ब्याज आधारित कर बोझ के तले दबी हुई दुनिया में पिछले दिनों महाराष्ट्र के सोलापुर में सहकारिता, विपणन व कपड़ा मंत्री सुभाष देशमुख के लोकमंगल कॉपरेटिव बैंक की बाश्री शाखा में सरकार द्वारा स्वीकृत पहली इस्लामिक बैंकिंग सेवा शुरू हुई. पूरे देश में हर वर्ग के लोगों ने बिना किसी धार्मिक भेदभाव के इसका स्वागत किया. इसकी खासियत यह है कि यहां से कर्ज लेने वाले किसी भी शख्स को ब्याज नहीं देना होगा. आइए देखते हैं ब्याज पर आधारित कर्ज व्यवस्था की क्या परेशानियां हैं और एक भाजपा नेता द्वारा की गई इस पहलकदमी की इस देश में आगे बढ़ने की क्या उम्मीदें हैं?
ब्याज किसी व्यक्ति, समाज या देश को किस तरह बरबाद कर देता है, यह किसी से छिपा नहीं है. इसके दो अलग-अलग उदाहरण सामने हैं. उत्तर प्रदेश के एक इंजीनियर हैं मोहम्मद रईस. लगभग चालीस साल पूर्व उन्होंने आईआईटी कानपुर से बीटेक (मैकेनिकल) किया. उन्होंने लघु उद्योग मंत्रालय (स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज) से लोन लेकर लोहे का तार बनाने वाली एक छोटी सी फैक्ट्री खोली. उनका स्वभाव व्यावसायिक के बजाय बौद्धिक ज्यादा था, जिसकी वजह से फैक्ट्री नहीं चल पाई और फिर सरकारी विभाग से लिए गए कर्ज के कारण ब्याज दर ब्याज चढ़ता रहा. आखिरकार नतीजा यह निकला कि इंजीनियर रईस जैसा बुद्धिमान व्यक्तिन घर का रहा, न घाट का. बेहतरीन तकनीकी जानकारी, बौद्धिक और सैद्धांतिक क्षमता होने के बावजूद उनकी पूरी जिंदगी दांव पर लग गई. दूसरी तरफ जिस संस्था से वे अपने छात्र जीवन से जुड़े थे, वहां से इसलिए निकाल दिए गए क्योंकि कि उन्होंने ब्याज पर आधारित कर्ज लिया था. उसी तरह का एक दूसरा उदाहरण बिहार में दरभंगा के स्वर्गीय मोहम्मद इस्माइल का है. फैजाबाद के मूल निवासी इस्माइल ने दरभंगा में 1960 में बैंक से कर्ज लेकर जूते का एक शोरूम (चैंपियन) खोला और जल्द ही शहर के बड़े व्यापारी बन गए. जब कुछ वर्षों बाद वे समय पर कर्ज नहीं चुका पाए, तो बैंक के कर्मचारियों ने दुकान पर ताला लगा दिया. देखते-देखते वे सड़क पर आ गए. उनका भी हश्र कमोबेश इंजीनियर रईस जैसा हुआ. फर्क सिर्फ इतना था कि उनके बेटे ने पढ़-लिखकर घर संभाल लिया, वहीं अविवाहित होने के कारण इंजीनियर रईस की आर्थिक स्थिति लड़खड़ा गई.
ब्याज आधारित कर्ज के तले दबने वाले कई देश भी हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक से लिए गए ब्याज आधारित कर्ज के मारे दस देश हैं, जिनमें अमेरिका सबसे ऊपर है. इस साल की शुरुआत में व्हाइट हाउस के सलाहकार आस्टिन ग्लेस्बी ने चेतावनी दी थी कि अगर नुकसान का यही हाल रहा, तो इसका हमारी अर्थव्यवस्था पर भयानक असर होगा. मेरा ख्याल तो ये है कि 2008 में हम लोगों ने जिस आर्थिक मंदी को देखा था, उससे भी अधिक खराब स्थिति हो सकती है.
