श्रीमती शीला झुनझुनवाला का यह नया उपन्यास ‘पहाड़ में वसंत’ बुजुर्गों और बुज़ुर्गी की ओर बढ़ने वालों के लिए एक चेतावनी है अकेलेपन की व्यथा की। व्यथा यह कि भरा पूरा परिवार होते हुए भी आप अकेले हैं,उपेक्षित हैं, आपकी संतान के पास आपके लिए समय नहीं है ।क्या त्रासदी है ।विडम्बना भी कह सकते हैं कि जिस औलाद को पालनेपोसने के लिए आपने अपनी जवानी गंवा दी उसी औलाद के लिए आज आप बोझ हैं ।पुरानी कहावत है कि माँ बाप छह-सात बच्चों को पाल सकते हैं, पढ़ा लिखा सकते हैं, उच्चकोटि का काम या अच्छी नौकरी पाने के लिए दिन रात मेहनत कर सकते हैं लेकिन वही औलाद उनके उम्र दराज होने पर उनसे मुंह मोड़ लेती है,अवहेलना करती है,उपेक्षा करती है ।किसी ने सच ही कहा है कि इंसान की सबसे बड़ी दुश्मन उसकी अपनी औलाद ही होती है ।
उद्योगपति विजयपत सिंघानिया इसके जीते जागते उदाहरण हैं।अपने उद्योग और घर से उनके बेटे गौतम द्वारा बेदखली इस बात का सबूत है। अब वह अपनी पत्नी आशा बाई सिंघानिया के साथ निर्वासित जीवन जी रहे हैं -अमीरी से कंगाली का जीवन।आज वह हर माँ बाप को यही सलाह देते हैं कि औलाद के मोहपाश से बचें ।अपने पास और अपने नाम ज़रूर कुछ रखें । माँ बाप को यह भी सलाह देते हैं कि अपनी मौत से पहले संतान के नाम कुछ न करें ।उन्हें इस बात का बेहद दुख है कि उन्होंने बिना सोचे समझे सब कुछ अपने बेटे गौतम के नाम कर दिया ।36 मंजिला बिल्डिंग में गौतम सिंघानिया के पास माँ बाप के लिए जगह नहीं है ।वह कहते हैं कि अगर उन्होंने कुछ बचा कर न रखा होता तो हम पति पत्नी दोनों सड़क पर होते,इससे बेशक गौतम को सुकून मिलता ।पिछ्ले दिनों विजयपत सिंघानिया ने एक साक्षात्कर में कहा था कि गौतम के दिमाग में दौलत का नशा सवार हो गया है ।धन मतलब अहंकार और अकड़ तथा घमंड ।उसकी यह सोच है कि पैसे के बल पर वह सब कुछ भी खरीद सकता है ।हाल ही में गौतम ने अपनी 24 वर्षों से विवाहिता पत्नी नवाज़ मोदी सिंघानिया को भी तलाक दे दिया है ।इसे विजयपत सिंघानिया कुछ अनहोनी नहीं मानते और न ही विस्मयकारी खबर ।उनका कहना है कि नवाज़ ने अगर उनकी सहायता या सलाह मांगी तो ज़रूर देंगे।फिर बोले कि उसके पिता और भाई पाये दर्जे के ऐडवोकेट हैं और वह खुद भी,मुझे नहीं लगती कि किसी को मेरे परामर्श की
