कहने को तो हम खुद को अभी तक के मानव इतिहास का सबसे सभ्य और विकसित समाज मानते हैं, लेकिन दुनिया के एक बड़े हिस्से में हमें अक्सर मानवता को शर्मसार कर देने वाली ऐसी छवियां देखने को मिल जाती हैं, जिसमें बच्चे अपने मासूम हाथों में बन्दूक, मशीन गन और बम जैसे विनाशक हथियारों को उठाए हुए बड़ों की लड़ाइयों को अंजाम दे रहे होते हैं. विश्व के कई देशों में चल रहे आंतरिक उग्रवाद, हिंसक आंदोलन और आतंकवादी गतिविधियों में बड़े पैमाने पर बच्चों का इस्तेमाल किया जा रहा है.
हैरान करने वाली बात यह है कि इनमें से ज़्यादातर बच्चों को जबरदस्ती इस लड़ाई में झोंका जाता है. बड़ों द्वारा रचे गए इस खूनी खेल में बच्चों को एक मोहरे के तौर पर शामिल किया जाता है, जिससे इस तरह के संगठन अपने कारनामों को आसानी से अंजाम दे सकें. दूसरा मकसद शायद आने वाली पीढ़ी को अपने लक्ष्य के लिए तैयार करना भी होता है. एक अनुमान के मुताबिक, आज पूरी दुनिया में लगभग ढाई लाख बच्चों का इस्तेमाल विभिन्न सशस्त्र संघर्षों में हो रहा है.
इनमें से भी करीब एक तिहाई संख्या लड़कियों की है. दुनिया के जिन राष्ट्रों में यह काम प्रमुखता से हो रहा है, उनमें र्एंगानिस्तान, सीरिया, अंगोला, लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो, इराक, इज़रायल, फिलीस्तीन, सोमालिया, सूडान, रवांडा, इंडोनेशिया, म्यामांर, भारत, नेपाल, श्रीलंका, लाइबेरिया, थाईलैंड और फिलीपिंस जैसे देश शामिल हैं.
सशस्त्र संघर्षों में इस्तेमाल किए जा रहे बच्चों का जीवन बहुत ही खतरनाक और कठिन परिस्थितियों में बीतता है. यहां वे लगातार हिंसा के साए में रहते हैं और हर समय उनके गोली या बम के शिकार होने का खतरा बना रहता है. उनका जीवन बहुत कम होता है और वे छोटी उम्र में ही कई तरह की शारीरिक व मानसिक बीमारियों की भेंट चढ़ जाते हैं. उनका लगातार यौन शोषण होता है और ऐसे में कई बच्चे एड्स का शिकार भी हो जाते हैं. यह सब कुछ संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा बच्चों को दिए गए अधिकार के हनन की पराकाष्ठा है. ऐसा नहीं है कि दुनिया ने इस पर ध्यान न दिया हो.
12 फरवरी, 2002 को संयुक्त राष्ट्र बाल-अधिकार कन्वेंशन में एक अतिरिक्त प्रोटोकॉल जोड़ा गया था, जो सशस्त्र संघर्षों में नाबालिग बच्चों के सैनिकों के तौर पर उपयोग को प्रतिबंधित करता है. इसके बावजूद अभी भी नाबालिग बच्चों की सशस्त्र संघर्षों में भर्ती जारी है. बच्चों के सैनिक उपयोग की निंदा और इसके अंत के लिए हर साल 12 फरवरी को पूरी दुनिया में रेड हैंड डे नाम से एक विशेष दिन मनाया जाता है. इस आयोजन का मकसद दुनियाभर में कहीं भी हो रहे सशस्त्र संघर्ष में बच्चों के शामिल होने का विरोध जताना है. यह एक ऐसा चलन है, जो बच्चों के साथ सबसे क्रूरतम व्यवहार करता है.
इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया के कई देश अपनी राष्ट्रीय सेनाओं में भी बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच ने 2010 में रिपोर्ट जारी की थी, जिसके अनुसार म्यांमार की सरकारी सेना और सरकार विरोधी संगठनों के हथियारबंद दस्तों में 77 हज़ार बाल सैनिक काम कर रहे थे. श्रीलंका के तमिल टाइगर्स पर भी इस तरह के आरोप थे. तालिबान पर भी यह आरोप लगते रहे हैं कि वह अपने कथित जिहाद में बच्चों का इस्तेमाल करता रहा है और इसकी शुरुआत सोवियत-र्एंगान लड़ाई से हो गई थी.