इस संबंध में नाइजीरिया सबसे बदहाल स्थिति में है. अमेरिकी चौधराहट और अंतरराष्ट्रीय सहयोग विषय पर अपनी किताब में कार्ला नार्लोफ कहते हैं कि 2000 में ओकिनावा में आयोजित जी-8 सम्मेलन के दौरान नाइजीरिया के राष्ट्रपति ओलो सेगेन ओबा सांजो ने खुले तौर पर कहा था कि अगर आप मुझसे पूछेंगे कि दुनिया में सबसे खराब चीज क्या है, तो मैं कहूंगा कि चक्रवृद्धि ब्याज. राष्ट्रपति ने तब खुलासा किया था कि हम लोगों ने 1985 या 1986 में करीब पांच अरब अमेरिकी डॉलर कर्ज लिया था. हम अब तक यानी वर्ष 2000 तक ब्याज दर ब्याज के कारण सोलह अरब अमेरिकी डॉलर अदा कर चुके हैं. हमसे कहा गया है कि हमें 28 अरब डॉलर और अदा करना बाकी है. इस स्थिति ने नाइजीरिया की अर्थव्यवस्था को तोड़ कर रख दिया और वह देश भुखमरी और भ्रष्टाचार का अड्डा बन गया है. शाह अब्दुल अजीज विश्वविद्यालय, जद्दा में इस्लामिक इकोनॉमिक इंस्टीट्यूट (आईईआई) के प्राध्यापक डॉ. कलीम आलम ने चौथी दुनिया से कहा कि किसी मुल्क की अर्थव्यवस्था पर ब्याज का इससे ज्यादा बुरा प्रभाव और क्या पड़ सकता है?
जहां तक हमारे देश का मामला है, यहां भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है. राष्ट्रीय बजट, बैकिंग सेवा और कॉस्ट अकाउंटिंग के विशेषज्ञ बकार अनवर ने चौथी दुनिया को बताया कि 2016-2017 के राष्ट्रीय बजट में 284 हजार करोड़ रुपए कर्ज की राशि रखी गई थी, जबकि 493 हजार करोड़ रुपये ब्याज के तौर पर अदा किए जाने थे. इस तरह दोनों राशि मिलाकर कुल 777 हजार करोड़ रुपए हुए. राजस्व कर और गैर राजस्व कर की आमदनी से हासिल रसीदों का राजस्व 1377 हजार करोड़ रुपये हुआ, कर्ज की अदायगी के लिए मुहैया फंड की सर्विसिंग इस आमदनी की 56 फीसद हुई.
बकार अनवर के मुताबिक इसकी गंभीरता इस हकीकत से समझी जा सकती है कि 534 हजार करोड़ रुपये ताजा कर्ज के मुकाबले पिछले कर्ज की अदायगी कर ब्याज 493 हजार करोड़ रुपये अदा करना होगा. दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ताजा कर्जों के 92 प्रतिशत हिस्से का इस्तेमाल पिछले कर्जों की वार्षिक किस्त और सूद की अदायगी के लिए होना है. यह बात कह सकते हैं कि हम नया कर्ज दरअसल पुराने कर्ज की एक साल की किस्त और सूद अदा करने के लिए लेते हैं. लिहाजा हिंदुस्तान की पृष्ठभूमि में या सूद का अभिशाप इतना भयानक हो गया है, जिसका अंदाजा गहराई से सोच-विचार करने पर होता है. सवाल है कि आखिर सूद की यह व्यवस्था हमारे देश की अर्थव्यवस्था को कहां लेकर जा रही है?
