ऐसा लगता है जैसे ब्रिटिश काल लौट आया है। छोटे बड़े सूबों के लिए युद्ध की स्थितियां बन रही हैं। चुनाव नहीं, चुनाव के नाम पर युद्ध। दिल्ली, बिहार और अब बंगाल। लगना नहीं चाहिए पर लग रहा है जैसे तब ब्रिटिश सरकार के सामने पूरा देश खड़ा था वैसे ही आज उन लोगों के सामने देश खड़ा है जो ब्रिटिश हुकूमत में देश के कम और ब्रिटिश सरकार के ज्यादा थे। कहा जाता ही है कि आरएसएस और उनके लोगों ने आजादी के आंदोलन में कभी कोई कुरबानी नहीं दी। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से भी अलग रहे और जिन वीर सावरकर के नाम पर आज कशीदे गढ़े जाते हैं उन्होंने छ: बार अंग्रेज सरकार से माफी मांगी और जेल से शर्तों के साथ बाहर आये। आरएसएस कहती है यह उनकी रणनीति का हिस्सा था। गजब बात है। भगत सिंह भी ऐसी कोई रणनीति बना सकते थे। सावरकर से ज्यादा तो देश को भगत सिंह की जरूरत थी, आज भी है।
लगता है आरएसएस का सितारा कभी अनुकूल नहीं रहा। आरएसएस जो एजेंडा देश में लागू करना चाहती रही है उसका सबसे अधिक अनुकूल समय तो आज के मुकाबले वह था जब अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता में थे। उनकी नीतियां भले देशहित में रही हों या नहीं, पर स्वभाव अनुकूल था। पर आरएसएस अपना एजेंडा लागू करने में असमर्थ रही। आज आरएसएस के चाहे अनचाहे ऐसे व्यक्ति के हाथ देश की कमान है जिसने आरएसएस को जितना संतुष्ट किया उससे ज्यादा हतोत्साहित भी किया। हिंदू राष्ट्र बनाने का संकल्प आरएसएस को लगता है मोदी जी पूरा कर देंगे पर बाजारीकरण की वे नीतियां जिनके खिलाफ आरएसएस हमेशा से रही वही अब मोदी राज में आरएसएस के गले का फंदा बन रही है। इन नीतियों को लेकर आरएसएस मोदी के सामने लाचार सी दिख रही है।
मोदी ने खुद को ‘लार्जन दैनिक लाईफ’ बना रखा है। बस एक कार्टून आना बाकी है जिसमें विशालकाय मोदी के सामने मोहन भागवत हाथ जोड़े खड़े हैं। तो मोदी अकेले ब्रिटिश सत्ता के प्रतीक से जान पड़ते हैं। आज बंगाल चुनाव दिल्ली और बिहार के चुनावों से ज्यादा क्यों महत्वपूर्ण हो चला है। वजह है एक अकेली ममता बनर्जी। जिन्हें बंगाल वाले ‘बंगाल की शेरनी’ की उपाधि से नवाज़ना ज्यादा पसंद करते हैं। एक ओर मोदी की महत्वाकांक्षाएं विस्तारवादी और आत्म मोह में फंसी हुईं हैं तो दूसरी तरफ ममता बनर्जी पूरे भाजपा भौकाल को खुलेआम चुनौती दे रही हैं। एक ओर अकेली शेरनी बनी ममता हैं जिन्होंने अपने दम पर वामपंथ का चौंतीस बरस पुराना किला ढहाया था और आज उसी अंदाज में भाजपा की दल बल की सेना को ललकार रही हैं।
आप महाभारत के कुरुक्षेत्र के मैदान की कल्पना यहां आसानी से कर सकते हैं जहां एक ओर अकेला अर्जुन था और दूसरी ओर सौ कौरवों सहित हजारों की सेना थी। ममता की यह ललकार ‘खेला होबे’, बीजेपी के हाथ पांव फुलाने के लिए काफी है, जिसका जवाब मोदी ने अपने चिर परिचित अंदाज में दिया है। खेला होने बनाम विकास, रोजगार वगैरह वगैरह। अब द्वंद्व यह है कि ठस दिमाग के बंगाली भाजपाई तो मोदी के करिश्मे में फंसेंगे लेकिन वे जो समझते हैं कि मोदी ने पूरे देश में कितने रोजगार दिये, कितना विकास किया, इन सात सालों में कितना झूठ बोला और अपने ही किये गये वायदों को किस बेशर्मी से हवा में उड़ा दिया क्या वे झांसे में आएंगे ? लेकिन हम न भूलें कि बंगाल का चुनाव दोनों की नाक का सवाल बन गया है। भाजपा के लिए ज्यादा क्योंकि समूचा विपक्ष और यहां तक कि पूरा किसान आंदोलन भी भाजपा के खिलाफ अपनी सभाओं में जुटा है। किसान नेताओं को बंगाल में बड़ी ललक के साथ सुना जा रहा है। हताश भाजपा बड़े बड़े फिल्मी कलाकारों और मौजूदा सांसदों तक को मैदान में उतारने से नहीं चूक रही। लेकिन अकेली महिला फिर भी भारी पड़ती दिखाई दे रही है।
