इस बार कोरोना के कारण अगर नवरात्रि का रंग फीका है तो देवी भक्तों के फलाहार में कश्मीरी सेब फल की हिस्सेदारी भी बहुत कम है। बाजार में सेब आ तो रहा है, लेकिन वह अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और भारत में हिमाचल और जम्मू से ज्यादा आ रहा है। जबकि देश-दुनिया में सेब की पहचान कश्मीर से कश्मीर की पहचान सुर्ख रसीले सेबों से है। हर साल के मुताबिक इस मौसम में कश्मीरी सेब बागान मालिको के चेहरे खिले होने चाहिए थे, लेकिन इस बार सेब की फसल बड़े पैमाने पर बर्बाद हो जाने के कारण मुरझाए हुए हैं। इसके पीछे मुख्य कारण सेब उत्पादकों को घटिया और कीटनाशकों की सप्लाई और लाॅक डाउन भी है। हालत यह है कि इस बार कश्मीर में सेब की 70 फीसदी से ज्यादा फसल घटिया कीट और फफूंदनाशकों के कारण खराब हो चुकी है। इससे पहले ही मुश्किलों का सामना कर रहे कश्मीर की अर्थ व्यवस्था को तगड़ा झटका लगा है। क्योंकि यहां हर साल 8 से 9 हजार करोड़ का सेब का कारोबार होता है। इसकी खेती पर करीब 30 लाख लोग निर्भर हैं। वरना ये मौसम सेब की सुर्खी का हुआ करता था। अपने देश में कश्मीर को अगर ‘धरती का स्वर्ग’ कहा जाता है तो उसके पीछे वहां की सुंदर वादियां ( उसका आतंकी पक्ष फिलहाल अलग रखें) तो हैं ही साथ में वहां होने वाले सुंदर, स्वादिष्ट सेबफल की पैदावार भी है। बागानों में पेड़ों पर लटकते लाल-लाल सेबों को देखकर किसी का भी मन ललचा सकता है। क्योंकि सेब एक ऐसा अनूठा फल है, जो दिखने में सुंदर, खाने में स्वादिष्ट और तासीर में गुणकारी है। लिहाजा विटामिन के लिए बीमार से लेकर सेहतमंद के लिए भी सेब मानों एक जरूरी फल है। और कश्मीर की नैसर्गिक सुंदरता को मानो सेब जैसा एकदम सूट करता है।
कश्मीर में सेब कहां से आया, कौन लाया इसके बारे में कई जानकारियां हैं। कहते हैं कि सेब मूलत: कजाकिस्तान का फल है। वहां से यह मध्य एशिया के दूसरे देशों, कश्मीर और यूरोप- अमेरिका पहुंचा। इतना तय है कि कश्मीर में सेब सदियों से उगाया जा रहा है। क्योंकि वहां की भौगोलिक परिस्थितियां इसके बिल्कुल योग्य हैं। सातवीं सदी में भारत आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इसका उल्लेख किया है तो कल्हण की राजतरंगणी में भी कश्मीर में सेब पैदा होने का जिक्र है। संस्कृत में सेब को सेवफलम् कहा जाता है। हालांकि वर्तमान में प्रचलित सेब शब्द फारसी से चला है। कहा जाता है कि कश्मीर में 14 वीं सदी में शाह मीर शासकों के समय वहां सेब की खेती को बहुत बढ़ावा दिया गया। आज देश में सबसे अच्छी क्वालिटी का सेब कश्मीर में ही होता है, जो हमारे कुल सेब उत्पादन का पचहत्तर फीसदी है। यहां होने वाला ज्यादातर सेब निर्यात होता है। हर साल लगभग 22 लाख टन सेब बाहर भेजा जाता है। लेकिन इस साल बमुश्किल 5.79 लाख टन ही निर्यात किया जा सका है। क्योंकि खराब क्वालिटी का कोई खरीदार मार्केट में नहीं है।
जो फसल हुई है, वह ‘बी’ और ‘सी’ ग्रेड की है। सेब उत्पादकों ने राज्य सरकार से मांग की है कि वह उन्हें राहत पहुंचाए और सेब की फसल खरीदे। वैसे पिछले साल भी सेब कारोबार को दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। क्योंकि कश्मीर से धारा 370 हटने के बाद कश्मीर बंद था। बाद में नाफेड ने सेब उत्पादकों की मदद के उद्देश्य से सेब खरीदारी शुरू की। लेकिन उसे महज एक फीसदी फसल ही सेब किसानो ने बेची। इसके पीछे मुख्य कारण यह था कि ज्यादातर कश्मीरी सेब व्यापारियों ने विरोध स्वरूप नाफेड के बजाए दिल्ली के थोक व्यापारियों को अपना माल ज्यादा बेचा। कहा गया कि ये सौदे पहले से हो चुके थे। लेकिन इस