रात को मात्र दो घंटे नींद आई । अगले दिन भरी दोपहर तीन वाला शो देखना था फिल्म ‘केरला स्टोरी’ का । मैनेजर को बोला हुआ था इसलिए जाना जरूरी था। दिमाग घूम रहा था। परेशान था कहीं सिनेमा हॉल की ठंडक में नींद ही न आ जाए । हॉल खचाखच भरा था। ज्यादातर युवा लड़के लड़कियों से। ठीक तीन बजे फिल्म जो शुरु हुई इंटरवल के बाद से अंत तक न तो मुझे नींद आई न जरा सा कहीं शोर हुआ। पिन ड्राप साइलेंस में मिनट भर को भी कोई नहीं हिला। अपने एजेंडे में किस तरह कोई फिल्म सुपर डुपर हिट होती है यह निर्माता निर्देशक विपुल शाह और सुदीप्तो सेन से कोई पूछे जिन्होंने ममता बनर्जी से आत्मविश्वास भरे स्वर में निवेदन किया है कि एक बार हमारे साथ फिल्म देखें और बाद में जो हो तो उस पर खुल कर चर्चा करें।
न्यूज़ लॉन्ड्री का रिपोर्टर दिल्ली के एक सिनेमाघर पहुंच गया। शो के बाद जितने भी युवा मिले सभी ने एक स्वर से फिल्म की तारीफ की । रिपोर्टर हमारे विचार का हो और एक भी व्यक्ति फिल्म बुरी कहता न मिले ऐसा तो हो नहीं सकता, पर उस रिपोर्टर को ढूंढे से भी कोई नहीं मिला होगा। यह सब बताने का मतलब क्या है। लोग स्वयं सोचें। ‘उड़ी’, ‘कश्मीर फाइल्स’ और अब यह फिल्म – ये सब इस सरकार की एजेंडा फिल्में हैं। क्या ऐसी फिल्में जब बन रही होती हैं तब हमें पता नहीं चल पाता? इस फिल्म ने लगभग पूरे देश में सनसनी फैलाई है। कुल जमात ऐसे केस कितने होंगे या होते होंगे जिन पर फिल्म बनाई गई है। दस बारह पंद्रह लेकिन एक भी केस पर ऐसी फिल्म बना देना और देश का प्रधानमंत्री का उसको प्रमोट करना कितना खतरनाक और घातक है यह आने वाले महीनों में साफ दिखाई देगा । मोदी का एजेंडा अपनी नंगई में खुल कर हमारे सामने है। इस बार ‘सिनेमा संवाद’ में अमिताभ ने इस फिल्म के बहाने कट्टरता का विषय उठाया। चर्चा बहुत अच्छी थी। लेकिन केवल चर्चाओं से अब काम कहां चलने वाला है। सौम्या बैजल ने कहा अब सेक्युलर लोगों को ‘एग्रेसिव’ होना पड़ेगा। बात अच्छी है लेकिन कैसे । जो सेकुलर जमात कट्टर नहीं हो सकती वह एग्रेसिव कैसे होगी, किस रूप में होगी । खुल कर कैसे सामने आएगी । वे इसे भी स्पष्ट करतीं तो बेहतर होता। लेखक फिल्मकार विनोद पांडेय ने 2024 की ‘डिमार्केशन’ लाइन खींच दी। उन्होंने जो कहा वह आजकल सब जगह कहा जा रहा है। सब मानते हैं कि 2024 में यदि मोदी तीसरी बार आते हैं तो इस तरह के जलजले किस कदर उठेंगे और देश कहां पहुंचेगा कोई नहीं बता सकता। शायद आरएसएस भी नहीं। जवरीमल पारेख और धनंजय को सुनना भी दिलचस्प रहा। सौम्या को अपनी बात का खुलासा करना चाहिए था। लेकिन पूरी चर्चा में वह चिंता नजर नहीं आती जो आनी चाहिए थी । अमिताभ अपनी तरफ से तो विषय अच्छे उठाते हैं लेकिन अब वक्त आ गया है हर पैनलिस्ट से पूरे विषय का निचोड़ जाना जाए और यह केवल ‘सिनेमा संवाद’ की ही बात नहीं है सभी चर्चाओं में अनिवार्य कर देना चाहिए। ऐसे ऐसे मूर्ख मैंने देखें हैं जो मोदी शासन में अतीत की सरकारों के इस सरकार से तुलना करते हुए पोथे लेकर बैठ जाते हैं।
