सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन को खारिज कर दिया है, जो वहां के राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा की रिपोर्ट पर केंद्र सरकार ने लगाया था. राजखोवा पूर्व में एक अच्छे नौकरशाह रहे हैं. मेरा मानना है कि आर्टिकल 356 की समस्याओं का पूर्ण विश्लेषण होना चाहिए और इसके इस्तेमाल में संतुलन बनाए रखने का समाधान निकाला जाना चाहिए.
एनटी रामाराव और कई अन्य पार्टियों ने यह मांग की थी कि आर्टिकल 356 और राज्यपाल के पद को समाप्त कर देना चाहिए. मेरे अनुसार एक चुनी हुई सरकार बहुमत से सत्ता में आती है और अगर बहुमत खोती है तो सीधे चुनाव में जाना चाहिए. सरकार को बर्खास्त करने का सवाल ही नहीं उठता है. दूसरा मुद्दा ये है कि केंद्र सरकार अपने अधिकार का इस्तेमाल तभी करे, जब ऐसा करना अति आवश्यक हो. मेरे अनुसार से आर्टिकल 356 को खत्म करने का विचार सही नहीं है. इसे विद्रोह की स्थिति या देश की अखंडता को नुकसान पहुंचाए जाने से बचने के लिए बनाकर रखना चाहिए. हालांकि इसका निर्णय कौन करेगा कि कोई राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुरूप कार्य कर रही है या नहीं? यह उचित नहीं होगा कि एक कानून बना कर यह तय कर दिया जाए कि लोग किस तरीके से व्यवहार करें. यह कोई आज की समस्या नहीं है. नेहरू के समय (1959 में) केंद्र सरकार ने केरल की सरकार को बर्खास्त कर दिया था, तभी से आर्टिकल 356 के दुरुपयोग के आरोप लगने शुरू हो गए थे. लेकिन वह उस वक्त की एक अकेली घटना थी. दिक्कत तब शुरू हुई, जब दल-बदल में तेजी आई. सरकारिया कमेटी ने भी कहा था कि कोई सरकार बहुमत में है या नहीं, इसका सही निर्धारण सदन के भीतर (फ्लोर ऍाफ द हाउस) ही हो सकता है. समस्या तब शुरू हुई जब विधायकों का समूह राज्यपाल से मिलने जाने लगा और राज्यपाल को यह महसूस होने लगा कि अमुक सरकार ने अपना बहुमत खो दिया है. जबकि राज्यपाल के लिए उचित रास्ता ये होता कि वेे मुख्यमंत्री को बुला कर कहें कि आप विधानसभा सत्र बुला कर अपना बहुमत साबित करें.
अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल ने खुद विधानसभा का सत्र बुला लिया और खुद एजेंडा तय कर दिया. निश्चित तौर पर यह काम असंवैधानिक और उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर का था. केंद्र सरकार आर्टिकल 356 के अन्य प्रावधानों के तहत बिना राज्यपाल की रिपोर्ट मिले भी अरुणाचल सरकार को बर्खास्त कर सकती थी. केंद्र सरकार ने बिना कोई उत्तरदायित्व लिए और सारा भार राज्यपाल पर डालते हुए यह फैसला लिया था. जाहिर है, इससे राज्यपाल की छवि को धक्का लगा. यह सही नहीं है.