हम नहीं भूल सकते कि मोदी के साथ पूरा कारपोरेट जगत, मुख्यधारा का मीडिया और बड़ा जहरीला आईटी सेल है। ‘व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी’ इसी आईटी सेल की देन है। सच कहें तो मोदी के प्राण इन्हीं में बसते हैं। ये तीन अंग छिटक जाए तो मोदी के ‘कल का शख्स’ होने में कतई देर न लगे। ममता के ‘घरेलू बनाम बाहरी’ का नारा भी भारी है। मोदी, शाह और दिल्ली के सारे भाजपाईयों की हिंदी भाषा एक मजबूरी है। ममता का यहां भी तोड़ नहीं है। इसलिए ममता भाजपा को सेना के रूप में ललकारते हुई हुंकार भरती हैं ‘खेला होबे’। अगर ममता भाजपा के ‘हिंदू कार्ड’ में फंसी हैं तो भाजपा के महारथी भी ‘बंगाली अस्मिता’ के जाल में उलझे हैं। तो ‘खेला तो होबे’।
यह सप्ताह सोशल मीडिया के लिहाज से फीका गया। ज्यादातर सब बंगाल की धरती पर ‘लाइव’ हैं। आरफा खानम शेरवानी हों या अजीत अंजुम सभी अच्छी कवरेज में लगे हैं। भाषा सिंह, प्रसून वाजपेयी ,नीलू व्यास आदि अभी तक दिल्ली में क्यों हैं, सवाल है। अजीत अंजुम की अब तक की सबसे अच्छी कवरेज हमें बंगाल में किसान नेताओं के साथ किये गये इंटरव्यू की लगी। उसे अंजुम का ‘मास्टर पीस’ भी कह सकते हैं। बंद कमरे की मीटिंग में मीटिंग से पहले अलग अलग नेताओं – चढ़ूनी, राजेवाल, मेधा पाटकर, योगेन्द्र यादव, डा. सुनीलम जैसों से अच्छी बात की गयी। वास्तव में रिपोर्टिंग और अच्छी पत्रकारिकता इसे ही कहते हैं। नीलू व्यास ने इस बार यशवंत सिन्हा से इंटरव्यू लिया, जो हाल ही में ममता की पार्टी में शामिल हुए हैं। कहा गया ‘बोल्ड इंटरव्यू’ था। नीलू उस इंटरव्यू को पुनः देखें। उनके सारे सवाल ‘लेकिन’ से शुरू होते हैं।
यह कुछ ऐसा है जैसा ‘रिले रेस’ में हर नया धावक थका सा नये कदम भरता हो। आप थकी सी लगीं। जब प्रश्न लेकिन से शुरू हो तो समझ लीजिए कहीं इंटरव्यू लेने वाले में या तो टूटन है या वह आत्मविश्वास में कमजोर है। और मेहनत करनी होगी नीलू को। ‘लेकिन’ शब्द से हर प्रश्न की शुरुआत ही बोरियत भरी होती है। हर प्रश्न में ताजगी होनी चाहिए। यशवंत सिन्हा का क्या है वे तो हर बार इंटरव्यू देने को लालायित रहते हैं।
इस पूरे हफ्ते संतोष भारतीय यूट्यूब पर दिखाई नहीं दिये। रविवार को अभय कुमार दुबे के साथ की गयी उनकी बातचीत सुनिए। दुबे ने मोदी सरकार की अच्छी ‘स्कैनिंग’ की है। यह इंटरव्यू सुनेंगे तो बहुत कुछ दिमाग में साफ होगा। विनोद दुआ भी इस हफ्ते गायब रहे। ‘सत्य हिंदी’ की चर्चाएं सुनते रहिए। जितना आनंद चर्चा में शरीक होने वालों को आता है उतना ही आपको भी आएगा। आलोक जोशी की बात जरूर सुना कीजिए। इस बार शीतल पी सिंह भी राजू शर्मा के साथ चर्चा में आए। दिलचस्प और जानकारीपरक रहा।
रवीश कुमार के प्राइम टाइम कई बार संग्रहणीय लायक लगते हैं। एक नौ बजे के शो गोदी मीडिया के होते हैं बरक्स उसके रवीश के प्राइम टाइम गम्भीर और शालीन होते हैं। कभी कभी चुटीले भी। फिलहाल देश उलझा है। लगता तो ऐसा है कि सच्चा देशप्रेमी अब इस कपटी देशप्रेम के ताने बाने से बुने खतरनाक और जहरीले लोगों से निजात पाने की अंतिम लड़ाई लड़ना चाहता है फिर वह चाहे बंगाल की हो या आने वाले आम चुनाव की। देखिए क्या हो।
बसंत पांडे