, जिनके इंजेक्शन सरकार की पतली माली सेहत में जान डाल सकते हैं।

एक दृष्टि से मप्र सरकार की यह घोषणा ठीक भी है,क्योंकि तमाम नैतिकता की बातों, सदाचार के सबक और कानूनी शिकंजों के बाद भी लोग हैं कि शराब पीते हैं और पिए जा रहे हैं। खुशी में भी और गम में भी। शौक में भी, मजबूरी में भी। अमीरी में भी और गरीबी में भी। तिस पर इसे शराब की बदनसीबी कहिए कि इंसान का गम गलत करने के साथ-साथ वो सरकारों की जेबें भरने में भी कोताही नहीं करती, फिर भी उसे ‘बुरा’ कहकर बदनाम किया जाता है।

कोरोना लाॅक डाउन में भी जब देश में सब बंद था, सरकार को शराबखाने न सिर्फ चालू करने पड़े, बल्कि शराबियों ने भी इसे ‘जनहित’ का फैसला मानकर अपनी कूवत के मुताबिक उसे भरपूर प्रतिसाद दिया। काम धंधे ठप होने के बाद भी दारू के लिए जेबों से पैसे बराबर निकलते रहे। हर तरफ बंदी, तंगी और दहशत के माहौल में भी हमने तब शराब दुकानों पर कदरदानों की लंबी कतारे देखीं, जिनके चेहरों पर अदद एक बोतल हासिल करने के बाद ‘जनम सफल’ हो जाने का संतुष्टि भाव था।

बेशक, नैतिक और सामाजिक दृष्टि से शराबखोरी अपराध है। शराब कई लोगों की जिंदगी और परिवारों का सुकून छीन लेती है। यह सब जानते हुए भी अगर सरकारें उसी ‘अंगूर की बेटी’ का आश्रय लेने पर मजबूर हैं तो कहना पड़ेगा कि कुछ बात तो है कि शराब की पहुंच घटने के बजाए बढ़ती ही जाती है। उन राज्यों में, जहां कागज पर शराबबंदी लागू है, वहां भी शौकीनों के लिए इसका कोई टोटा नहीं है। जो ब्रांड चाहो, जहां चाहो, मिल जाता है।

बस,थो़डी अंटी ढीली करनी पड़ती है। पूर्ण शराबबंदी वाले बिहार के बारे में एक खबर छपी थी कि शराबबंदी के दौर में भी वहां लोग महाराष्ट्र से ज्यादा शराब पी गए। बस, नुकसान हुआ तो नीतीश कुमार के सरकारी खजाने को। ऐसा लगता है कि अब सरकारों को ऐतराज शराब पर नहीं, अवैध शराब पर है। वो भी इसलिए नहीं कि उसे पीकर मप्र के मुरैना में 24 जानें चली गईं, बल्कि इसलिए क्योंकि इस जहरीली और घटिया शराब का गल्ला सरकारी खजाने में नहीं आता। यानी शराब बिकती भी है और (सरकार को) फलती भी नहीं।

ऊपर से बदनामी अलग। सो, लगता है कि सरकारें शराब के मामले में अब ‘यथार्थवादी’ रवैया अपना रही हैं। पीते जाअो मगर खजाना भरते जाओं । चूंकि पैसे के बिना कुछ हो नहीं सकता और फिलहाल दारू के अलावा कहीं और से तत्काल पैसा आ नहीं सकता। इस मायने में शराब पर होने वाली सियासत शायद सबसे खोखली और नकली है। क्योंकि विपक्ष में रहकर जो बोतल ‘हैवान’ बताई जाती है, वही सत्ता में आते ही ‘भगवान’लगने लगती है।

राजनीतिक दृष्टिकोण में 180 डिग्री का यह बदलाव कैसे और क्यों आ जाता है, इसे समझने के लिए पीएचडी होने की जरूरत नहीं है। यूं शराबखोरी के दुष्परिणामों का दोष अमूमन शराबियों के सिर मढ़ा जाता है, लेकिन अब तो सरकारें ही साबित कर रही हैं कि ‘शराब चीज ही ऐसी है, न छोड़ी जाए…।‘ शराब के मामले में सत्ता का यथार्थ कभी खत्म न होने वाले नशे की माफिक होता है।

विपक्ष में रहते हुए जो ‘सवाल होते’ हैं, वो हुकूमत में आते ही ‘जवाब’में तब्दील हो जाते हैं। पाप, पुण्य में बदल जाता है। हिचकियां, सिक्कों की खनक की शक्ल ले लेती हैं। सियासत की इसी मजबूरी और तासीर के मददेनजर शायर हफीज जौनपुरी ने कहा था- बुरा ही क्या है बरतना पुरानी रस्मो का, कभी शराब का पीना भी क्या हलाल न था।

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल


‘सुबह सवेरे’

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