देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के उदयपुर में सम्पन्न तीन दिवसीय ‘नवसंकल्प चिंतन शिविर’ में पार्टी के बुनियादी मसलों और चुनौतियों से निपटने को लेकर ठोस निष्कर्ष भले न निकला हो, लेकिन पार्टी ने यह संदेश देने की कोशिश जरूर की है कि कांग्रेस जिन अंतर्विरोधो से गुजर रही है, उन्हें गंभीरता से लेने का वक्त आ गया है। यह बात अलग है कि शिविर चलते समय और उसके समापन के तीन दिन बाद ही कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेताअों सुनील जाखड़ और हार्दिक पटेल ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया। यानी शिविर में चिंतन के बावजूद कांग्रेस छोड़ने वालो का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।
बहरहाल शिविर में चर्चा के दौरान पार्टी के पूर्व अध्यक्ष सांसद राहुल गांधी ने खुले तौर पर माना कि पार्टी का जनता से कनेक्शन टूट गया है। उन्होंने कहा कि हमे ‍लोगों का राजनीतिक विश्वास जीतने फिर जनता के पास जाना होगा। शिविर में भाजपा पर जवाबी हमले के रूप में ‘छद्म राष्ट्रवाद’ के नए हथियार को धार देने का फैसला हुआ। माना गया कि भाजपा के कांग्रेस पर लगाए जाने वाले ‘छद्म निरपेक्षता’ के आरोप की यह सही काट होगी। इससे भी दिलचस्प निर्णय देश में कांग्रेस द्वारा गांधी जयंती 2 अक्टूबर से ‘भारत जोड़ो’ यात्रा निकालने का है। यह यात्रा कन्या कुमारी से कश्मीर तक होगी। इसके अलावा पार्टी राज्यों में ‘जन जागरण यात्राएं’ भी निकालेगी।
मजेदार बात यह है कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का यह विचार नया नहीं है। सबसे पहले यह विचार गांधीवादी पत्रकार यदुनाथ थत्ते के मन में 1973 में आया था, जब देश में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की दंबगता का डंका बज रहा था। 1971 के युद्ध में पाक पर निर्णायक जीत और बांगला देश निर्माण से श्रीमती गांधी का आत्म‍ विश्वास और देश का उनके प्रति विश्वास चरम पर था। उन्हीं दिनो में पत्रकार थत्ते को लगा था कि देश में सामाजिक समरसता के ताने बाने में दरार आ रही है। उसे फिर से बुनने की जरूरत है। यदुनाथ थत्ते वहीं साहसी पत्रकार-संपादक थे, जिन्होंने अपनी पत्रिका साधना के माध्यम से इमर्जेंसी का पुरजोर विरोध किया था।
थत्ते के विचार को अमली जामा पहनने में 15 साल का वक्त लगा। 1985 में जब पंजाब खालिस्तानी आतंकवाद से सुलग रहा था और हिंदू‍-सिख सद्भाव में दरारें पड़ने लगी थीं, उस वक्त बाबा आमटे ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर निकलने का ऐलान किया। उस वक्त देश में प्रचंड बहुमत के साथ प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन देश टूटता लग रहा था। 71 साल की उम्र और शारीरिक अस्वस्थता के बाद भी बाबा अपने 35 साथियों के साथ सा‍इकिल पर कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत को जोड़ने निकल पड़े थे। यह यात्रा दिसम्बर 1985 में शुरू हुई और अयोध्या में राम लला के मंदिर के ताले खुलने तक यानी 116 दिनो तक जारी रही। मध्यप्रदेश के मालवांचल से गुजरी इस भारत जोड़ो यात्रा के कवरेज का मुझे भी मौका मिला। बाद में दो साल बाबा ने गुजरात से अरूणाचल तक भी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकाली, लेकिन उन यात्राअोंका कोई बहुत ज्यादा असर नहीं हुआ, क्योंकि देश की राजनीतिक दिशा तेजी से बदल रही थी।
कांग्रेस अब उसी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को नए सिरे से निकालना चाहती है तो अच्छी बात है, लेकिन उससे पार्टी को राजनीतिक लाभ कितना मिलेगा, कहना मुश्किल है। भारत को समझने के लिए लंबी यात्राएं हमेशा मददगार रही हैं। राहुल गांधी को यह काम बहुत पहले करना चाहिए था।
