वन व अन्य प्राकृतिक संपदा पर आश्रित समुदायों के स्वतंत्र एवं पूर्ण अधिकार का विषय वनाधिकार आंदोलन में हमेशा से प्रमुख रहा है. अंग्रेज़ी राज के ज़माने में ही इन संपदाओं पर उपनिवेशिक शासकों ने पूरा कब्ज़ा जमा लिया. उन समुदायों का प्राकृतिक संपदा के साथ जो पारंपरिक रिश्ता है, उसमे दख़ल-अंदाज़ी कर उन्हें उनकी विरासत से बेदख़ल कर दिया गया. वनाश्रित समुदाय के सार्वभौमिक अधिकार को स्थापित करने के लिए पिछली दो सदी से वनाधिकार आंदोलन चल रहा है और आज भी ज़ारी है. अंग्रेज़ी शासनकाल की समाप्ति के बाद सत्तासीन हुई आज़ाद भारत की सरकार ने भी प्राकृतिक संपदा की इस लूट को बरक़रार रखा और आर्थिक राजनैतिक ढांचे में किसी प्रकार के कोई भी बुनियादी परिवर्तन नहीं किए.
यानि एक ऐतिहासिक अन्यायपूर्ण व्यवस्था आज़ाद भारत में भी चलती रही और इसके खिलाफ जनांदोलन के ज़रिए वनाश्रित समुदाय भी अपनी मांग उठाते रहे. इन संघर्षों की आख़िरकार जीत हुई और आज़ादी के साठ साल बाद भारत की माननीय संसद ने अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वननिवासी (अधिकारों की मान्यता) कानून यानि वनाधिकार कानून-2006, 15 दिसम्बर 2006 को पारित किया. इस विशेष कानून का मुख्य उद्देश्य वनाश्रित समुदायों पर किए गए ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करना और पर्यावरण की सुरक्षा में समुदायों की भूमिका को मज़बूत करना है.
इस ऐतिहासिक कानून के पारित होने पर वनाश्रित समुदायों में एक नई चेतना विकसित हुई और साथ-साथ एक विश्वास भी कि अब जल-जंगल-ज़मीन पर लोगों के मालिकाना अधिकार स्थापित होंगे. वनाधिकार कानून में दो प्रमुख अधिकारों को मान्यता दी गई है. पहला, वनक्षेत्र के अंदर जिस जमीन और जंगल पर लोग अपनी आजीविका चला रहे हैं, उस पर और उनकी आवासीय ज़मीन पर मालिकाना अधिकार और दूसरा, पूरे वनक्षेत्र में पहुंच और लघुवनोपज पर वनाश्रित समुदाय का सामुदायिक मालिकाना अधिकार. वनाधिकार कानून में यह भी कहा गया है कि ये अधिकार, समुदाय द्वारा चुनी गई ग्रामसभा ही तय करेगी, जहां शासन-प्रशासन का किसी प्रकार का दख़ल नहीं होगा.
लेकिन आज भी ज़मीनी स्तर पर ठीक इसका उल्टा हो रहा है. सरकारी तंत्र इस कानून के विरोध में काम कर रहा है. वर्तमान केन्द्र सरकार तो एक कदम आगे बढ़कर, इस पूरे कानून को ही बदलने की दिशा में काम कर रही है. लेकिन यह इतना आसान काम नहीं है. चूंकि वनाधिकार कानून एक विशिष्ट कानून है, इसलिए इसे बदलने के लिए संसद में पास कराना ज़रूरी है. इस सच्चाई से बचने के लिए मौज़ूदा सरकार ने नए-नए नाजायज तरीकों का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. जैसे, कैम्पा कानून लाकर वनाधिकार कानून के मुकाबले में कम्पनियों को वृक्षारोपण के कार्यों में शामिल करना.
