यह रविवार 9 जनवरी को गोवा में वर्तमान समय में भारत के सूचना आयुक्त, उदय माहुरकर और चिन्मय पंडित द्वारा लिखित, वीर सावरकर, दी मॅन हू कुड हॅव प्रिव्हेंटेड पार्टीशन इस शिर्षक से एक किताब का विमोचन हुआ है ! यह दोनों लेखक हिंदुत्ववादी है ! और उन्हें अपने वैचारिक स्कूल के हिसाब से लिखने की पूरी आजादी है,
यह किताब मैंने अभितक नही देखी है ! मैंने गोवा के मित्रों को तुरंत भेजने के लिए कहा है ! जब मुझे किताब मिलेगी, और मै पढ़ने के बाद समिक्षा लिखने की कोशिश करूंगा, यह बात अलग है ! लेकिन बॅरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर कुल्ड हॅव प्रिव्हेंटेड पार्टीशन इस शिर्षक से ही, मुझे लगा कि इस पर तुरंत ही लिखना चाहिए !
क्योंकि बॅरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर को १८८३ से १९६६ फरवरी के अंत तक ८३ साल का जीवन जीने को मिला है ! मतलब आजादी के समय वह चौसठ साल के थे ! और उसके पस्चात भी बीस साल आजाद भारत में जीवित रहने के बावजूद उन्होंने बटवारा अपने सामने होते हुए देखा है ! और उसके कारणों में एक कारण उनके सांप्रदायिकता की राजनीति भी एक कारण है ! अन्यथा दुसरा बॅरिस्टर मोहम्मद अली जिना को मुसलमानो को हिंदुओं का डर दिखाने के लिए और क्या वजह थी ?
और सबसे आश्चर्यजनक बात दुसरे महायुद्ध के समय कांग्रेस के नेता जेल में बंद थे ! और सिंध, बंगाल जैसे महत्वपूर्ण प्रांतों में सावरकर और जीना की(हिंदुमहासभा और मुस्लिम लीग की!) पार्टीयोकी मिलीजुली सरकारे सत्ता में थी ! वह भी 23 मार्च १९४० के लाहौर प्रस्ताव के बाद भी ! जो पाकिस्तान की अलग देश की मांग करने का प्रस्ताव पारित होने के बाद भी ! इनकी सरकारों के उपर कुछ भी असर नहीं पड़ा !
और अखंड भारत का जप करना मतलब कितना बड़ा पाखंड ! मुख्य रूप से बॅरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदुमहासभा कर रही थी ! श्यामा प्रसाद मुखर्जी जो १९५० के बाद जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष बने ! वह बंगाल में फजलुरहमान के साथ हिंदुमहासभा के तरफसे मुस्लिम लीग के नेता फजलुरहमान के मंत्रीमंडल में वित्त मंत्री के रूप में शामिल थे ! और १९४२ के भारत छोडो आंदोलनकारियों से कैसे निपटा जा सकता है ? इसका दस कलमी फार्मूला अंग्रेजी सरकार के, तत्कालीन गव्हर्नर जाॅन हर्बट को लिखे पत्र में दर्ज है !
मतलब बॅरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर ने अंदमान की जेल से रिहा होने के लिए इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को लिखे पत्र १९११ में !
और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1942 में लिखा पत्र में, दोनों की देशभक्ति का कौन-सा प्रमाण मिलता है ? और कौन-सी नैतिकता के मापदंडों में इन्हें तोला जा सकता है ? सावरकर की सजा 1936 में समाप्त हुई थी ! उसके बाद 11 साल आजादी के आंदोलन में शामिल होने का मौका मिला था ! लेकिन उन्होंने उस समय क्या किया ? क्योंकि वह रिहाई के बाद तुरंत हिंदुमहासभा के अध्यक्ष पदपर चढे थे ! जो बढते – बढते आजादी के पहले तक विराजमान थे ! लेकिन इस दौरान उन्होंने क्या काम किया ? और सबसे अहम बात बटवारे के खिलाफ कौन-सी कारवाई की थी ? शायद इस किताब में इसका कुछ प्रमाण मिलेगा ऐसी उम्मीद कर सकते !