किसी भी व्यक्ति, समाज या देश के लिए उधार लेना-देना बुरा समझा जाता है, लेकिन ब्याज अर्थव्यवस्था का अटूट हिस्सा होने की वजह से जरूरत पड़ने पर कोई भी कर्ज लेने से डरता है. यही वजह है कि किसी भी धर्म या पंथ से संबंध रखने वाले व्यक्ति की नजर जब ब्याज रहित बैकिंग की अवधारणा पर पड़ती है, तो वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है और उससे स्वाभाविक रूप से फायदा उठाना चाहता है. लिहाजा पिछले दिनों महाराष्ट्र के भाजपा नेता और सहकारिता, विपणन व कपड़ा मंत्री सुभाष देशमुख ने जब अपने लोकमंगल कॉपरेटिव बैंक की बाश्री शाखा में देश की पहली इस्मालिक बैंकिंग सेवा शुरू करने का औपचारिक ऐलान किया, तो कई लोग इसी बैंक के किसी खाताधारी की जमानत की बुनियाद पर ब्याज रहित कर्ज लेने दौड़ पड़े. पहले दिन 12 लोगों को एक लाख पचास हजार रुपए का ब्याज रहित कर्ज मिला.
इसकी पृष्ठभूमि यह है कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में इस्लामिक बैंकिंग शुरू करने की बात कही थी. रिजर्व बैंक ने केंद्र सरकार के समक्ष कुछ दिनों पहले इस तरह की बैंकिंग का प्रस्ताव रखा था. केंद्र सरकार ने उसे 11 सितंबर को स्वीकृति दे दी थी. इस तरह की ब्याज रहित बैकिंग सेवा की सबसे ज्यादा मुखालफत भाजपा के नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी करते रहे हैं. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि उन्हीं की पार्टी के सुभाष देशमुख ने इस्मालिक बैंकिंग सेवा की घोषणा की. इसके साथ ही शुरू हुआ ब्याज रहित कर्ज मुहैया कराने का सिलसिला. वैसे छोटे स्तर पर कोई कीमती चीज गिरवी रखकर ब्याज रहित कर्ज लेने का प्रचलन देश के अलग-अलग हिस्सों में है. जमात-ए-इस्लामी हिंद के मरकज़, चितली कब्र (दिल्ली), में भी 1980 के दशक में ब्याज रहित बैंकिग सोसायटी स्थापित की गई थी, जहां से मुस्लिम व गैर मुस्लिम अपनी सोने-चांदी की चीजें गिरवी रखकर कर्ज हासिल करते थे और निर्धारित समय पूरा होने पर रकम वापस करने के बाद अपनी चीजें वापस ले लेते थे. इस सोसायटी के प्रमुख स्वर्गीय मुबारक शाह थे. अब यह सिलसिला बंद हो गया है, लेकिन सुभाष देशमुख का यह प्रयोग कीमती चीजों की गिरवी पर नहीं है, बल्कि उसी बैंक के किसी खाताधारी की दी गई जमानत पर किया जा रहा है.
सुभाष देशमुख ब्याज रहित बैंकिंग की अवधारणा से बहुत प्रभावित हैं. उन्होंने दूसरी सोसायटियों और बैंकों से इस सिलसिले में उनकी पैरवी करने और इस ब्याज रहित व्यवस्था को अख्तियार करने की गुजारिश की है. उन्होंने यहां तक कह दिया कि वह रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और सरकार से भी कहेंगे कि वो बेमिसाल और लाभकारी इस बैंकिंग सेवा को स्वीकृति दे दें, जिससे सभी लोग खासकर गरीब और हाशिए पर रह रहे लोगों को फायदा मिल सके. उम्मीद है कि महाराष्ट्र के मंत्री की यह पहल, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन के अवसर पर शुरू की गई, वित्त और बैंकिंग के क्षेत्र में नए दौर की शुरुआत करेगी और सबका साथ, सबका विकास के नारे को अमलीजामा पहनाने में मददगार साबित होगी.
