8 नवंबर को विमुद्रीकरण की घोषणा के बाद 14 लाख करोड़ रुपए मूल्य के 500 और 1000 के पुराने नोट अमान्य हो गए. इन पैसों को बैंक में जमा करना है, ताकि ग्राहकों को नए नोट मिल सकें. जाहिर है, ये एक बहुत बड़ी रकम है, इतना नोट छापने में काफी समय लगेगा.
यही वजह है कि बैंक और एटीएम से निकासी की सीमा तय की गई है, ताकि सभी को जरूरत भर का पैसा मिल सके. आरबीआई के मुताबिक 24 घंटे नए नोट की छपाई चल रही है.
खैर, यह एक सरकारी प्रक्रिया है, इसमें जितना वक्त लगना है, लगेगा. लेकिन, हम यहां अपने पाठकों और सरकार का ध्यान एक महत्वपूर्ण मुद्दे की तरफ आकर्षित करना चाहते हैं.
हम यहां उन्हीं बातों को दोहराना चाहते हैं, जिसे चौथी दुनिया साल 2010 से लिखता आ रहा है. एक-एक कर हम बिन्दुवार इन मुद्दों पर फिर से चर्चा करेंगे, जिन पर हमने 2010 से 2012 के बीच चर्चा की थी.
सबसे पहले हम ये जानते हैं कि भारत में छपने वाले नोटों के लिए कागज और इंक विदेश से आते हैं. इस पर कुल छपाई का 40 फीसदी पैसा खर्च होता है. संभवत:, जो कंपनियां भारत को ये कागज और इंक देती हैं, वही कंपनियां कागज और इंक पाकिस्तान को भी देती हैं. बहरहाल, आज की बात करें तो अभी तक ये स्थिति साफ नहीं है कि क्या हम विदेशों से भी नोट छपवाने की सोच रहे हैं या हम अपना सारा नोट खुद ही छापेंगे.
(ध्यान रखिए, अगर हम खुद भी छापेंगे तो भी कागज और इंक विदेश से ही आना है). यदि किसी सूरत में हमें विदेशों से नोट छपवाना पड़ा तो हमें क्या सावधानी रखनी होगी. हम इस पर भी चर्चा करेंगे.
विदेश में नोट छपाई के खतरे
साल 2010 में संसद की एक समिति ने भारतीय नोटों की छपाई के संबंध में जो बातें कहीं, वे ख़ासी चिंताजनक थीं. वी किशोर चंद्र एस देव की अध्यक्षता में लोकसभा की सरकारी उपक्रम से संबंधित समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि 1997-98 के दौरान भारत सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये मूल्य के बराबर भारतीय नोटों की छपाई विदेशों में कराई. इससे पहले और इसके बाद ऐसा कभी नहीं हुआ.
एक लाख करोड़ रुपये के उक्त नोट अमेरिका, जर्मनी और इंग्लैंड में छपवाए गए थे. समिति ने अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ कहा कि भारतीय नोटों की विदेशों में छपाई का मामला एक तरह से भारत की आर्थिक संप्रभुता को ख़तरे में डालने के बराबर था. चिदंबरम के वित्त मंत्री रहते ही एक लाख करोड़ रुपये मूल्य के बराबर के सौ और पांच सौ रुपये के नोट ब्रिटेन, अमेरिका और जर्मनी की कंपनियों में छपवाए गए थे.
वी किशोर चंद्र देव की अध्यक्षता वाली समिति ने जब रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) से विदेशों में नोट छपवाने की वजह जाननी चाही, तो इस पर आरबीआई का जवाब था कि उस वक्त उसकी विभिन्न शाखाओं को जितने नोटों की आवश्यकता थी, भारतीय टकसाल उनकी आपूर्ति कर पाने में सक्षम नहीं थी. इसके अलावा कटे-फटे और पुराने नोटों की संख्या भी ज़्यादा हो गई थी और उसे जल्द से जल्द नए नोट चाहिए थे.
आंकड़ों के मुताबिक, 1996-97 के दौरान आरबीआई को 3 लाख 35 हज़ार 900 करोड़ रुपये मूल्य के बराबर नोटों की ज़रूरत थी. जबकि उस वक्त कुल उत्पादन (छपाई) स़िर्फ 2 लाख 16 हज़ार 575 करोड़ रुपये मूल्य के बराबर ही था. इस तरह आरबीआई को एक लाख 20 हज़ार करोड़ रुपये मूल्य के बराबर नोटों की ज़रूरत थी.
यही कारण बताकर आरबीआई और तत्कालीन सरकार के वित्त मंत्री ने विदेशी एजेंसियों से भारतीय नोट छपवाने का निर्णय लिया था. आरबीआई के लिखित जवाब के मुताबिक, नोट छपाई में अपनाए गए विशेष सुरक्षा मानकों के रख-रखाव, छपाई से पहले और अनुबंध ख़त्म होने के बाद की ज़िम्मेदारी छपाई करने वाली कंपनी की थी. इसके अलावा नोट छापने के लिए ज़रूरी प्लेट्स के निर्माण की ज़िम्मेदारी भी कंपनी की थी.