संतोष भारतीय ने इस बार अपने किसी मित्र के सवाल पर अभय दुबे को बहुत लंबा खींच लिया। वह मित्र कौन है उसका नाम संतोष जी को जरूर उजागर करना चाहिए क्योंकि कई बार संतोष जी ने अपने कार्यक्रम में हमारा नाम लिया है इसलिए कोई हमें ही न समझ बैठे। पिछले दो तीन बार से संतोष जी सवालों की झड़ी लगाए दे रहे हैं। क्या ही बेहतर हो कि एक एक कर सवाल पूछे जाएं । उससे अभय जी संतुलित जवाब देंगे। दो तीन बातें अभय जी की काबिले गौर हैं। जैसे दो हजार के नोट और कालेधन पर बोलते हुए उन्होंने कहा सबसे ज्यादा कालाधन तो इलैक्टोरल बांड के रूप में भाजपा के पास है। दूसरी बात, देश के कॉरपोरेट ईलीट में मोदी को लेकर एकता बन गई है। तीसरा, अडानी के मसले पर विपक्ष सुप्रीम कोर्ट की ओर क्यों देख रहा है। चौथी बात जो उन्होंने महत्वपूर्ण कही कि इस सरकार का सबसे बड़ा खेल यही है कि हर समय ‘फील गुड’ चलाते रहो। इतिहास में यह सरकार सर्जिकल स्ट्राइक वाली सरकार कहलाई जाएगी जो हर चीज पर सर्जिकल स्ट्राइक करना चाहती है।
एक चर्चा मजेदार हुई। अडानी को क्लीन चिट वाले मसले पर आलोक जोशी ने राजीव रंजन सिंह और हर्षवर्धन त्रिपाठी को बुलाया। दोनों के तर्क एक दूसरे के विरोधी थे। दोनों एक दूसरे को काट रहे थे। ऐसे में आलोक जोशी की लाइट चली गई और वे गोल हो गये । बड़ा मजेदार रहा। रवीश कुमार का वह शो याद हो आया जिसमें स्क्रीन को ब्लैक कर दिया गया था। हमारी सबसे यह अपील रहेगी कि बीजेपी कांग्रेस को तू तू मैं मैं के लिए न भी बुलाएं तो ऐसे लोगों को जरूर बुलाएं जो सीधे सीधे पार्टी के नहीं लेकिन विपरीत विचार के हों। वरना तो अब सारी चर्चाएं उबाऊ हो चली हैं।
ताना बाना की बहस में शरीक होने वाली अनीता भारती बिना विषय को समझे ही अपने तर्क दे रही थीं जबकि विषय बहुत दिलचस्प था। ‘फरमाइश पर लेखन कितना सही’ । वे समझीं जैसे आलोचना या समीक्षा के लिए मित्रों और प्रकाशकों से जो पुस्तकें आती हैं उन पर लेखन की बात है।
अनिल त्यागी अपने ‘जी फाइल्स’ में ‘जन मन गण’ नाम से नया और अद्भुत कार्यक्रम लेकर आये हैं स्वागत करना चाहिए।
तो कुल मिलाकर यह कि सेक्युलर लोगों को अब आक्रामकता से अपनी बात कहनी चाहिए। सौम्या जी का जवाब आने पर इसका और खुलासा होगा।
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