नेशनल कमिटी ऑन इस्लामिक बैंकिंग और इंडियन सेंटर फॉर फाइनेंस के महासचिव एच. अब्दुर्रकीब चौथी दुनिया से बात करते हुए कहते हैं कि ब्याज रहित इस्लामिक बैंकिंग की अवधारणा ने आम और खास लोगों में जागरूकता पैदा की है. गौरतलब है कि पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी के सऊदी अरब दौरे के समय कुछ बड़े आपसी समझौतों पर दस्तखत हुए, जिनमेंें से एक यह है कि एक्ज़िम बैंक ऑफ इंडिया के जरिए ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कॉन्फ्रेंस(ओआईसी) के सदस्य देशों के लिए भारतीय निर्यातकों को सौ मिलियन अमेरिकी डॉलर मुहैया कराया जाएगा और दूसरा यह कि आईसीडी, जो इस्लामिक बैंक के अंदर काम करने वाली संस्था है, इसके जरिए एसएमई के विकास के लिए दो सौ करोड़ रुपये की पूंजी पर एक नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कॉर्पोरेशन, एनबीएफसी स्थापित करेगी. उम्मीद है कि यह चालू वर्ष के आखिर तक शुरू हो जाएगा. ब्याज आधारित अर्थव्यवस्था और ब्याज रहित इस्लामी अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा फर्क यह है कि पहली व्यवस्था पूंजीवादी सिस्टम को बढ़ावा देती है और दूसरी लोकतांत्रिक मूल्यों और पद्धति पर आधारित है. ब्याज पर आधारित व्यवस्था में बहुत से लोगों के पैसे कुछ लोगों के हाथों में आ जाते हैं, जबकि ब्याज रहित इस्लामिक व्यवस्था में लाभ और हानि दोनों में कर्ज लेने वाला और देने वाला दोनों बराबर के हिस्सेदार होते हैं. यानी यह एक ऐसी व्यवस्था है, जो समावेशी है. इस लिहाज से यह सामाजिक न्याय की जरूरत को भी पूरा करता है और लोकतंत्र को मजबूती देता है, जो भारत के संविधान के मुताबिक है. आशा है कि सोलापुर का यह पहला प्रयोग देश में इस्लामिक बैंकिंग की राह को और आसान करेगा औऱ लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करेगा.
क्या है इस्लामिक बैंकिंग
शरियत के उसूलों पर काम करने वाले बैंकिंग व्यवस्था को इस्लामी बैंकिंग कहा जाता है. इसमें किसी तरह का ब्याज न लिया जाता है और न दिया जाता है. इसमें बैंक को होने वाले लाभ को उसके खाताधारियों में बांट दिया जाता है. इस व्यवस्था में बैंकों के पैसे गैरइस्लामी यानी अनैतिक कार्यों में नहीं लगाए जा सकते हैं. ये बैंक या सोसायटी जुए, शराब, बम, बंदूक वगैरह के कारोबार में शामिल लोगों का न खाता खोलते हैं और न ही उन्हें कर्ज देते हैं. कुछ देशों में इस तरह के बैंकों को चलाने के लिए इस्लामिक बैंकिंग-इस्लामी वित्त विशेषज्ञों की एक कमिटी होती है, जो उनका नेतृत्व करती है. आज विश्वस्तर पर इस्लामिक फाइनेंस इंडस्ट्री का दायरा बढ़कर 1.6 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर हो गया है. आधुनिक दौर में दुनिया में सबसे पहला इस्लामिक बैंक मलेशिया में स्थापित हुआ था. इस्लामिक बैंकिंग स्कीम के तहत 1993 में कॉमर्शियल, मर्चेंट बैंकों और वित्तीय कंपनियों ने इस्लामिक बैंकिंग प्रॉडक्ट एंड सर्विसेज पेश करना शुरू किया था. भारत में ब्याज रहित बैंकिंग के सबसे बड़े विशेषज्ञों में डॉ. मोहम्मह निजातुल्लाह सिद्दिकी, स्वर्गीय डॉ. फजलू रहमान फरीदी, डॉ. मोहम्मद मंजूर आलम, डॉ. एमएच खटके, डॉ. ए हसीब, डॉ. शारिक निसार और प्रोफेसर जावेद अहमद खान के नाम विशेष रूप से लिए जा सकते हैं. इन लोगों ने इस्लामिक बैंकिंग के अलग-अलग पहलुओं पर किताबें लिखी हैं.