चूंकि कैम्पा के तहत 43 हजार करोड़ की पूंजी है और इस पूंजी के आधार पर वनक्षेत्र में वनाधिकार समितियों को निष्प्रभावी किया जा रहा है. एक तरह से वनक्षेत्रों में वनविभाग द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था को स्थापित करके परंपरागत वन संरक्षण व्यवस्था को खत्म किया जा रहा है और बहुमूल्य वन एवं खनिज संपदा कम्पनियों को सौंपी जा रही है. इसके कारण वनक्षेत्रों में वनविभाग व कम्पनियों के साथ ग्रामसभा का सीधा टकराव शुरू हो चुका है. इसके फलस्वरूप, वनाधिकार कानून में प्राप्त वनभूमि से समुदायों को विस्थापित करने की प्रक्रिया शुरू हो गई है और जंगल क्षेत्रों में नक्सलवाद की आड़ लेकर सलवाजुडूम और पी.आर.डी जैसी संस्थाएं खड़ी की जा रही हैं, जिनके जरिए समुदायों के हाथ समुदायों का कत्ल-ए-आम कराया जा रहा है.
समुदायों द्वारा वनाधिकार कानून नियमावली संशोधन-2012 के तहत किए गए व्यक्तिगत दावों को भी बिना किसी कानूनी अड़चन के लम्बित किया जा रहा है. आदिवासी मंत्रालय द्वारा ज़ारी किए गए आंकड़ों से यह साफ ज़ाहिर होता है कि अभी तक कानून की किस प्रकार अनदेखी की गई है. देश में कुल मिला कर 41,71,788 दावे किए जा चुके हैं, जिसमें से 17,20,742 व्यक्तिगत व केवल 62,520 सामुदायिक दावों का ही निष्पादन किया गया है. किए गए दावों में से भी 84.82 प्रतिशत ही निर्धारित किए गए हैं और शेष को निरस्त कर दिया गया या वे लम्बित हैं.
व्यक्तिगत दावों के तहत 1,36,12,921 एकड़ एवं 95,45,386 एकड़ वनभूमि पर मालिकाना हक़ प्रदान किया गया है. केवल उत्तर प्रदेश की बात करें, तो यहां स्थिति बेहद ही दयानीय है. प्रदेश में कुल 93,644 दावे ही किए गए, जिसमें से केवल 18,555 दावों को ही निर्धारित किया गया है. इन दावों में से सोनभद्र जिले से सबसे अधिक 90 हज़ार दावे हैं. बाकि अन्य जिलों से केवल 843 सामुदायिक दावे ही हैं. अगर जांच पड़ताल की जाए, तो पता चलेगा कि प्राप्त दावा पत्रों में भी लोगों को आंशिक रूप से ही भौमिक अधिकार मिले हैं. जिला सहारनपुर में वनग्रामों के दावे अभी तक समाज कल्याण अधिकारी व उपजिलाधिकारी कार्यालय में ही पड़े सड़ रहे हैं. उत्तर प्रदेश के ये आंकड़े बसपा सरकार के कार्यकाल के ही हैं. उसके बाद इस कानून को लेकर उत्तर प्रदेश में किसी प्रकार की प्रगति नहीं हुई है.
मध्यप्रदेश में भी वनाधिकार अधिनियम का ठीक तरह से अमल नहीं हो पा रहा है. जिन जनजातियों के पास पट्टे हैं, उन पर दबंगों का कब्जा है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के विधानसभा क्षेत्र बुधनी में 10 हजार से ज्यादा लोग भूमि का पट्टा पाने के लिए आवेदन दे चुके हैं, लेकिन उसपर अमल नही हो रहा है. मंडला जिले के जोगी सोढा ग्राम पंचायत के इंद्रावन वनग्राम में वनाधिकार कानून का माखौल उड़ाया जा रहा है. दरअसल, वनों में रहने वाले भोले-भाले आदिवासियों को शासन ने वनाधिकार के पट्टे के तहत इंदिरा आवास योजना से नवाज तो दिया, लेकिन आवास की दूसरी किश्त के लिए इन लोगों को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही है.
