हमारा यह 72 वाँ गणतंत्र-दिवस पिछले सभी गणतंत्रों-दिवसों से अलग है। क्या हमने कभी 26 जनवरी को दो-दो परेड एक साथ निकलते हुए देखी है? नहीं, कभी नहीं। लेकिन इस बार निकल रही है। हमेशा की तरह सरकारी परेड तो इंडिया गेट पर होगी ही लेकिन दिल्ली से सटे इलाकों में किसानों की ट्रेक्टर परेड भी होगी। पता नहीं, कौनसी परेड जनता का ध्यान ज्यादा खींचेगी ? सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली की पुलिस पर इस परेड को टाला लेकिन पुलिस ने थोड़ी हिचकिचाहट के बाद अपनी अनुमति दे दी।

इसका श्रेय तो सरकार को ही जाएगा। गृह मंत्रालय की स्वीकृति के बिना किसानों को यह अनुमति कैसे मिलती ? किसानों ने अहिंसक सत्याग्रह का अपूर्व उदाहरण पेश किया है। अपनी जान की परवाह किए बिना वे दिल्ली की इस भयंकर ठंड में डटे हुए हैं। लगभग डेढ़ सौ किसान दिवंगत भी हो गए हैं। किसानों के तंबुओं की सुविधाएं, रोगियों के इलाज के इंतजाम और उत्तम भोजन आदि की सेवाएं देखकर दुनिया का कोई भी आंदोलनकारी दंग रह जाएगा। पंजाब और हरयाणा के इन दमदार और मालदार किसानों के साथ अब उप्र, मप्र, महाराष्ट्र आदि के साधारण किसान भी इस गणतंत्र को किसानतंत्र का रुप देने पर जुट गए हैं।

किसान नेताओं को यह श्रेय भी है कि उन्होंने राजनैतिक दलों को अपने पास फटकने तक नहीं दिया। शायद यही कारण है कि यह आंदोलन अब तक मर्यादापूर्ण, अहिंसक और अनुशासित रहा है। इसका अर्थ यह नहीं कि हमारे विपक्षी राजनीतिक दल उदासीन हैं। वे सरकार-विरोधी बयानबाजी बराबर कर रहे हैं। जो अपने घोषणा-पत्रों में इसी तरह के कृषि-कानून बनाने के वायदे कर रहे थे, वे भी किसानों को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। लेकिन यदि किसान अपनी लीक पर चलते रहे और उनकी ट्रेक्टर-परेड शांतिपूर्वक संपन्न हो गई तो वे भारत की जनता की सराहना तो अर्जित करेंगे ही, सरकार का रुख भी उनके प्रति थोड़ा और नरम पड़ेगा।

सरकार ने पिछले संवादों में उनकी दो मांगें तो तत्काल मान ली थीं, वायु-प्रदूषण और बिजली बिल के मुद्दों पर! अब किसानों पर वह कानून लागू नहीं होगा, जिसके अनुसार पराली जलाने पर उन्हें पांच साल की सजा और एक करोड़ रु. तक का जुर्माना हो सकता था। इसी तरह बिजली के बिलों पर उन्हें मिलनेवाली रियायतें भी जारी रहेंगी। लेकिन किसान कहते हैं कि उनकी असली मांग तो यह है कि तीनों कृषि—कानूनों को वापस लिया जाए।

किसानों के जबर्दस्त आग्रह के सामने सरकार झुकी जरुर है। वरना, वह डेढ़ साल तक के लिए इन कानूनों को स्थगित क्यों करती? सरकार की यह घोषणा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के मुकाबले कहीं अधिक सार्थक है। अदालत ने चार विशेषज्ञों की एक कमेटी बना दी थी, किसानों से बातचीत करने के लिए। अदालत ने किससे पूछा ? क्या किसानों से पूछकर वह कमेटी बनाई थी ? उन चारों विशेषज्ञों की निष्पक्षता पर भी किसानों को संदेह था लेकिन अब सरकार कह रही है कि वह एक ऐसी संयुक्त कमेटी बनाएगी, जिसमें किसानों और सरकार के प्रतिनिधि भी होंगे और वे कानून की हर धारा पर गहराई से विचार करेंगे। वे सर्वसम्मति से जो संशोधन सुझाएंगे, सरकार उनके मुताबिक कानून बनाएगी।

