हमारी विदेश नीति आजकल बड़ी दुविधा में फंस गई है। एक तरफ चीन ने हमारे लिए कई फिसलपट्टियां लगा दी हैं और दूसरी तरफ हमारे दोनों दोस्त- इस्राइली और फलस्तीनी हमें कोस रहे हैं। हमारे विदेश मंत्रालय की घिग्घी बंधी हुई है, जबकि हमारा विदेश मंत्री एक ऐसा आदमी है, जो विदेश मंत्री बनने के पहले कई देशों में हमारा राजदूत और विदेश सचिव भी रह चुका है। जहां तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सवाल है, उनको ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि हमारे ज्यादातर प्रधानमंत्री विदेशी मामलों के जानकर नहीं होते। वे अफसरों के लिखे भाषण पढ़ देते हैं और विदेशी नेताओं के साथ फोटो खिंचाने का मौका हाथ से निकलने नहीं देते। खैर, अभी तो हमारा ध्यान अफगानिस्तान पर होनेवाली उस त्रिराष्ट्रीय वार्ता ने खींचा है, जो चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच हो रही है। उनके बीच यह चौथी वार्ता है।
कितने आश्चर्य की बात है कि अफगानिस्तान की सबसे ज्यादा आर्थिक मदद करनेवाला देश, भारत की इस वार्ता में कोई भूमिका नहीं है। और मैं यह भी देख रहा हूं कि चीन हमें चपत लगाने का कोई मौका नहीं चूक रहा है। चपत भी प्यारी-सी ! पहले उसने ब्रिक्स की बैठक में भारत की तारीफ पेली और अब उसने अफगान-संकट के हल में भी भारत की भूमिका को रेखांकित किया है। चीनी विदेश मंत्री ने कहा है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी वापसी के बाद भारत और चीन को मिलकर काम करना चाहिए। उसे पता है कि भारत आजकल अमेरिका का अंधभक्त बना हुआ है। उसकी अपनी कोई पहल नहीं है। भाजपा के पास एक भी नेता ऐसा नहीं है, जो वैदेशिक मामलों को ठीक से समझता हो।
यदि मोदी सरकार को वैदेशिक मामलों की थोड़ी-बहुत भी समझ होती तो अफगानिस्तान की डोर को वह अपने हाथ से फिसलने नहीं देती। वह अफगान-सवाल पर पाकिस्तान को ऐसा पटाती कि कश्मीर का मसला भी हल हो जाता। दक्षिण एशिया एक बड़े परिवार के रुप में ढलने लगता। खैर, आज फलिस्तीनी विदेश मंत्री को लिखी चिट्ठी भी देखी। संयुक्तराष्ट्र संघ में और मानव अधिकार आयोग में भारतीय प्रतिनिधियों के जो परस्पर विरोधी रवैए रहे हैं, उनके कारण इस्राइल और फलस्तीन, दोनों ने भारत के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की है। जबकि मैं मानता हूं कि अफगानिस्तान और फलस्तीन के मामलों में भारत की भूमिका दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा सार्थक हो सकती थी।