कांग्रेस ने ‘छद्म राष्ट्रवाद’ को मुद्दा बनाने और इसी की बिना पर भाजपा के हिंदू राष्ट्रवाद की असलियत को उजागर करने का संकल्प लिया है। लेकिन यह जनता के गले उतारना आसान इसलिए नहीं है, क्योंकि खुद कांग्रेस इस मामले में स्पष्ट नहीं है। कभी वह धर्मनिरपेक्षता की बात करती है तो कभी साॅफ्ट हिंदुत्व की। शाह बानो प्रकरण में तलाक शुदा मुस्लिम महिला को गुजारा भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1986) पारित कर कमजोर कर दिया। जबकि यह फैसला मुस्लिम महिलाअों के हित में था। लेकिन कांग्रेस कट्टरपंथी मुसलमानो के दबाव में आ गई। ऐसे सवाल यह उठा कि जब कांग्रेस हिंदुअों के सामाजिक धार्मिक कायदो के लिए हिंदू कोड बिल बना सकती है तो मुसलमानो के पर्सनल लाॅ में हस्तक्षेप से क्यों बचना चाहती है? भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इसे कांग्रेस की ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ कहा। धीरे धीरे यह बात बड़ी संख्या में हिंदुअों के मन में पैठने लगी, जिसने भविष्य में भाजपा में सत्ता में आने के रास्ते तैयार कर दिए। अब कांग्रेस अगर भाजपा पर ‘छद्म राष्ट्रवादी’ कहकर हमला करेगी तो ऐसा करके वो अपना कौन सा वोट बैंक सुरक्षित करेगी, यह मार्के का सवाल है। क्योंकि भाजपा ने बड़ी चतुराई से हिंदूत्व और राष्ट्रवाद को मिला दिया है। कांग्रेस इस मामले में अपने अतीत से पीछा कैसे छुड़ाएगी। उसके पास ऐसे संचारक नेता कहां हैं, जो तार्किक ढंग से और आम आदमी की भाषा में हिंदू राष्ट्रवाद, भारतीय राष्ट्रवाद और कांग्रेसी राष्ट्रवाद का फर्क समझा सकें? कहीं ऐसा न हो कि यह मुद्दा बूमरेंग साबित हो जाए?
यह सही है कि कभी पूरे देश पर राज करने वाली कांग्रेस अब महज दो राज्यों में सिमट गई है। भाजपा के साथ साथ क्षेत्रीय दल भी उसे चुनौती दे रहे हैं। लिहाजा कांग्रेस के सामने चुनौती दोहरी है। पार्टी ने समान विचारों वाली पार्टियों से गठजोड़ करने की बात कही है, लेकिन इसके लिए पहले कांग्रेस को खुद सेनापति की भूमिका में आना होगा। यह काम बहुआयामी तरीके से और त्वरित निर्णयों के जरिए होना चाहिए। शीर्ष नेतृत्व और आम कांग्रेस कार्यकर्ता के बीच दूरियां घटनी चाहिए। सड़क पर संघर्ष केवल दिखावटी नहीं रहना चाहिए। जब बात फैसलों और उसके अमल की आती है तो अक्सर ‘कांग्रेस कल्चर’ की दुहाई दी जाती है। अगर ‘अनिर्णय’ ही ‘कांग्रेस कल्चर’ है तो पार्टी को 21 वीं सदी में लौटने की जरूरत है। कार्यकर्ता में यह संदेश जाना चाहिए कि कांग्रेस सचमुच बदलना चाहती है। वक्त की चुनौतियों से दो चार होना चाहती है। शिविर में 50 से कम उम्र वालों को महत्व देने की बात हुई, यह अच्छी बात है, लेकिन हकीकत में वैसा होता नहीं दिख रहा। जबकि किसी भी पार्टी में पीढ़ी परिवर्तन सहज ढंग से होना चाहिए। कांग्रेस में पहले वह होता रहा है, लेकिन बीते कुछ सालो से राजनीति गांधी परिवार के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई है। शिविर में इस सबसे बड़े सवाल का जवाब नहीं मिला कि पार्टी गांधी परिवार की बैसाखी के सहारे कब तक चलेगी? अध्यक्ष न सही, कार्यकारी अध्यक्ष तो गैर गांधी परिवार से हो सकता है। कांग्रेस को ऐसे नेता चाहिए जो 24×7 राजनीति करते हों, अपनी गलतियों से सीखकर तुरंत सुधार भी करते हों।
यह सही है कि लोकतांत्रिक देश में ‍मजबूत विपक्ष जरूरी है और यह काम केवल कांग्रेस ही कर सकती है। पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने ‍शिविर में नव संकल्प की व्याख्या करते हुए कहा ‍िक ‘विरोधियो को मात देना ही हमारा संकल्प है।‘ कांग्रेस मान रही है ‍कि भाजपानीत राजनीतिक पार्टियों का गठबंधन राजग अब कमजोर हो चुका है। खुद भाजपा अब अहंकारी की भूमिका में आ गई है। ऐसे में दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ ‘यूपीए प्लस’ गठबंधन बन सकता है, जो 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकता है। लेकिन इसके पहले खुद कांग्रेस तो एक दिखे। पार्टी एकजुट दिखेगी तो जनता उससे जुड़ने के बारे में गंभीरता से सोचेगी। ये भी तब होगा, जब कांग्रेस मुद्दे तय करने की‍ स्थिति में आए। अभी तो वह केवल प्रतिक्रिया देने या प्रत्यारोप लगाने के किरदार में ही ज्यादा दिखती है। वोटर के बदलते मानस को समझना होगा। बीजेपी ने हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, क्रोनी पूंजीवाद, साम्प्रदायिकता, गरीब हितैषी योजना, व्यापक विकास और दंबगई से अपनी बात रखने का जो फार्मूला तैयार किया है, उसकी काट पुराने औजारों से नहीं बन सकती। जब तक देश का बहुसंख्यक वोटर कांग्रेस को फिर से नहीं अपनाएगा, तब तक ज्यादा कुछ कामयाबी नहीं मिल सकती। बहुसंख्यक हिंदुअों का विश्वास फिर से जीतना ही कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। इस बारे में गहराई से चिंतन और अमल हो तो ज्यादा अच्छा है।

वरिष्ठ संपादक

(सुबह सवेरे)

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