राजनेताओं को अपने लिए राजनीति में जिस लक्ष्मण रेखा को खींचना चाहिए, वे वैसी रेखा नहीं खींच पा रहे हैं. जाहिर है ऐसे में न्यायपालिका को अनुशासन की सीख देने की जरूरत पड़ रही है. यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए उचित नहीं है. न्यायपालिका हमेशा विधायी कार्यों में दखल दे, ये एक लोकतांत्रिक देश के लिए बेहतर नहीं कहा जा सकता है. उत्तराखंड और अब अरुणाचल के कटु अनुभव के बाद मैं उम्मीद करता हूं कि भाजपा को यह बात समझ में आ गई होगी कि राजनीति में सीमा रेखा लांघने से अपना नुकसान ही होता है. इससे उनकी विश्वसनीयता को भी फायदा नहीं पहुंचने वाला है. भाजपा खुद को पार्टी विद डिफरेंस मानती है. उनके नेताओं ने कई बार कहा है कि वे पिछले 60 साल में कांग्रेस के द्वारा किए गए कार्यों के ठीक उलट काम करेंगे. लेकिन असल में वे कांग्रेस की ही नकल कर रहे हैं. हर दिन वे वही सब कर रहे हैं, जो पहले कांग्रेस ने किया. 2014 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने दिल्ली विधानसभा का चुनाव कराने के लिए लंबा इंतजार किया. आखिरकार चुनाव हुआ. लोगों ने उन पर विश्वास नहीं किया और केजरीवाल को 70 में से 67 सीटें हासिल हुईं. बिहार में भी उन्होंने वही सब किया और उन्हें वहां भी पराजय का मुंह देखना पड़ा.
जाहिर है, कांग्रेस अभी अपने बुरे दौर से गुजर रही है, लेकिन भाजपा भी अवसर खोती जा रही है. भाजपा को कार्य करने के लिए एक स्पष्ट बहुमत मिला है. उसे राजनीति में नए मानक स्थापित करने चाहिए. गलत चीजों को सुधारना चाहिए. ये सब करने के बजाय भाजपा, कांग्रेस के रास्ते पर ही चलती दिख रही है. उन्हें लगता है कि सत्ता ही सब कुछ है. उन्हें यह समझना चाहिए कि पूर्वोत्तर या किसी छोटे राज्य में सत्ता का कोई मतलब नहीं है. ये राज्य अपने रोड रेवेन्यू से जुड़े खर्च का दस फीसदी से भी कम इकट्ठा कर पाते हैं और बाकी 90 फीसदी के लिए केंद्र पर निर्भर होते हैं. दल-बदल से कहीं भी सरकार बनाना गलत है और खास कर पूर्वोत्तर के छोटे राज्यों में सत्ता पाने की लालच में ऐसा करना और भी बुरा है. इससे अनावश्यक अस्थिरता फैलती है. उम्मीद करते हैं कि इस फैसले की उचित समीक्षा की जाएगी. सरकार अपने लिए खुद कुछ पैरामीटर्स तय करेगी कि राज्यपाल को कैसे अपना दायित्व निभाना चाहिए, ताकि इस पद की विश्वसनीयता व साख को और नुकसान न पहुंचे. वैसे तो पूरी राजनीतिक व्यवस्था की साख ही खतरे में है लेकिन यह दूसरा मुद्दा है, जिस पर अलग से ध्यान दिए जाने की जरूरत है. लेकिन संवैधानिक पद की महत्ता बरकरार रहनी चाहिए.
हमें राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को क्रेडिट देना चाहिए कि उन्होंने अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया है, जिससे इस संवैधानिक पद (राष्ट्रपति का पद) की गरिमा को नुकसान पहुंचे. उत्तराखंड मामले में उन्होंने कैबिनेट के भेजे हुए सिफारिश (उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन) पर हस्ताक्षर नहीं किया और उसे पुनर्विचार के लिए कैबिनेट को भेज दिया. उन्होंने इस मामले में संविधान के बताए रास्ते पर चलने का फैसला किया. जब कैबिनेट ने उन्हें दोबारा सिफारिश भेजा तब उन्होंने हस्ताक्षर कर दिया. इसके बाद जो भी परिणाम होगा, उसका सामना केंद्र सरकार और कैबिनेट को करना होगा. मैं समझता हूं कि अब भाजपा को राजनीति में बेहतर मानक तय करने चाहिए.