र्एंगान सेना के पूर्व कमांडर जनरल अतिकुल्लाह मरखेल ने कुछ वर्षों पहले बताया था कि सोवियत संघ के साथ युद्ध में किशोरों और युवाओं को जबरदस्ती सेना में भर्ती कर उन्हें युद्ध के लिए धकेला गया था. तब उन्हें जिहाद के नाम पर तैयार किया जाता था और यह कारनामा अपने आप को मानव अधिकारों का सबसे बड़ा दारोगा घोषित करने वाले मुल्क संयुक्त राज्य अमरीका के संरक्षण में अंजाम दिया गया था. वर्तमान में बोको हराम और आईएस अर्थात इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादी संगठन बच्चों का अपहरण करने, उनकी हत्या करने, स्कूलों और अस्पतालों पर हमले करने के साथ-साथ उनके आतंकवादी गतिविधियों में उपयोग को लेकर कुख्यात हैं. पिछले कुछ दशकों से आत्मघाती हमलों में बच्चों और युवाओं की संलिप्तता बढ़ी है.
गरीबी की मजबूरी और जन्नत के लालच में बच्चे और युवा जिहादी संगठनों के चंगुल में फस कर आत्मघाती हमलावर बनने के लिए तैयार हो जाते हैं. भारत के सन्दर्भ में बात करें तो संयुक्त राष्ट्र भारत में माओवादियों द्वारा बच्चों की भर्ती करने और मानव ढाल के तौर पर उनका इस्तेमाल करने को लेकर चिंता जाहिर कर चुका है. भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों में भी सशस्त्र समूहों द्वारा बच्चों के इस्तेमाल की खबरें आती रही हैं. पिछले दिनों हिंदू स्वाभिमान संगठन द्वारा दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में इस्लामिक स्टेट से निपटने के नाम पर युवाओं और बच्चों की धर्म सेना गठित कर उन्हें पारंपरिक हथियारों का प्रशिक्षण देने की खबरें सामने आई थीं.
सशस्त्र संघर्षों में लगाए गए बच्चों पर दोतर्फा मार पड़ती है. हर देश का कानून बच्चों की हथियारबंद संघर्षों में भर्ती और उनके इस्तेमाल को एक अपराध तो मानता ही है, साथ ही साथ इन बच्चों को भी अपराधी की नज़र से देखता है. ऐसे में कई बार यह भी देखने को मिला है कि सरकारें सुरक्षा क़ानून के तहत गिरफ्तार बच्चों को वयस्कों के साथ हिरासत में रखती हैं और उनके ख़िला़फ किशोर न्याय तंत्र के तहत मामला नहीं चलाया जाता है, जो कि एक तरह से उनके अधिकारों का उल्लंघन है.
यूनिसेफ़ के अनुसार, 2015 में एक करोड़ साठ लाख से अधिक बच्चे युद्ध क्षेत्रों में पैदा हुए हैं और दुनियाभर में पैदा होने वाले हर आठ बच्चों में से एक बच्चा ऐसे क्षेत्रों में पैदा हो रहा है, जहां हालात सामान्य नहीं हैं. इन युद्ध क्षेत्र में पैदा हो रहे बच्चों की दयनीय स्थिति का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. युद्ध और हथियारबंद संघर्ष वाले स्थानों पर बच्चे सबसे ज्यादा विपरीत परस्थितियों में रहने को मजबूर होते हैं. उनका भविष्य अनिश्चित होता है. ऐसे इलाकों में सशस्त्र गुट बच्चों को लड़ाई के तरीके सिखाकर उन्हें अपने खूनी संघर्ष में शामिल करते हैं.
अगर हम बच्चों की सुरक्षा को लेकर गंभीर हैं तो हर साल बच्चों को लड़ाकों के तौर पर इस्तेमाल करने का विरोध करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय दिवस मनाने के
साथ-साथ दुनिया के सभी मुल्कों को एकजुट होकर बच्चों को लड़ाई में झोंककर मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के इस चलन को रोकने के लिए ठोस कदम भी उठाने होंगें. बच्चों को इस क्रूर दुनिया से बाहर निकालने के लिए जवाबदेही तय करना पहला कदम हो सकता है.