आवश्यकता होगी। उनका बेटा उनसे कभी मिलने के लिए नहीं आता । उन्होंने अपनी जीवनी भी लिखी है जिसे वह ‘सही,सटीक और बेबाक’ बताते हैं ।85 वर्षीय विजयपत सिंघानिया अपनी पत्नी आशाबाई के साथ मिलकर यह गाना गाते हैं: ‘जाने वे कैसे लोग थे जिनको प्यार से प्यार मिला,हम ने जब खुशियां मांगी काँटों का हार मिला। बिछड़ गया हर साथी देकर पल दो पल का साथ,किस को फुर्सत है जो थामे दीवानों का हाथ..’यह पूरा गाना उन्हें कंठस्थ है । इस व्यथा कथा की हाल ही एक कड़ी ‘सहाराश्री’ सुब्रत रॉय का निधन है। विदेश में रहने वाले उनके दोनों बेटों की इंतज़ार में उनके शव को दो दिनों तक सुरक्षित रखा गया इस आस पर कि चिता को मुखाग्नि वे देंगे लेकिन उन्होंने अपने पिता की मृत्यु पर भारत पहुंचने में अपनी असमर्थता व्यक्त की । लिहाजा चिता को मुखाग्नि सुब्रत राय के पौत्र ने दी ।आखिरी सफर में ‘सहारा’ को उनके बेटे ‘बेसहारा’ कर गये ।
‘पतझड़ में वसंत’ में भी कुछ ऐसी ही स्थिति है ।एक उच्च मध्यम परिवार की कहानी है जो परिवार के ‘मुखिया’ या ‘बड़े’ के आसपास पिरोयी गयी है ।कपूर साहब के भी दो बेटे हैं विजयपत सिंघानिया की तरह कमल किशोर और रमेश चंद्र ।कमल बड़े हैं ठेकेदार हैं,बिल्डर हैं और उन्होंने 20 मंजिला ‘कमल टॉवर’ बनाया है जिसकी 17वीं मंज़िल पर उनका परिवार रहता है ।उनकी बेटी और छोटे भाई रमेश के दो बेटे ।रमेश चंद्र राजनीति में हैं लेकिन बड़े भाई कमल ने उन्हें किसी के ऑफ़िस में सीईओ ‘फिट’ करवा रखा है ।कपूर साहब को एक छोटा सा कमरा दिया गया है जो लिफ्ट के सामने है और आने-जाने के लिए अलग दरवाज़ा है ।कपूर साहब की पत्नी मंजुला दिवंगत है ।उनकी तस्वीर के साथ ही वह अक्सर बातें करते रहते हैं ।बेटे यदाकदा उनकी सुध ले लेते हैं और पोते भी खड़े खड़े हाल चाल पूछ जाते हैं ।सुबह शाम पुराना नौकर गोलू खाना दे जाता है ।उनकी एक बेटी तारा है जिसने एक मुसलमान इरफ़ान से शादी कर रखी है ।शुरू शुरू में इस शादी का घर में खूब विरोध हुआ ।बाद में सब शांत हो गया ।कपूर साहब लाफ्टर क्लब के सदस्य हैं ।सुबह सुबह जाते हैं, हफ्ते में पांच बार।कभी कभी नहीं भी जा पाते ।एक मित्र रागनी है जो उसी टॉवर में रहती है ।वह ज़रूर उनका हालचाल पूछने आती है और आसपास की खबरें भी सुनाती रहती है । लेकिन अपने बेटो और बहुओं की बेरुखी उन्हें कभी कभी बहुत सालती है ।एक दिन वह क्या देखते हैं कि दोनों बेटे और बहुएं सजधज कर लिफ्ट से नीचे उतर रही हैं उनकी उपेक्षा करते हुए।कपूर साहब कुछ परेशान हुए ।बाल्कनी से नीचे झांका तो फूलों से सजी एक नयी कार सजी खड़ी थी ।उसे कई लोग देखने के लिए भी आ रहे थे, फ़ोटो वगैरह भी खींचे गये ।रागनी ने उन्हें बाद में बताया कि यह विशेष कार है जो बुलेटप्रूफ है, उस पर गोली भी असर नहीं कर सकती ।अब ठहरा बाप का दिल।कहीं बेटे को किसी से खतरा तो नहीं!