डॉ राम मनोहर लोहिया की भी भारत विभाजन के गुनाहगार नाम से प्रसिद्ध किताब जो मुख्यतः मौलाना आजाद कि इंडिया विन्स फ्रिडम के परिक्षण के उपर आधारित है ! उसमें लोहिया ने” विभाजन के आठ कारण गिनाये है, एक ब्रिटिश शासन की कपटपूर्ण निती, दो कांग्रेस नेतृत्व का उतारवय, तीन हिंदू – मुस्लिम दंगो की प्रत्यक्ष परिस्थिती, चार जनता में दृढ़ता और सामर्थ का अभाव, पांच गांधीजी की अहिंसा, छ मुस्लिम लीग की फूटनीति, सात आये हुए अवसरों का लाभ उठा सकने की असमर्थता, और आठ हिंदू अहंकार !
श्री राजगोपालाचारी अथवा कम्युनिस्टो की विभाजन के समर्थक नीति, और विभाजन के विरोध में कट्टरपंथी हिंदू या दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नीति को, विशेष महत्व देने की आवश्यकता नहीं है ! ये सभी मौलिक महत्व के नही थे ! ये सभी गंभीर शक्तियों के निरर्थक, और महत्वहीन अभिव्यक्ति के प्रतिक थे ! उदाहरणार्थ विभाजन के लिए कट्टर हिंदूवादीओ का विरोध असलमे अर्थहीन था, क्योंकि देश को विभाजित करने वाली प्रमुख शक्तियों में निश्चित रूप से कट्टर हिंदूवाद भी एक शक्ति थी ! वह उसी तरह थी जैसे कोई हत्यारा, हत्या करने के बाद अपने गुनाह मनाने से भागे ! क्योंकि जब बॅरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर हिंदुमहासभा के अध्यक्ष थे उसी दौरान मुस्लिम लीग का पाकिस्तान का लाहौर प्रस्ताव पारित हो चुका था ! और उसके बाद भारत छोडो आंदोलन के कारण कांग्रेस के नेता जेलों में बंद थे और सिंध प्रांत तथा बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ हिंदुमहासभा की मिलीजुली सरकारों का दौर जारी था ! तो उन सरकारों का कामन मिनिमम प्रोग्राम क्या था ? फिर अखंड भारत के राग अलापने का क्या मतलब ? और भारत के बटवारे का दोष कांग्रेस या महात्मा गाँधी के उपर मढना कहा तक ठीक है ?इसमें कोई भूल या गलती ना हो ! अखंड भारत के लिए सबसे अधिक उच्च स्वर में नारा लगाने वाले, वर्तमान जनसंघ और उसके पूर्व पक्षपाती जो हिंदूवाद की भावना के अहिंदू तत्व के थे, उन्होंने ब्रिटिश और मुस्लिम लीग की देश के विभाजन में सहायता की, यदि उनकी नियत को नहीं को नहीं उनके नतीजो को देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि एक राष्ट्र के अंतर्गत मुसलमानों को हिंदुओं के नजदीक लाने के संबंध में उन्होंने कुछ नहीं किया ! उल्टा उन्हें पृथक रखने के लिए लगभग सब कुछ किया ! ऐसी पृथकता ही विभाजन का मुल कारण है ! पृथकता की नीति को अंगिकार करना, साथ ही अखंड भारत की कल्पना करना अपने आप में घोर आत्मवंचना है, यदि हम भी मान ले कि इमानदार लोग हैं ! उनके कृत्यों को युद्ध के संदर्भ में अर्थ और अभिप्राय माना जायेगा जब कि वह उन्हें दबाने की शक्ति रखते हैं ! जिन्हें पृथक करते हैं ! ऐसा युद्ध असंभव है, कम-से-कम हमारी शताब्दी के लिए और यदि संभव हुआ तो इसका कारण घोषणा न होगी ! युद्ध के बीना, अखंड भारत और हिंदू – मुस्लिम पृथकता की दो कल्पनाओं का एकीकरण, विभाजन की नीति को समर्थन और पाकिस्तान को संकटकालीन सहायता देने जैसा ही है ! भारत के मुसलमानों के विरोधी पाकिस्तान के मित्र है ! जनसंघी और हिंदू नीति के सभी अखंड भारतवादी वस्तुतः पाकिस्तान के सहायक है ! मैं असली अखंड भारतीय हूँ ! मुझे विभाजन मान्य नहीं है ! विभाजन की सीमा रेखा के दोनों ओर ऐसे लाखों लोग होंगे, लेकिन उन्हें केवल हिंदू या केवल मुसलमान रहने से अपने को मुक्त करना होगा, तभी अखंड भारत की आकांक्षा के प्रति वे सच्चे रह सकेंगे !