सरकार का यह प्रस्ताव तर्कसंगत और मध्यममार्गी लगता है लेकिन किसान नेताओं का सरकार से मोहभंग हो गया है। उन्हें डर है कि संयुक्त संवाद में सहमति नहीं उभरी तो यही कानून उन पर दुबारा थोप दिया जाएगा और फिर किसानों को इतनी बड़ी संख्या में दुबारा जुटाना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। सरकार का सोचना है कि पंजाब और हरयाणा के मुट्ठीभर मालदार किसान गलतफहमी के शिकार हो गए हैं। उन्हें लगता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर वे अपना धान और गेहूं सरकार को बेचकर जो लाखों-कारोड़ों रु. कमाते हैं, वह व्यवस्था डूब जाएगी जबकि सरकार की मन्शा है कि खेती में भारी पूंजी लगाई जाए, उसका आधुनिकीकरण किया जाए, उसे कई गुना बढ़ाया जाए और भारत अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में अपनी उपज की धमक बनाए। 94 प्रतिशत गरीब किसानों की स्थिति में भारी सुधार लाया जाए।

एक-दूसरे के बारे में बेमेल विचार रखने के बावजूद अभी तक किसानों और सरकार ने भी अपूर्व संयम और मर्यादा का परिचय दिया है। यदि 26 जनवरी की यह ट्रेक्टर-परेड शांतिपूर्वक निपट जाती है तो उसके बाद सरकार यह घोषणा क्यों नहीं कर देती है कि संविधान के अनुसार कृषि तो राज्यों का विषय है। अतः तीनों कृषि-कानूनों को जो राज्य लागू करना चाहें, वे करें और जो न करना चाहें, वे न करें। पंजाब और हरयाणा के किसानों की जीत हो जाएगी और जो भाजपा राज्य इन्हें लागू करना चाहें, वे कर दें।

अगले दो-तीन साल में यदि इन राज्यों में ये कानून लाभप्रद सिद्ध हुए तो सभी राज्य इन्हें अपने आप लागू कर देंगे। केरल की कम्युनिस्ट सरकार की तरह केंद्र सरकार 23 उपजों के साथ-साथ फलों और सब्जियों पर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित क्यों नहीं कर देती है ? उससे छोटे किसानों को भी फायदा होगा। समर्थन मूल्य को कानूनी रुप देना ठीक नहीं होगा, क्योंकि उससे कम पर खरीदनेवाले को सजा होगी तो बेचनेवाले को उससे पहले होगी। असहाय-निरुपाय किसानों को आप थोक में जेल क्यों भिजवाना चाहते हैं? उपजों के सरकारी मूल्य आदर्श-मूल्य रहें, यही काफी है।

सरकार और किसानों की संयुक्त समिति बन जाए तो वह इन तीनों कृषि कानूनों में अपेक्षित सुधार तो कर ही दे लेकिन उसके विचार का मुख्य विषय यह होना चाहिए कि देश के 94 प्रतिशत औसत किसानों (सिर्फ बड़े जमींदारों को ही नहीं) को संपन्न और समर्थ कैसे बनाया जाए ? उनकी उपज को दुगुनी-चौगुनी करके भारत को विश्व का अन्नदाता कैसे बनाया जाए ? सामान्य किसानों की अधिक से अधिक आर्थिक मदद कैसे की जाए ? खेती के नाम पर टैक्स-चोरी को रोकी जाए और लखपति-करोड़पति किसानों से टैक्स वसूल करके छोटे किसानों को क्यों नहीं बांटा जाए?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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