बताया जा रहा है कि एक साल पहले इन्द्रावन वनग्राम के 74 लोगों को जिला प्रशासन द्वारा इंदिरा आवास स्वीकृत कर आवास की पहली किश्त के रूप में 24 हजार रुपए दिए गए. इन पैसों से हितग्राहियों ने मैटेरियल खरीद लिया और दूसरी किश्त के 24 हजार मिलने की निश्ंिचतता में साहूकारों से ब्याज पर रुपए लेकर घर बनाना शुरू कर दिया. लेकिन न उनका घर बन पाया और न ही इन्हें आवास की दूसरी किश्त मिली. एक्टिविस्ट, लेखक और शोधकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग बताते हैं कि यदि खारिज किए गए दावों को राज्य स्तर पर देखें, तो प्रतिशत के हिसाब से कर्नाटक पहले पायदान पर है. कर्नाटक में 95.7 प्रतिशत दावों को खारिज किया गया है. राज्य में 1,97,246 निष्पादित दावों में से 1,88,943 दावों को खारिज कर दिया गया है.
लेकिन यदि इसे संख्या के आधार पर देखें, तो छत्तीसगढ़ इसमें सबसे आगे हैं, जहां 8,55,696 निष्पादित दावों में 5,07,907 दावों को खारिज कर दिया गया है. इसी तरह 6,08,930 निष्पादित दावों में से 3,74,732 खारिज दावों के साथ मध्यप्रदेश दूसरे स्थान पर है और 3,40,980 निष्पादित दावों में से 2,30,732 खारिज दावों के साथ महाराष्ट्र तीसरे पायदान पर. इसमें एक गंभीर पहलू यह है कि वनाधिकारों का दावा उन्हीं राज्यों में सबसे ज्यादा खारिज किया गया है, जहां सबसे ज्यादा खनन कार्य चल रहा है या भविष्य में खनन की ज्यादा संभावनाएं हैं. क्या खनिज सम्पदा पर कब्जा करने के लिए आदिवासी एवं अन्य वनाश्रित लोगों के अधिकारों को नकारा जा सकता है?
सामुदायिक अधिकार के सवाल पर ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा जारी एफआरए स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार 31 अगस्त 2016 तक देशभर में 1,12,051 सामुदायिक दावा पेश किया गया था, जिनमें 47,443 सामुदायिक पट्टा शामिल है, जबकि 64,608 दावों को खारिज कर दिया गया है, जो कुल दावा का 57.6 प्रतिशत है. छतीसगढ़, बिहार, केरल, राजस्थान एवं तमिलनाडु में सामुदायिक अधिकार के तहत एक भी पट्टा जारी नहीं किया गया है. असल में जंगलों पर सामुदायिक अधिकार नहीं देने का मूल कारण खनिज सम्पदा है, क्योंकि अधिकांश खनिज जैसे लौह-अयस्क, बॉक्साईट, कोयला इत्यादि जंगल या पहाड़ों में मौजूद हैं. सामुदायिक अधिकार को लेकर एक दिलचस्प मामला छत्तीसगढ़ में उभर कर सामने आया है.
छतीसगढ़ के सूरजपुर जिले के परसाकेते गांव एवं सरगुजा जिले के घाटबर्रा गांव को निर्गत सामुदायिक पट्टा को रद्द कर राजस्थान विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड एवं अदानी मिनरल्स प्रा.लि. को कोयला खनन हेतु वनभूमि दे दिया गया. इसी तरह का मामला सारंडा जंगल का है, जहां देश का 25 प्रतिशत लौह-अयस्क है. यहां खनन कंपनियां 14,410.09 हेक्टेयर जंगल में खनन कार्य कर रही हैं. यहां 416 आदिवासियों को 315.74 एकड़ वनभूमि का व्यक्तिगत पट्टा निर्गत किया गया है तथा 415 दावों को दखल कब्जा नहीं होने का कारण बताकर खारिज कर दिया गया है. जबकि वहीं 22 नए खनन परियोजनाओं को 9,337.54 हेक्टेयर वनभूमि लीज पर दे दिया गया है. देश में इस तरह के उदाहरण भरे पड़े हैं, जहां आदिवासियों के अधिकारों को नकारते हुए खनन कंपनियों को जंगलों को सौंपा जा रहा है.