इतना ही नहीं, फोटो प्रिंट, डाई एवं नंबरिंग बॉक्स इत्यादि की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी उक्त कंपनियों की ही थी. ज़ाहिर है, जिस कंपनी के पास नोट छपाई के बारे में इतनी जानकारी है, वह यदि चाहे तो कभी भी इसका दुरुपयोग कर सकती है.
एक ही नंबर के कई लाख नोट छाप सकती है. प्लेट्स या डाई का इस्तेमाल बाद में कर सकती है. ऐसे में अगर संसदीय समिति ने यह चिंता जाहिर की कि यह निर्णय देश की आर्थिक संप्रभुता को ख़तरे में डालने के बराबर था तो इसे आधारहीन नहीं माना जा सकता.
नक़ली नोट, रिजर्व बैंक और सरकार
अगस्त 2010 में सीबीआई की टीम ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के वॉल्ट में छापा मारा. सीबीआई अधिकारियों का दिमाग़ तब सन्न रह गया, जब उन्हें पता चला कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के ख़ज़ाने में नक़ली नोट हैं. रिज़र्व बैंक से मिले नक़ली नोट वही थे, जिसे पाकिस्तान की खु़फिया एजेंसी नेपाल के रास्ते भारत भेज रही है.
सवाल यह है कि भारत के रिजर्व बैंक में नक़ली नोट कहां से आए? क्या आईएसआई की पहुंच रिज़र्व बैंक की तिजोरी तक है या फिर कोई बहुत ही भयंकर साज़िश है, जो हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था को खोखला कर चुकी है. अब सवाल यह है कि सीबीआई को मुंबई के रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया में छापा मारने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
रिजर्व बैंक से पहले नेपाल बॉर्डर से सटे बिहार और उत्तर प्रदेश के 70-80 बैंकों में छापा पड़ा. इन बैंकों में छापा इसलिए पड़ा, क्योंकि जांच एजेंसियों को ख़बर मिली कि पाकिस्तान की खु़फया एजेंसी आईएसआई नेपाल के रास्ते भारत में नक़ली नोट भेज रही है. बॉर्डर के इलाक़े के बैंकों में नक़ली नोटों का लेन-देन हो रहा है.
आईएसआई के रैकेट के ज़रिए 500 रुपये के नोट 250 रुपये में बेचे जा रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि रिज़र्व बैंक में मिले नक़ली नोट वही नोट थे, जिन्हें आईएसआई नेपाल के ज़रिए भारत भेजती है.
डे ला रू और नक़ली नोट
सवाल उठता है कि ये नक़ली नोट छापता कौन है. हमारी तहक़ीक़ात डे ला रू नामक कंपनी तक पहुंची. जो जानकारी मिली, उससे यह साबित होता है कि नक़ली नोटों के कारोबार की जड़ में यही कंपनी है. डे ला रू कंपनी का सबसे बड़ा करार रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ था, जिसे यह स्पेशल वाटरमार्क वाला बैंक नोट पेपर सप्लाई करती रही है. पिछले कुछ समय से इस कंपनी में भूचाल आया हुआ है. जब रिजर्व बैंक में छापा पड़ा तो डे ला रू के शेयर लुढ़क गए.
यूरोप में ख़राब करेंसी नोटों की सप्लाई का मामला छा गया. इस कंपनी ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को कुछ ऐसे नोट भी दे दिए, जो असली नहीं थे. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की टीम इंग्लैंड गई, उसने डे ला रू कंपनी के अधिकारियों से बातचीत की. नतीजा यह हुआ कि कंपनी ने हंपशायर की अपनी यूनिट में उत्पादन और आगे की शिपमेंट बंद कर दी.
डे ला रू कंपनी के अधिकारियों ने भरोसा दिलाने की बहुत कोशिश की, लेकिन रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने यह कहा कि कंपनी से जुड़ी कई गंभीर चिंताएं हैं. अंग्रेजी में कहें तो सीरियस कंसर्नस. टीम वापस भारत आ गई. डे ला रू कंपनी की 25 फीसदी कमाई भारत से होती है. इस ख़बर के आते ही डे ला रू कंपनी के शेयर धराशायी हो गए. यूरोप में हंगामा मच गया, लेकिन हिंदुस्तान में न वित्त मंत्री ने कुछ कहा, न ही रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने कोई बयान दिया.