परिवार में रहते हुए भी कपूर साहब अकेले हैं ।यह अकेलापन उन्हें अक्सर खाने को दौड़ता है ।एक बार घर के नौकर गोलू के हाथ कपूर साहब अपने बेटे कमल किशोर को पर्ची भेजकर मिलने के लिए बुलाते हैं ।आने पर वह बेटे से अपनी नयी गाड़ी में घुमाने का इसरार करते हैं ।बेटा ले जाता है ।रास्ते में कार की खूबियां बताता है ।खुली सड़क देख कर तेज़ स्पीड से कार चलाता है जिसकी चपेट में एक कुत्ता आ जाता है ।बिना उसकी परवाह जब बेटा आगे निकल जाता है तो बाप बेचैन हो जाता है ।तेज स्पीड से वह कार में उल्टी कर देते हैं ।बेटा कार को एक तरफ़ खड़ी करके पिता को इस हिदायत के साथ नीचे उतार देता है कि यहां से उन्हें कोई सवारी मिल जायेगी जिसे पकड़ कर वह घर चले जायें जो यहां से ज़्यादा दूर नहीं ।और बेटा अपने बाप को यह कहकर चला जाता है कि उसे जल्दी किसी ज़रूरी मीटिंग में पहुंचना है, जो सच नहीं ।जहां कमल किशोर ने कपूर साहब को उतारा था वह सुनसान जंगल का इलाका था जहां से सवारी मिल पाना मुमकिन नहीं था ।दिशाहीन कपूर काफी देर तक सवारी का इंतज़ार करने के बाद वह यह सोच कर पैदल चलते हैं शायद आगे कोई रिक्शा, टैक्सी मिल जाये ।एक साइकिल सवार उन्हें अलबत्ता दीखता है हाथ देकर रोकने की कोशिश करते हैं लेकिन वह अपने दोनों कानो में ईयरपीस लगाये हुए था । अचानक वह थूकता है और उसकी वह थूक कपूर के चेहरे पर पड़ती है ।वह अकबका जाता है,मुंह से ‘कमीना’ शब्द निकलता है,इसके जवाब में साइकिल सवार बूढ़े की कमीज़ की कालर पकड़ कर मुक्के मारता है,बूढ़ा गिर जाता है,कपड़े धूल से सन जाते हैं,ऐनक कहीं गिर जाती है और नकली दांत कहीं और ।इस हादसे से वह हतप्रभ हो जाते हैं और सोचते हैं कि उनका कसूर क्या था।उस साइकिल सवार से वह यही तो पूछना चाहते थे कि वह सही दिशा की ओर जा रहे हैं कि नहीं ।इतने में उनकी नज़र दो लड़कों और एक लड़की पर पड़ती है जो सिगरेट से तंबाकू निकाल कर उसमें नशीली चीज़ डाल कर एक लड़की की तरफ़ बढ़ाते हैं ।इसे देख कपूर को अपने संस्कार याद आ जाते हैं । वह लड़कों को नशा करने से मना करते हैं और उसे एक थप्पड़ जड़ देते हैं और वह गिर पड़ती है ।बाद में वे सभी मिलकर कपूर की इतनी पिटाई करते हैं कि वह बेहोश हो जाते हैं और होश आने पर वह अपने आप को अस्पताल के बिस्तर पर पाते हैं।तभी उसे पता चलता है कि उसके बेटे द्वारा दिये गये पैसे कहीं गिर गये हैं और अंगूठीयां और गले की चेन गायब है ।बेहोशी में वह बड़बड़ा रहा है कि यह सब कमल किशोर की वजह से हुआ जिसे सुनकर छोटा बेटा रमेश चंद्र कोई प्रतिक्रिया करे उसके पहले ही बड़ा भाई अपने ज़रूरमंद भाई का मुंह बंद देता है, कोई प्रलोभन देकर ।
‘पतझड़ में वसंत’ एक दर्पण है ।इसमें बेशक उच्च मध्य वर्ग के परिवार के आसपास यह उपन्यास बुना गया है लेकिन इसके दायरे में उच्च वर्ग,मध्यम वर्ग और निम्न मध्य वर्ग भी अपना अक्स देख और महसूस कर सकता है ।उच्च वर्ग में विजयपत सिंघानिया और सुब्रत राय की ‘दुर्गति’ सार्वजनिक हो चुकी है ।त्रासदी देखिये की जिस औलाद की सुख और खुशी के लिए माता पिता क्या कुछ नहीं करते, कितनी कुर्बानियां देते हैं, उम्रदराज होने पर उसी औलाद के लिए माँ बाप उन पर भार बन जाते हैं। वे शायद यह भूल जाते हैं कि एक दिन बूढ़ा तो उन्हें भी होना है,उनकी संतान भी उनका ऐसा हश्र कर सकती है ।विजयपत सिंघानिया तो घर से बेखल हुए सुब्रत रॉय की न तो पत्नी और न ही उनके दोनों बेटे मुंबई पर बिस्तर पर पड़े उनका हालचाल पूछने आये और न ही उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए।