दक्षिण राष्ट्रवादीता की दो धाराएँ है, एक धारा ने विभाजन को समर्थन दिया, जबकि दूसरी ने इसका विरोध किया ! जब यह घटनाएँ घटी, तब उनकी नाराज या खुष करने की शक्ति कम न थी, लेकिन वे घटनाएँ फलहीन थी ! महत्वहीन ! दक्षिण राष्ट्रवादीता केवल शाब्दिक या शब्दहीन विरोध कर सकती थी, इसमें सक्रिय विरोध कर सकने की ताकत नहीं थी ! अत: इसका विरोध समर्पण अथवा राष्ट्रीयता की मुलधारा से दूर होने में मीट गया ! इसी तरह, दक्षिण राष्ट्रवादी विचार, जिसने विभाजन में मदद की, उसने थोड़ी भीन्न भुमिका भी अदा की, इस सत्य के बावजूद कि इसके भाषणों से असली राष्ट्रवादी बुरी तरह से उब चुके थे ! इस भाषणबाजी में प्रभाव की शक्ति न थी ! दोष इसमे इसी का न था , भारतीय जनता व भारतीय राष्ट्रवाद की पलायनवृत्ती, पंगुत्व, भग्नता और आत्मशक्ति की कमी का भी दोष था ! दक्षिण राष्ट्रवादीता ने विभाजन का समर्थन और विरोध दोनों किया, यह उनके मुल-वृक्ष की निष्पर्ण शाखाएँ थी ! मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि क्या कभी देशद्रोही लोग भी कभी इतिहास बनाने में कोई मौलिक भुमिका अदा करते हैं ! ऐसे लोग तिरस्करणीय होते हैं, इसमें कोई संशय नहीं, लेकिन वे क्या महत्वपूर्ण लोग हैं, इसमें मुझे शक है ! ऐसे देशद्रोहियों के काम अर्थहीन होंगे, यदि उन्हें पूरे समाज के गुप्त विस्वासघात का सहयोग न मिले ! और इस बात के प्रकट उदाहरण दोनों बॅरिस्टर एक जीना और दुसरे सावरकर दिखाई देते हैं ! जो जीना कभी शुरूआती काल में राष्ट्रवादी और हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकारों में से एक थे ! और वह सावरकर जिसने अपने जीवन के पहले लेखन में १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम पर बहुत ही सुंदर किताब लिखी है ! और उसे और उनके माझी जन्मठेप (मेरी आजन्म कारावासकी शिक्षा) इन दोनों किताबों का मेरे शुरूआती दिनों में बॅरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर मेरे हिरो रहे है ! लेकिन उन्होंने हिंदुत्व, हिदुंपदपादशाही और उनके जीवन की सबसे आखिरी किताब सहा सोनेरी पाने (छ सोने के पन्ने) यह किताब में शत्रुओं की स्त्रियों पर बलात्कार करने की मांग ! और शिवाजी तथा चिमाजी अप्पा को शत्रुओं की महिलाओं को सम्मानित कर के वापस भेजने की कृतियों की आलोचना ! वह भी सावरकर अपने उम्र के अस्सि साल पार करने के बाद ! कमअधिक प्रमाणमे सावरकर के