दूसरा मुद्दा है मुस्लिम उपदेशक जाकिर नाइक का, जिन्हें मैंने कुरान की व्याख्या करते हुए कई बार टीवी पर सुना है. मैं उन्हें इस बात का क्रेडिट देता हूं कि वे टीवी पर मुस्लिम दर्शकों के कठिन सवालों के जवाब देते हैं. इनमें कुरान से जुड़े सवालों के अलावा कई अव्यावहारिक सवाल भी होते हैं. किसी अच्छे उपदेशक की तरह नाइक कुरान और शरीयत की व्याख्या करते हुए लोगों को अपने जवाब से संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं. इस देश में यह सब ठीक है. लेकिन अभी जो बात सामने आई है वो चौंकाने वाली है. मैं नहीं जानता कि वे आतंकवाद वगैरह की बातें कर रहे हैं. देश का कानून इस मामले में अपना काम करेगा. अगर उन्होंने सचमुच कुछ ऐसा बोला है, जिस पर कार्रवाई हो सकती है, तो पुलिस को जरूर कार्रवाई करनी चाहिए. अन्यथा मैं नहीं समझता कि उन्हें सिर्फइसलिए गाली दी जाए कि वे मुस्लिम समुदाय से हैं या हमें वो बात पसंद नहीं है जो वे बोलते हैं. आखिरकार, बोलने की स्वतंत्रता (फ्रीडम ऍाफ स्पीच) का क्या मतलब है. फ्रीडम ऍाफ स्पीच का अर्थ है कि जो बात हमें पसंद नहीं है, उस बात को बोलने की स्वतंत्रता भी किसी व्यक्ति को हो. अगर कोई व्यक्ति सिर्फवही बोले जो हमें पसंद है, तो फिर फ्रीडम ऍाफ स्पीच की जरूरत क्या है? कोई व्यक्ति मुख्यधारा की बातों के विपरीत भी बोलता है, तो उसे इसकी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए और उसके इस स्वतंत्रता की रक्षा भी की जानी चाहिए. हां, ये जरूर है कि किसी की बातों से कानून और व्यवस्था की समस्या न खड़ी हो. अगर ऐसा होता है तो पुलिस है, कानून है, पुलिस को कार्रवाई करनी चाहिए.
अगले साल उत्तर प्रदेश का चुनाव है. अभी चार पार्टियों में वहां कांग्रेस निश्चित तौर पर चौथे नंबर की पार्टी है. कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर एक ऐसी ताकत चाहते हैं, जो पार्टी को सक्रिय बना सके. राज बब्बर को यूपी कांग्रेस कमेटी का मुखिया बनाया गया है. प्रशांत किशोर चाहते हैं कि प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनावी अभियान का नेतृत्व करें. मुझे नहीं मालूम कि इस सब से क्या मदद मिलेगी? लेकिन तथ्य ये भी है कि तीन साल बाद लोक सभा का चुनाव है और कांग्रेस अब भी असुरक्षित, अनिश्चित, दुविधाग्रस्त और अस्पष्ट तरीके से काम करती हुई दिख रही है. यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है. मैं इस बात को लेकर चिंतित नहीं हूं कि कौन चुनाव जीतेगा या हारेगा, लेकिन एक स्वस्थ लोकतंत्र में जीवंत और सक्रिय विपक्ष का होना बहुत जरूरी है. हमारे प्रधानमंत्री जब कहते हैं कि वे कांग्रेस मुक्त भारत चाहते हैं, तब वे इसके खतरे को नहीं समझते. आज जनता से वोट करा लेंे, जनता तो नेतामुक्त भारत चाहती है. जनता की नजर में तो सारे नेता खराब हैं. क्या आप चाहते हैं कि सेना सत्ता संभाल ले? इस तरह की बातें खतरनाक हैं. प्रधानमंत्री ये कह सकते हैं कि कांग्रेस मुक्त सरकार, या ये कहें कि हम चुनाव लड़कर फिर पांच साल के लिए सत्ता में आएंगे. इस तरह की बात करना सही है. लेकिन कांग्रेस मुक्त भारत की बात कर आप लोकतंत्र की महत्ता को ही कम करते हैं. उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी कहां तक सफल होती है या कांग्रेस में कितना जान डाल पाती हैं, नहीं पता. ये कांग्रेस का आंतरिक फैसला है. हम और आप सिर्फ इंतजार करें.