इस उपन्यास में कपूर साहब अपना दर्द, अपनी व्यथा अपनी दिवंगत पत्नी मंगला से साझा करते हैं जबकि सिंघानिया दम्पति गा कर । बेटों की बेरुखी और उपेक्षा तथा पोते पोतियों को दूर दूर से बात करना तो हर वर्ग के माँ बाप के लिए पीड़ादायक होता है लेकिन उनका दर्द समझने की फुर्सत किसके पास है । उनका अकेलापन सबसे बड़ी मुश्किल का बायस है । दूसरे पीढ़ियों के बीच का बुनियादी शिष्टाचार भी खत्म होता जा रहा है ।उम्र का भी लिहाज नहीं रहा ।एक वक़्त था जब युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों की सहायक हुआ करती जबकि आज की पीढ़ी को उम्र का बिलकुल लिहाज़ नहीं रहा ।ऐसा होता तो साइकिल सवार क्या उनपर थूक जाता ,गुस्सा करने पर धप्पड़ जड़ देता, कोई शर्म हया नहीं ।एक संस्कारी वृद्ध उनकी भलाई के लिए नशा करने वाले युवाओं को मना करता है तो इतनी धुनाई होती है जो उसे अस्पताल पहुंचा देती है ।शिष्टाचार,पुरातन मूल्यों और सिद्धांतों पर अमल न करने की मानो आज की युवा पीढ़ी ने कसम खा रखी हो।उनकी मौज मस्ती में खलल डालने और हस्तक्षेप करने वाला उन्हें सख्त नापसंद है ।
आजकल की औलाद के बारे में शहीद भगत सिंह सेवा दल के अध्यक्ष जितेन्द्र सिंह शंटी अपना व्यापार,घरबार छोड़ कर पिछ्ले 25 बरसों से शमशान घाट में रहते हुए समाज सेवा करते हैं ।वह ‘donor सिंह के नाम भी जाने जाते हैं ।वह दुनिया के पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने 100 बार से अधिक बार रक्तदान किया है और विश्व बुक के रिकार्ड्स में उनका नाम दर्ज है ।वह दिल्ली नगर निगम में पार्षद और विधान सभा में विधायक भी रह चुके हैं। हज़ारों वारिस और लावारिस शवों की अंत्येष्टि कर चुके हैं ।कोरोना काल में जब लोग अपने माँ बाप और रिश्तेदारों को हाथ लगाने से कतराते थे शंटी जी ने करीब 400 लोगों की अंत्येष्टि की अपने खर्च पर ।उनकी पत्नी और बेटों ने भी उनका पूरा साथ दिया। उनकी इस सेवा के लिए उन्हें ‘पदमश्री’ से भी नवाजा गया है ।
शंटी जी ने कुछ संतानों के बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी उदहारण दिये ।एक बार कोविड से मरने वाले एक व्यक्ति को शंटी जी अपनी एम्बुलेंस में अंत्येष्टि के लिए शमशान घाट ले जा रहे थे कि उनके एक बेटे ने अपने पिता के अंतिम दर्शन करने के लिए हमें रोका ।हम क्या देखते हैं कि दर्शन तो दूर उस बेटे ने आप बाप के हाथों की अंगूठियां उतारने के बाद दूर से हाथ जोड़ दिये ।एक और बेटा बाप की जेब से तिजोरी की चाबियां निकाल कर ले गया और बेटी अपनी माँ के कानों से बालियां । एक मिसाल तो इससे भी मार्मिक है । एक व्यक्ति ने अपने पिता का शव ले जाने के लिए एम्बुलेंस के लिए फोन किया।जब मैं पहुंचा तो उन्होंने थोड़ा रुकने के लिए कहा। 800 गज में बने वह किसी करोड़पति का घर था।