और जीना के मानसिकता का ! आभ्यास करने से यही देखने में आता है कि, दोनों के साथ उनकी मनोदशा भी भारत के बटवारे के लिए जिम्मेदार तत्व रहे हैं ! सिर्फ अंग्रेजो को या कांग्रेस के नेताओं को जिम्मेदार ठहराना, गैरजिम्मेदाराना बात होगी ! जीना को हिंदू बहुलता का मुद्दा उठाने के लिए, और मुसलमानों को हिंदुओं का डर, और सावरकर – गोलवलकर के जैसे हिंन्दुत्ववादी लोगों की तरफ से मुसलमानों का डर दिखाना, जो आज की तारीख में और भी बढ़चढ़कर बताया जा रहा है ! क्या भारत और बटवारे के तरफ तो नहीं ना जा रहा ? क्योंकि पचहत्तर साल के बाद भी 1947 – 46 जैसा माहौल बनाने का और क्या कारण है ? जिस देश की जनसंख्या पहले भी अस्सी प्रतिशत से अधिक हिंदुओं की होने के बावजूद हिंदुओं को खतरा है, बोलने वाले लोगों की मानसिकता को क्या कहेंगे ?
बॅरिस्टर मोहम्मद अली जीना के दिमाग में जब धर्म के आधार पर अलग मुल्क बनाने की कल्पना अंकुरित नही हुई थी ! उसके तीस साल पहले बॅरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर ने अंदमान की जेल से भी पहले इंग्लैंड में रहते हुए १९०६ से १९१० में ही इस विषय पर अपना ध्यान केंद्रित करने के, साथ-साथ ही उन्हें लंडन में अंग्रेजोने राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया ! और अंदमान की जेल में बंद करने के बाद, उन्होंने इस किताब को अंदमान के जेल की दिवारों पर लिखा था ! फिर उन्होंने अंदमान की जेल की यातनाओं से तंग आकर, छ महिनों के भीतर ही कुल छ माफीनामे इंग्लैंड की महारानी के नाम लिखे हैं ! जो मशहूर इतिहास लेखक डॉ आर सी मुजुमदार द्वारा लिखित इतिहास कि कीताब में इन याचिकाओं को यथावत कोट किया है ! और उसके कारणों से ब्रिटेन की महारानी ने १९२१ में उन्होंने रिहा कर दिया था !
सावरकर टूटने की वजह से और शायद किसी राजनीतिक लाभ के उद्देश्य से यह बात अलग है ! लेकिन सावरकर के दिल में ब्रिटेन की सरकार के खिलाफ जो भाव था उसमे बदलाव आया था ! १९२१ में जेल से छुटकारा पाने के बाद आजादी के आंदोलनों से वह दूर हट गए थे ! और लंबे समय अलग रहते हुए १९३७ में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने ! १९३५ से १९३९ तक का काल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में, बेहद तेज घटनाओं से भरा रहा हैं ! कांग्रेस की सरकारों ने १९३९ के विश्वयुद्ध के बाद विरोध स्वरूप त्यागपत्र दे दिया था !
