यह देखकर अफ़सोस होता है कि राजनीतिक बहस और राजनीतिक प्रक्रिया का स्तर नीचे गिरता जा रहा है. जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं कि संसद का मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया. यह भी भारत के विधायी काम का न्यूनतम स्तर था. अब हमारे समक्ष बिहार का चुनाव है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही राज्य के तीन दौरे कर चुके हैं. हो सकता है, आगे भी एक-दो दौरे और करें. लेकिन, उनके चुनावी भाषणों का लहजा और स्वर उस स्तर का नहीं है, जिसकी एक प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जाती है.
हम समझ सकते हैं कि चुनाव में आप पार्टी के लिए प्रचार करते हैं, जिसमें आपको अपने विरोधियों की आलोचना करनी पड़ती है, लेकिन एक प्रधानमंत्री द्वारा जो भी कहा जाए, उसमें गरिमा होनी चाहिए और उसका एक स्तर होना चाहिए. किसी भी क़ीमत पर इस पर समझौता नहीं होना चाहिए.
इंदिरा गांधी ने यह नियम बना लिया था कि वह मध्यावधि चुनाव में बहुत कम जाती थीं. राज्यों के चुनाव में प्रचार तो करती थीं, लेकिन अपनी बात को मुख्य मुद्दों पर ही केंद्रित रखती थीं. मैं मौजूदा प्रधानमंत्री की चिंता समझ सकता हूं. बिहार बहुत बड़ा राज्य है और अगर वह वहां नहीं जीतते हैं, तो यह पार्टी और खुद उनकी छवि के लिए एक गहरा सदमा होगा. राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और पार्टी के दूसरे नेता कुछ भी कहें, ठीक है, लेकिन मोदी की ज़ुबान से जो भी बात निकले, वह गरिमापूर्ण होनी चाहिए.
राज्यों को पहले भी पैकेज दिए जाते रहे हैं. लेकिन, अभी क्या हो रहा है? अभी ऐसा लगता है कि यह वोट के बदले दी जाने वाली एक वस्तु बन गई है. वह पैकेज के बदले वोट मांग रहे हैं. कोई भी उनसे इस बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मांग रहा है, यह नहीं पूछ रहा है कि आप क्या और कितने समय के भीतर देंगे? और, अगर आप हार जाते हैं, तब भी यह पैकेज बरकरार रहेगा या नहीं? दरअसल, यह पैसा भाजपा के फंड से नहीं जा रहा है, बल्कि केंद्र सरकार एक राज्य सरकार को दे रही है. इसलिए पार्टियों को बीच में नहीं आना चाहिए.
भारत-पाक का मामला है. जब भी किसी वार्ता या समझौते की बात आती है, तो सीमा पर उधर से सेना द्वारा ऐसी कोई हरकत कर दी जाती है, जिससे बातचीत बंद हो जाती है. पाकिस्तान की सेना इस मामले में बिल्कुल साफ़ है. उसका मानना है कि आप चाहे जिससे बात कर लें, हमें मालूम है कि हमारे हित में क्या है. हमें इस जाल में नहीं फंसना चाहिए. दरअसल, मैं व्यक्तिगत तौर पर यह महसूस करता हूं कि बातचीत होनी चाहिए. एक बार अगर बातचीत करने का निर्णय ले लिया, तो उसे स्थगित नहीं करना चाहिए. चाहे ऐसी छिटपुट घटनाएं क्यों न होती रहें.
मुख्य बात यह है कि सरकार को अतिरिक्त फंड का आवंटन करना चाहिए. सरकार के लिए अभी अनुकूल परिस्थिति भी है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतें काफी गिर गई हैं. सरकार को सीमा पर मजबूत क़दम उठाने चाहिए. जब भी सीज फायर का उल्लंघन होता है, तो हम स़िर्फ विरोध दर्ज कराते हैं. दरअसल, हमें उसका करारा जवाब देना चाहिए. सही नीति तो यह होगी कि हम ऐसा जवाब दें कि वे विरोध दर्ज कराएं. लेकिन, अब तक ऐसा नहीं हुआ है. हम अभी भी शिकायत करते हैं कि पाकिस्तान यह कर रहा है, वह कर रहा है. इससे कोई फ़ायदा नहीं होगा. हमें इस बारे में एक स्पष्ट जवाबी कार्रवाई की रणनीति बनानी होगी.