शंकर गुहा नियोगी के साथ काम कर चुके और राजगोपाल पी.वी के जनादेश तथा जन सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी निभाने वाले सीताराम सोनवानी कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में वन अधिकार मान्यता पत्र के लिए आठ लाख से अधिक आवेदन आए थे, जिनमें केवल 40 प्रतिशत वन अधिकार मान्यता पत्रों का वितरण किया गया है और बाकी 60 फीसदी आवेदन निरस्त कर दिए गए हैं. यह शंकाओं को जन्म देता है, जिसकी समीक्षा जरूरी है. प्रदेश में कुल 12 हजार वन आश्रित गांवों में से केवल चार हजार गांवों को सामुदायिक वन अधिकार पत्र दिया गया है. कानून में विशेष पिछड़ी जनजातियों को बसाहट का अधिकार दिया गया है, लेकिन सरकार उन्हें अधिकार न देकर अन्याय कर रही है.
ऐसे में आदिवासियों की अस्मिता, संस्कृति, आजीविका आदि सब कुछ खतरे में आ जाएंगे. आदिवासियों को उनका अधिकार न देना उनके हितों के साथ कुठाराघात होगा. पूरा सरकारी तंत्र व उसके सहयोगी जमींदार, भू-माफिया व अन्य निहित स्वार्थ भी पूंजीवाद के अधीन हैं. इसलिए चाहे वो केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें हों, इस तरह के प्रगतिशील जनहितकारी कानून को लागू करने में किसी की भी दिलचस्पी नहीं है. वनाधिकार कानून 2006 को पारित हुए ग्यारह साल पूरे हो चुके हैं और ये स्पष्ट हो गया है कि वनाधिकार कानून लागू करना एक राजनैतिक संघर्ष है, चूंकि ये व्यापक रूप से भूमि अधिकार आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें करीब 4 करोड़ हेक्टेयर वनभूमि का आवंटन वन समुदायों के लिए सामूहिक रूप से होना निर्धारित है. इसीलिए वनाधिकार आंदोलन में भूमि का सवाल भी अंतर्निहित है.
कानून की अनदेखी से संकट में आदिवासी
वनाश्रित समुदायों पर अन्याय का सबसे बड़ा मामला मानवाधिकार हनन, उत्पीड़न, फर्जी मुकदमों, एनकाउंटर, व अत्याचार का है, जो वन विभाग द्वारा अंग्रेजी कानून 1927 को आधार बनाकर किया जाता है. उन मुकदमों को समाप्त करने व उत्पीड़न को खत्म करने के लिए अब तक कोई ठोस पहल नहीं की गई है. साथ ही आदिवासियों के लिए ग्राम सभा के उन अधिकारों को खत्म करने की दिशा में भी सरकार काम कर रही है, जो इन्हें कानूनी रूप से मजबूत बनाते हैं. कानून में उल्लेखित ग्राम सभा के अधिकारों वाले प्रावधान के कारण ही उड़ीसा में नियामगिरी पहाड़ व समुद्र तट में पास्को स्टील कम्पनी को जमीन नहीं मिल सकी थी, क्योंकि ग्राम सभा ने इसके लिए अनुमति नहीं दी.
वन अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे वनाश्रित समुदायों की एक मांग ये भी है कि 7,000 वनग्रामों को भी राजस्व ग्राम में तब्दील किया जाय. कानून की अनदेखी के कारण इन्हें हो रही समस्याओं को आदिवासी मंत्रालय ने भी स्वीकार किया है. मंत्रालय द्वारा कहा गया है कि वनों के अंदर वनसम्पदा पर समुदाय का हक न होने की वजह से वनाश्रित समुदाय घोर गरीबी की चपेट में है. वनोपज से लगभग 50 हज़ार करोड़ रुपए की सालाना आय है. अगर ये राशि सीधे वनाश्रित समुदाय के पास जाए, तो उनकी जीवनशैली में काफी बदलाव आ सकते हैं व उनका विकास हो सकता है.