बार सेब की वो सुर्खी गायब है। बताया जाता है कि व्यापारियों ने मुनाफाखोरी के चक्कर में सेब की फसल को ही दांव पर लगा किया। सेब उत्पादकों को निहायत घटिया और मिलावटी कीट नाशक थमा दिए गए, जिससे ज्यादातर फसल दागी हो गई। सेब उत्पादकों को समझ नहीं आ रहा है कि इस घटिया किस्म के सेब का वो क्या करें। पैसा तो उनका डूब ही चुका है। जम्मू-कश्मीर सरकार के मार्केटिंग इंस्पेक्टर रियाज अहमद ने एक न्यूज साइट से कहा कि बाजार में बहुत ज्यादा नकली कीटनाशक बेचे गए। यही गुणवत्ता में गिरावट का एक मूल कारण है। आलम यह है कि जो सेब मंडी में पहले 130 से 150 रू. किलो बिकता था, वो 80 से 100 रू. किलो पर आ गया है। विभाग की दलील है कि लाॅक डाउन के चलते कीटनाशकों की गुणवत्ता की जांच ठीक से नहीं हो पाई, जिसका नाजायज फायदा कीटनाशक विक्रेताओं से उठाया। राज्य में कीटनाशकों की गुणवत्ता जांच के लिए केवल एक ही प्रयोगशाला है।
उधर कश्मीरी सेब को अब जम्मू के सेब से भी चुनौती मिल रही है। जम्मू के पांच छह गांवों में किसान सफलतापूर्वक सेब की खेती कर रहे हैं। उनका दावा है कि क्वालिटी के मामले में कश्मीरी सेब से यह कहीं से उन्नीस नहीं हैं। वैसे कश्मीर में सेब की 113 तरह की किस्मे उगाई जाती हैं। इनमें भी सबसे बेस्ट क्वालिटी का सेब ‘अम्बरी कश्मीर’ को माना जाता है। इसे कश्मीर घाटी का गौरव भी कहा जाता है। इस सेब का तला सपाट होता है। इसके अलावा मैकलनतोश, ग्रेनी स्मिथ, गोल्डन डिलीशियस, हनीक्रिस्प,सुनहरी, लाल अम्बरी,छौबतिया अनुपम आदि सेब मशहूर किस्मे हैं। हालांकि बाकी देश के हिस्सों में हर सेब कश्मीरी डिलीसन या शिमला डिलीसन के नाम से बेचा जाता है। सेब की फसल खराब होने से घाटी के ज्यादातर कोल्ड स्टोरेज भी खाली पड़े है। राज्य के सेब उत्पादक सरकार से मार्केट हस्तक्षेप योजना लागू करने की मांग कर रहे हैं।
जहां तक दुनिया में सेब उत्पादन की बात है तो यहां भी चीन नबंर वन है। जबकि भारत का क्रमांक इस सूची में सातवां है। बावजूद इसके हमारे कश्मीरी सेब की भी काफी मांग है। दुनिया में सेब की पहली नस्ल ‘मालस सिएवर्सी’ मानी जाती है। ये प्रजाति कजाकिस्तान के जंगलों में आज भी उगती है और जंगली भालू इसे शौक से खाते और बिखेरते हैं। इस देश में पैदा होने वाले ‘एपोर्ट’ सेब का वजन तो एक किलो तक होता है।
सेब सेहत के लिए तो खाया ही जाता है, इसका जूस भी लोग शौक से पीते हैं। सेब की बढि़या किस्म की शराब भी बनती है। कहते हैं कि रूस में जब अंतरिक्ष यात्री धरती पर लौटते हैं तो उन्हे सबसे पहले खाने को सेब ही दिए जाते हैं। बीते जमाने की जानी मानी अभिनेत्री माला सिन्हा के बारे में प्रसिद्ध था कि वो सेब खाए बगैर शूटिंग शुरू ही नहीं करती थीं। माना जाता है कि एक सेब रोज खाना आदमी को सेहतमंद बनाए रखता है। सेब न खाने वाले या उसे नापसंद करने वाले दुनिया में कम ही लोग होंगे। भगवान को चढ़ने वालों फलों में सेब अमूमन होता ही है। उपवास करने वालों के लिए भी सेब एक जरूरी और पसंदीदा फल है। वैसे इस बार सभी धार्मिक त्यौहारों का रंग कोरोना के कारण फीका रहा है। अगर कोई रंग पसरा है तो वह असमंजस का है। नवरात्रि में भिक्तभाव तो पहले सा है, लेकिन उल्लास और जोश हर साल की तरह नहीं है। बाकी कसर कश्मीरी सेब के दागी होने ने पूरी कर दी है। अफसोस यह है कि कश्मीर से आजकल आतंकियों के हमले या उनके मारे जाने की ही खबरें आती हैं। उन सेबों का जिक्र तो कभी कभार ही होता है, जो बिना किसी भेदभाव के स्वाद और सेहत खामोशी से बांटते रहते हैं।
अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक
‘सुबह सवेरे’