अंग्रेजो को भारतीय जनता का साथ चाहिए था, तो कांग्रेस के हट जाने से जो शुन्य बना, उसे जिन्ना के मुस्लिम लीग और सावरकर की हिंदू महासभा ने भर दिया ! यह दोनों ही अंग्रेजो के साथ आ गए थे ! सावरकर, १९३७ से १९४३ तक हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे ! सावरकर ने 1937 में अध्यक्ष बनते ही यह विचार उछाल दिया था कि, हिंदू एक राष्ट्र है और हिंदू महासभा हिंदुराष्ट्र के लिए प्रतिबद्ध हैं ! उधर पाकिस्तान की भी मांग उठी ! धर्म ही राष्ट्र है के एक नये सिद्धांत का जन्म हुआ ! जिसके प्रतिपादक सावरकर बीस साल पहले ही थे ! इसलिये जीना और सावरकर में कोई विरोध नहीं था ! जीना के बारे में जो सावरकर का विचार था, वह 1937 के ऐसेंसियल्स आॅफ हिंदूत्व के प्रस्ताव में मिलता है !
ऐसेंसियल्स आॅफ हिंदुत्व 1937 के हिंदूमहासभा के संमेलन, जिसमें सावरकर अध्यक्ष बने थे ! द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया था ! इसके तीन साल बाद १९४० में, मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में एम ए जीना ने धर्म नाम पर मुसलमानों के लिए एक नए राष्ट्र की मांग कर के, बटवारे के संकेत दिया ! यह भारतीय इतिहास का पहला धार्मिक ध्रुवीकरण था ! हिंदुराष्ट्र की अवधारणा, सावरकर की थी, और पाकिस्तान की जीना की ! और यह विडंबना देखिये कि दोनों नेताओं को ब्रिटिश शासन का वरदहस्त था ! दोनों अंग्रेजो के विश्वासपात्र थे ! और आजादी की लड़ाई से उस समय नहीं जीना का सरोकार था और नही सावरकर का ! जीना के बारे मे सावरकर क्या कहते हैं ? अब आगे पढीए -” I have no quarrel with Mr Jinna’s tow nation theory. We Hindus are a nation by ourselves and it is a historical fact that Hindus and Muslims are two nations “( मेरा जीना से कोई झगड़ा नहीं है.!( हम हिंदू अपने आप में ही स्वत: एक राष्ट्र है और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू और मुसलमान दोनों दो राष्ट्र है !)
जीना की जीन कारणों से निंदा की जाती है, उन्ही कारणों के होते हुये, सावरकर कैसे महानायक और विर कहे जा सकते हैं ? यह सवाल मन में उठे तो उत्तर खुद ही ढुंढीयेगा ! पर एक इतिहास के विद्यार्थि के रूप में !
१९४४-४५ के बाद जब कांग्रेस के बड़े नेता जेलों से छोड दिये गये, तो अंग्रेजों ने आज़ादी के बारे में सारी औपचारिक बातचीत कांग्रेस से शुरू कर दी, और तब यह त्रिपक्षीय वार्ता का क्रम बना ! अंग्रेज, कांग्रेस, और मुस्लिम लीग ! और सावरकर चाहते थे कि बात अंग्रेज, मुस्लिम लीग और, कांग्रेस के बजाय हिंदूमहासभा के साथ ही हो ! पर गांधी और कांग्रेस का भारतीय जनता पर जो जादूई प्रभाव था उसकी तुलना में सावरकर कही ठहरते भी नहीं थे ! गांधी से सावरकर की नाराजगी का यही कारण था, जो बाद में उनकी हत्या का कारण बना ! जीना तो कटा – फटा किडो द्वारा खाया पाकिस्तान पा गये पर सावरकर विफल रहे !
गांधी और कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष भारत चाहा और उसके लिए वे शहिद भी हो गए ! यह भी एक विडम्बना है कि पूर्णतः आस्थावान और धार्मिक गांधी धर्मनिरपेक्ष भारत चाहते हैं ! और बॅरिस्टर जीन्ना जो किसी भी द्दष्टिकोण से अपने मजहब के पाबंद नही थे, वे एक धर्म आधारित थियोक्रेटिक राज्य के पक्षधर थे ! ऐसे ही अनसुलझे और विचित्र संयोगो को नियती कहा जाता सकता है !