रिज़र्व बैंक के प्रतिनिधियों ने जो चिंताएं जताईं, वे कैसी हैं. इन चिंताओं की गंभीरता कितनी है. रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ डील बचाने के लिए कंपनी ने माना कि भारत के रिज़र्व बैंक को दिए जा रहे करेंसी पेपर के उत्पादन में जो ग़लतियां हुईं, वे गंभीर हैं. बाद में कंपनी के चीफ एक्जीक्यूटिव जेम्स हसी को 13 अगस्त, 2010 को इस्ती़फा देना पड़ा.
5 जनवरी, 2011 को यह ख़बर आई कि भारत सरकार ने डे ला रू के साथ अपने संबंध ख़त्म कर लिए. पता चला कि 16,000 टन करेंसी पेपर के लिए रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने डे ला रू की चार प्रतियोगी कंपनियों को ठेका दे दिया. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने डे ला रू को इस टेंडर में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित भी नहीं किया.
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और भारत सरकार ने इतना बड़ा फै़सला क्यों लिया? इस फैसले के पीछे क्या तर्क हैं? सरकार ने संसद को भरोसे में क्यों नहीं लिया? 28 जनवरी को डे ला रू कंपनी के टिम कोबोल्ड ने यह भी कहा कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ उनकी बातचीत चल रही है, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि डे ला रू का अब आगे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ कोई समझौता होगा या नहीं.
इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी डे ला रू से कौन बात कर रहा है और क्यों कर रहा है? तहक़ीक़ात के दौरान एक सनसनीखेज सच सामने आया. डे ला रू कैश सिस्टम इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को 2005 में सरकार ने दफ्तर खोलने की अनुमति दी. यह कंपनी करेंसी पेपर के अलावा पासपोर्ट, हाई सिक्योरिटी पेपर, सिक्योरिटी प्रिंट,
हॉलोग्राम और कैश
प्रोसेसिंग सोल्यूशन में डील करती है. यह भारत में असली और नक़ली नोटों की पहचान करने वाली मशीन भी बेचती है. मतलब यह है कि यही कंपनी नक़ली नोट भारत भेजती है और यही कंपनी नक़ली नोटों की जांच करने वाली मशीन भी लगाती है.
शायद यही वजह है कि देश में नक़ली नोट भी मशीन में असली नज़र आते हैं. इस मशीन के सॉफ्टवेयर की अभी तक जांच नहीं की गई है, किसके इशारे पर और क्यों? जांच एजेंसियों को अविलंब ऐसी मशीनों को जब्त करना चाहिए, जो नक़ली नोटों को असली बताती है. सरकार को इस बात की जांच करनी चाहिए कि डे ला रू कंपनी के रिश्ते किन-किन आर्थिक संस्थानों से हैं. नोटों की जांच करने वाली मशीन की सप्लाई कहां-कहां हुई है?
डे ला रू का नेपाल और आईएसआई कनेक्शन
कंधार हाईजैक की कहानी बहुत पुरानी है, लेकिन इस अध्याय का एक ऐसा पहलू है, जो अब तक दुनिया की नज़र से छुपा है. नेपाल से अपहृत भारतीय विमान में एक ऐसा शख्स बैठा था, जिसके बारे में सुनकर आप दंग रह जाएंगे. इस आदमी को दुनिया भर में करेंसी किंग के नाम से जाना जाता है. इसका असली नाम है रोबेर्टो ग्योरी. रोबेर्टो खुद दो देशों की नागरिकता रखता है, जिसमें पहला है इटली और दूसरा स्विट्जरलैंड.
रोबेर्टो को करेंसी किंग इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह डे ला रू नाम की कंपनी का मालिक है. दुनिया की करेंसी छापने का 90 फी़सदी बिजनेस इस कंपनी के पास है. यह कंपनी दुनिया के कई देशों कें नोट छापती है. यही कंपनी पाकिस्तान की आईएसआई के लिए भी काम करती है. जैसे ही यह जहाज हाईजैक हुआ, स्विट्जरलैंड ने एक विशिष्ट दल को हाईजैकर्स से बातचीत करने कंधार भेजा.
साथ ही उसने भारत सरकार पर यह दबाव बनाया कि वह किसी भी क़ीमत पर करेंसी किंग रोबेर्टो ग्योरी और उनके मित्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करे. ग्योरी बिजनेस क्लास में स़फर कर रहा था. आतंकियों ने उसे प्लेन के सबसे पीछे वाली सीट पर बैठा दिया.
लोग परेशान हो रहे थे, लेकिन ग्योरी आराम से अपने लैपटॉप पर काम कर रहा था. उसके पास सैटेलाइट, पेन ड्राइव और फोन थे. यह आदमी कंधार के हाईजैक जहाज में क्या कर रहा था, यह बात किसी की समझ में नहीं आई है. नेपाल में ऐसी क्या बात है, जिससे स्विट्जरलैंड के सबसे अमीर व्यक्ति और दुनिया भर के नोटों को छापने वाली कंपनी के मालिक को वहां आना पड़ा.