जब करीब एक घंटे तक वे लोग अंदर से नहीं निकले तो मैंने किवाड़ पर दस्तक दी तो उन्हें एक दूसरे से बोलते हुए सुना कि पिता की वसीयत के मुताबिक वह अपनी सारी सम्पत्ति दान कर गये हैं हम लोगों को कुछ नहीं दिया है । अब उनकी अंत्येष्टि भी वही लोग करें,हम क्यों । उन्होंने शंटी जी से कहा कि आप तो लावारिस शवों की अंत्येष्टि करते रहते हैं इनकी कर दीजिये ।मैंने शव को एम्बुलेंस में रखा और अपने खर्च पर उस मृत व्यक्ति की अंत्येष्टि की ।मुझे यह भी पता चला कि उन बेटों ने अपने पिता का क्रियाकर्म भी नहीं किया ।अब ऐसी औलाद को आप क्या कहेंगे।मेरे ज़ेहन में गुरुवाणी का यह शबद कौंध गया ‘जगत में झूठी देखी प्रीत, अपने ही सुख सौं सब लागे,क्या दारा क्या मीत ”
इस सिलसिले में एक फिल्मी गाना भी याद आ जाता है: ‘रामचंद्र कह गये सिया से,ऐसा कलियुग आयेगा कि हंस चुगेगा दाना दुनगा, कौवा मोती खायेगा । धरम भी होगा करम भी होगा,परंतु शरम नहीं होगी बात बात में मात पिता को बेटा आंख दिखायेग।’
अकेलापन बुढ़ापे की आम शिकायत है ।इसे रोग भी माना जाता है । कुछ लोग परिवार में रहते हुए भी अपने आपको अकेला पाते हैं जैसे इस उपन्यास में कपूर साहब हैं जो अपनी पत्नी मंगला के निधन के बाद एकाकीपन महसूस करते हैं ।एकल परिवार ने संयुक्त परिवार को छिन भिन्न कर दिया है खास तौर पर महानगरों में ।हिन्दी के जाने माने साहित्यकार और पत्रकारिता में मेरे गरु श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय कहा करते थे कि आपकी कोई हॉबी या शौक हो तो आप कभी अपने आप को अकेला नहीं पायेंगे ।किताबों को अपना मित्र बनायें,चित्रकारी करें,नृत्य सीखें, गाने गानों में दिलचस्पी लें, हाथ का कोई हुनर हो तो उस पर अपना ध्यान लगायें जैसे बागबानी, खाना बनाना, योग और ध्यान करना आदि ।अपने आपको जितना व्यस्त रखेंगे न तो आलस्य आपके सामने फटकेगा और न ही अकेलापन महसूस होगा।आज की उन्नत प्रौद्योगिकी आपको व्यस्त रख सकती है ।उसे सीख लें।सीखने की न कोई सीमा होती है,न ही उम्र। इसके कई विकल्प उपन्यास में सुझाये भी गये हैं ।
इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा शीला जी को विदेश और देश के कुछ सीनियर सिटीजन होम्स को देखने से मिली ।मैंने भी अपनी विदेश यात्राओं में जर्मनी के फ्रैंकफर्ट,ब्रिटेन के लंदन,अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को,मियामी आदि नगरों में कई ओल्फ ऐज होम्स देखे जहां बुजुर्गों की सुबह तो आपस में खेलते, बतियाते गुज़र जाती है रात को वे भी अकेलापन महसूस करते हैं, ऐसा कुछ बुजुर्गों ने बताया ।ज़रूरी नहीं कि पश्चिमी देशों में सभी एकल परिवार ही हों ।मुझे अपनी अनेक विदेश यात्राओं में ब्रिटेन के
हडड्ल्सफील्फ, गिल्फर्ड, जर्मनी के बान, बेल्जियम के ब्रुसेल्स, अमेरिका में स्प्रिंगफ़ील्ड आदि शहरों में कई गोरे परिवारों में जाने का अवसर मिला जो हमारे यहां की तरह एक परिवार में ही रह रहे थे ।सभी बच्चे 16 बरस की उम्र में घरबार छोड़ कर नहीं जाते जैसी कि आम मान्यता है ।यह सही है कि उन देशों में सरकारों की तरफ़ से समाज कल्याण कार्यक्रमो के तहत बुजुर्गों की देखभाल के प्रबंध होते हैं लेकिन मानसिक और भावनात्मक सोच विचार उन्हें भी उद्वेलित करते रहते हैं इस का इलाज तो सरकार के पास नहीं ।