30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या नथुराम गोडसे ने की ! नथुराम पहले आर एस एस मे था, फिर हिंदूमहासभा में गया ! लेकिन उसके भी पहले वह अपने पिता की नौकरी पोस्ट में होने के कारण, रत्नागिरी के सावरकर के हाऊस अरेस्ट के दौरान ही उम्र के पंद्रह से भी कम रहते हुए उनके संपर्क में आने कारण, वह अपने घर सिर्फ रात में सोने के लिये ही आता था ! बाकी समय वह सावरकर के साथ ही रहा था ! और इस कारण उसने स्कूल जाना भी बंद कर दिया था ! तो सावरकर ने उसे मराठी, संस्कृत और अंग्रेजी पढ़ाने का काम किया !
और नथुराम ने सावरकर को ब्लाटिंग पेपर के जैसा ब्लॉट करने के कारण वह उग्रवादी बना ! जैसे उसके पहले सावरकर ने इंग्लैंड में मदनलाल धिंग्रा और उसके जैसे दर्जनों लोगो को अंग्रेजो के उपर जानलेवा हमला करने के लिए तैयार किया है ! मेरे हिसाब से सावरकर ने बॅरिस्टर होने के बावजूद शायद ही कोई वकील की प्रैक्टिस की होगी ? लेकिन अपने बॅरिस्टर के हूनर को सिर्फ आजादी के लडाई के लिए कुछ युवाओं को आकर्षित कर के, उन्हे अलग अलग आतंकवादी हमलों के लिए तैयार किया है ! और अंतिम कलाकृति नथुराम गोडसे रहा है !
नथुराम गोडसे के साथ इतना घनिष्ठ संबंध रहने के बावजूद, गांधी हत्या की केस में कोर्ट में सावरकर थंडे दिमाग से कहते है, कि इस लडके के जैसे रोज मुझे काफी लोग मिलने आते हैं ! इसलिए मैं इसे नहीं पहचानता ! और नथुरामनेभी कहा कि मैं सावरकर को कभी नहीं मिला ! हैरानी इस बात की है कि सरकारी वकील को नथुराम और सावरकर के संबंध कितने गहरे थे ! यह बात कोर्ट में क्यों नहीं उठाया यह एक रहस्य है ! और इसलिए सावरकर सिर्फ तकनीकी आधार पर बरी कर दिये गये ! अन्यथा एक दर्जन से अधिक हत्याओ के लिए हत्यारों को तैयार करने वाले व्यक्ति का गांधी हत्या से बरी होना यह हमारी जांच एजेंसियों से लेकर कोर्ट और तत्कालीन सरकारों की भूमिका पर सवाल खड़े होने की बात है ! मनोहर मलगावकर की किताब द मेन हूँ किल्ड गांधी में मलगावकर ने नथुराम गोडसे से लेकर सभी अपराधियों के पत्रों से लेकर उनके जीवन के हर पहलुओं पर अहमदनगर से लेकर लगभग हरेक जगह जाकर तथ्य इकठ्ठे करके किताब लिखी है जिसमें सावरकर नथुराम के घनिष्ठ संबंधों पर भी रोशनी डाली है !
उसी तरह से भारत के बटवारे के लिए जितनी जिम्मेदारी बॅरिस्टर मोहम्मद अली जिना के उपर डाली जाती है ! उससे कहीं भी कम जिम्मेदारी बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर की नही है ? यह सवाल मुझे रह-रहकर सतत सताते रहा है जिसे मैंने आज संभावित किताब के कारण मेरे मन में आई है जो मैंने अक्षरबद्ध करने की कोशिश की है !
डॉ सुरेश खैरनार पूर्व अध्यक्ष राष्ट्र सेवा दल 11 जनवरी 2022, नागपुर