भाजपा को खुश करने के लिए बहुत सारे अख़बार लिख रहे हैं कि उसने राजस्थान के निकाय चुनाव में जीत हासिल की है. वे यह भी बता सकते थे कि भाजपा को कांग्रेस के म़ुकाबले वोट प्रतिशत में झटका लगा है. स्थानीय निकाय के चुनाव कभी भी विधानसभा या लोकसभा चुनाव जैसे नहीं होते. यह एक मिश्रित परिणाम है. राजस्थान के 129 निकायों में 71 भाजपा और 44 कांग्रेस के खाते में गए हैं. दिलचस्प रूप से वसुंधरा राजे और दुष्यंत सिंह के क्षेत्रों में कांग्रेस को जीत हासिल हुई है. इससे ज़ाहिर है कि वहां के लोगों ने वसुंधरा राजे और दुष्यंत सिंह पर लगे आरोपों को नोटिस में लिया है. यह सच हो भी सकता है और नहीं भी, लेकिन कुल मिलाकर यह परिणाम ऐसा नहीं है, जिससे भाजपा बहुत खुश हो जाए.
लोकसभा चुनाव के समय भाजपा नेताओं की ओर से ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान आ रहे थे कि रुपया कमज़ोर हो रहा है और जब हम सत्ता में आएंगे, तो एक डॉलर की क़ीमत 40 रुपये तक ला देंगे. एक सज्जन तो यह भी कह रहे थे कि एक डॉलर एक रुपये के बराबर हो जाएगा. उन्हें अर्थशास्त्र की समझ नहीं है. उन्हें समझना चाहिए कि एक्सचेंज रेट बहुत ही संवेदनशील विषय है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार एक्सचेंज रेट पर निर्भर करता है. वह केवल रुपया या डॉलर नहीं, बल्कि अन्य मुद्राओं के हिसाब से भी चलता है. चीन ने अपनी करेंसी का अवमूल्यन किया है, क्योंकि वह एक बहुत बड़ा निर्यातक है. इससे रुपये पर और ज़्यादा दबाव आ गया है.
रुपये का अवमूल्यन भारत के हित में है. अगर यह और थोड़ा नीचे जाता है, तो कोई बुराई नहीं है. अभी रुपया एक डॉलर के म़ुकाबले 65 पर है और यह इससे भी नीचे जाता है, तो कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. इसका सब्जियों के दाम घटने-बढ़ने से कोई संबंध नहीं है. विशेषज्ञों (एक्सपर्ट्स) को इस मुद्दे पर अपनी राय रखने दीजिए. ज़्यादा घबराने की बात नहीं है. जब रुपया डॉलर के मुक़ाबले 18 पर था, तब हमारी अर्थव्यवस्था की हालत खराब थी. जब मनमोहन सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था को मुक्त बनाया, तब एक दिन में रुपया 18 से 32 पर चला गया. उस वक्त हम विरोध नहीं कर रहे थे. सब लोग समझ रहे थे कि हम कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं.
एक बार अगर आपने अर्थव्यवस्था को खोल दिया, तो रुपये को नियंत्रित नहीं कर सकते हैं. इसमें घबराने जैसी कोई बात नहीं है. रुपया अपना स्तर खुद पा लेगा. आरबीआई ज़रूरत पड़ने पर हस्तक्षेप करेगा. लेकिन, अनावश्यक रूप से इसे संकट बनाने की ज़रूरत नहीं है. भाजपा नेताओं को उन विषयों पर बोलना बंद कर देना चाहिए, जिनकी उन्हें जानकारी नहीं है. ऐसा ही एक विषय है, अर्थव्यवस्था.प