ऐसे ही मुझे अपने देश के भी कई वृद्धाश्रमो में जाने के अवसर मिले ।दिल्ली के अलावा और भी कई जगह ।हमारे देश में पश्चिमी देशों जैसी न सुविधाएँ हैं और न ही देखभाल के वैसे इंतजाम ।राजस्थान के विभिन्न शहरों और गांवों का मैंने करीब बीस बरस तक व्यापक दौरा किया ।समाजसेवी उद्यमी संजय डालमिया के डालमिया सेवा ट्रस्ट के तत्वावधान में आयोजित होने वाले चिकित्सा शिविरों में मैं उनके प्रतिनिधि के तौर पर जाया करता था ।आम तौर पर वहां लोग संयुक्त परिवार में ही रहते हैं बड़े प्रेम के साथ ।सीकर में दैनिक भास्कर के पूर्व स्थानीय संपादक कमल माथुर (अब दिवंगत) के घर कई बार जाने का मौका मिला ।उनके माता पिता ही नहीं बल्कि वे सभी भाई और उनका परिवार एक साथ रहते थे और परिवार में पूरी तरह से मतैक्य और खुशहाली थी । लेकिन बड़े नगरों यानी महानगरों में एकल परिवार सुनने में आ रहे हैं। जोधपुर में मुझे एक वृद्धाश्रम में जाने का अवसर मिला ।वहां बड़े बुजुर्गों के प्रति सेवादारों का सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार देख कर अच्छा लगा ।अचानक मेरी नज़र एक तरफ़ गयी तो देखा कि एक पति पत्नी अपने घर की तरह अलग रसोई बना कर रह रहे हैं ।उन्होंने बताया कि उन्होंने इस वृद्धाश्रम का एक कमरा खरीद लिया है जहां हम दोनों पति पत्नी रहते हैं ।यह पूछे जाने पर कि क्या आप भी अपने बच्चों के सताये हुए हैं तो उन्होंने सहास्य कहा,नहीं ।लेकिन आज जिस तरह की हवा चल रही है इससे पहले कि बेटे घर से निकालें हमने खुद ही अलग से रहने की व्यवस्था कर ली है ।वृद्धाश्रम में रहने को हमने इसलिए तरजीह दी क्योंकि सब लोगों के साथ रहने से बुढ़ापा ठीक से निकल जायेगा वरना हम अलग मकान लेकर भी रह सकते थे ।उन्होंने बताया कि राजस्थान में एकल परिवारो की बीमारी तेज़ी से बढ़ रही है विशेष तौर पर
महानगरों में।
‘पतझड़ में वसंत’ बुजुर्गों के लिए नायाब उपन्यास तो है ही, उन लोगों के लिए भी एक ‘नसीहत’ है जो इस उम्र की ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं ।कपूर साहब ठीक ही कहते हैं कि धन से सुख प्राप्त नहीं किया जा सकता इसके लिए मानसिक शांति आवश्यक है।ओशो ने भी कहा है कि हमारा मन जिस स्थिति में है,उससे विपरीत स्थिति की ओर प्रेरित करो ।उदासी और दर्द को हमें घेरने की आदत है ।वह हमें छोड़ना नहीं चाहता है पर कोशिश करते रहने पर वह छूटे न भी राहत तो मिल ही सकती है । उपन्यास में ओशो की सोच के इस अंश को उद्धृत किया गया है । कितनी सही सलाह है ।दूसरे यह सोचना भी गलत है कि बड़ी उम्र में आज की प्रौद्योगिकी नहीं सीखी जा सकती ।दुनिया तमाम ऐसे लोगों से भरी हुई है जो अपने ‘पैशन’ को तरजीह देते हुए नयी नयी बातें सीखते हैं और वे कभी अपनी हार नहीं मानते ।आप व्यस्त रहें और सक्रिय भी,देखिये आपको अपनी बढ़ती उम्र का अहसास तक नहीं होगा। उपन्यास जिस समस्या को लेकर शुरू होता है आखिर तक आते आते उसके समाधान के कई विकल्प भी सुझा जाता है । ‘पतझड़ में वसंत’ केवल बुजुर्गों के लिए ही नहीं हर उम्र के पाठक के लिए पढ़ना अनिवार्य है, ऐसा मेरा मानना है ।मैं तो इसे एक बार में ही पढ़ गया ।सहज,सरल,सरस और रोचक शैली आपको स्वतः ही यह उपन्यास पढ़ने को प्रेरित करेगी । 144 पृष्ठों की इस पुस्तक को वाणी प्रकाशन ने छापा है और इसका मूल्य है 299 रुपए ।