पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी का मानना है कि सोशल मीडिया एक भ्रम है। मेरे पिछले लेख पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा, ‘सोशल मीडिया एक भ्रम है सर। जिस दिन कोई जनता से जुड़ी खबरों के जरिये खड़ा हो गया उस दिन स्थिति अलग होगी …. संयोग है कि मेनस्ट्रीम मीडिया खोखला हो चुका है और सोशल मीडिया उस खोखलेपन को दिखा बता कर खुद के होने का अहसास करा रहा है। ‘

फिर वे आगे लिखते हैं, ‘ये ठीक वैसे ही है जैसे संविधान पर पाबंदी और चुनावी मैनिफेस्टो में लिखने की इजाज़त। दरअसल सोशल मीडिया सरकार के लिए शाक आब्जर्वर का काम कर रहा है।’ पुण्य प्रसून वाजपेयी (एक तरीके से )काफी हद तक सही कह रहे हैं। लेकिन सोशल मीडिया पर अपनी वेबसाइट्स चला रहे लोग इससे कितने सहमत होंगे। सोशल मीडिया की सीमाएं क्या हैं। जानकारी और सूचना के अलावा ज्ञानवर्धन और सतर्क करने की ईमानदार प्रतिबद्धता अगर वह सोशल मीडिया मेन मीडिया से अलग निभा रहा है तो हर किसी को एक ही भेड़चाल में शामिल कर देना भी शायद न्याय नहीं होगा।

पर यह तो सही ही है कि मेनस्ट्रीम मीडिया के खोखलेपन का राग भी निरंतर गाया ही जा रहा है। और उसी खोखलेपन को दिखा बता कर खुद के होने का अहसास भी कराया जा रहा है। फिर भी मुझे लगता है वाजपेयी की बातों के बरक्स इस मीडिया का पलड़ा बहुत भारी है। वाजपेयी कुछ और खुल कर लिखते तो ज्यादा बेहतर होता। भ्रम की दुनिया में मुझे लगता है हर कोई जी रहा है। हर किसी का अपना अलग राग है। हर किसी को लगता है देश को वही जगा रहा है। हर कोई अपना यूट्यूब चैनल खोल रहा है। जो किसी वेबसाइट से जुड़ कर अपने विचार बांच रहे हैं उन्हें भी भ्रम है। ऐसा पहले कभी देखा गया क्या ? बाढ़ आ गयी है जैसे।अधिकांश यह चल रहा है कि हर नयी घटना पर अपने अपने स्वर। ‘सत्य हिंदी’ अपनी स्पेस अलग बनाता दिख रहा है। वहां तय किया गया है कि हर रात को दस बजे एक ‘डिबेट’ रखी जाएगी। यह मेनस्ट्रीम सरीखा है।

इसमें भेड़चाल भी हो सकती है। पर उसी भेड़चाल में कभी कभी कुछ धांसू विषय या सामान्य विषयों पर धांसू डिबेट भी निकल आ सकती है। जैसे इमरजेंसी पर ‘सत्य हिंदी’ में हाल में धांसू डिबेट हुई। अपूर्वानंद भी उस पैनल में दिखे और मुझे लगता है अपूर्वानंद और इतिहासकार इरफ़ान हबीब न होते सामान्य डिबेट होकर रह जाती। विजय त्रिवेदी भाजपा या आरएसएस के पक्षकार के रूप में बैठते (दिखते) हैं। उनका परिचय भी यही दिया जाता है कि इन दोनों (भाजपा और आरएसएस) को अच्छी तरह समझने वाले और इन पर ग्रंथ लिखने वाले। इस डिबेट में विनोद अग्निहोत्री ने कहा, दरअसल हम लोग ‘कम्फर्ट ज़ोन’ में बैठे हुए हैं। सच पूछिए तो यही बात मार्के की है। मेनस्ट्रीम मीडिया झोंपड़ी झोंपड़ी तक अपनी दस्तक दे रहा है बरक्स इसके सोशल मीडिया पर जो जुबानी खर्च हो रहा है वह लग रहा है जैसे अंत में जाकर सांसे भर लेना जैसा है। भला आपके एकल विचार कोई क्यों सुने ? और सुन कर भी वह क्या कर ले। फिर आपका ‘कम्फर्ट ज़ोन’, जहां से आप निकलना नहीं चाहते।

‘न्यूज़ क्लिक’ में उर्मिलेश जी भी अपनी बात कहते हैं और पुण्य प्रसून वाजपेयी भी अलग से अपनी बात कहते हैं। माफ करें, मुझे तुलना नहीं करनी चाहिए पर कहे बिना भी मन मानता नहीं। यों भी बहुत दिनों से कहने को मन था कि दोनों की प्रस्तुति में अंतर क्यों है। और दोनों में आप कहां अधिक रोचकता पाते हैं। अंतर यह है कि वाजपेयी का विषयसम्मत सुघड़ पाठ होता है। उर्मिलश जी का किसी भी उद्वेलित कर देने वाली घटना पर विचारों का बखान होता है। और अकेले उर्मिलेश जी ही नहीं अनेक लोग जो तत्काल की घटना पर अपने विचार रखते हैं वे कुल मिलाकर और घूम फिर कर सरीखे विचारों के साथ। अगर आपने उस घटना पर रवीश कुमार का शो देख लिया है तो मैं समझता हूं बाकी कुछ भी देखना बेमानी सा हो जाता है। माफी के साथ लिखना पड़ रहा है यह सब कुछ। यही ‘कम्फर्ट ज़ोन’ की बेबसी भी है। दिल्ली, मुंबई में बैठ कर दी गयी आपकी प्रस्तुति कोई क्रांति तो नहीं ला सकती।

इस अर्थ में तो आज के विपक्ष के लिए भी हम यही कहेंगे कि वह भी एक भ्रम है। तो सोशल मीडिया को विपक्ष की जिम्मेदारी सम्भाली चाहिए थी, वहां भी तो वह आधा ही सफल हुआ है। काश हमारे बुद्धिजीवी और पत्रकार ‘कम्फर्ट ज़ोन’ से निकल कर, और कुछ नहीं तो मण्डली के साथ देश व्यापी दौरा कर लेते तो जितने तसल्ली बख्श वे आज दिखते हैं उससे कहीं ज्यादा होते। दूरदराज के गांवों और छोटे शहरों का क्या हाल है। छोटे पत्रकारों पर कैसे कैसे हमले हो रहे हैं, वे किन हालात में जीते हुए भी अपने जज्बे पर कायम हैं, देखते ही बनता है। दिल्ली वालों का जुबानी खर्च उनकी कोई मदद नहीं कर पाता। तो सोशल मीडिया का ‘कम्फर्ट ज़ोन’ ही है जो भ्रम की स्थिति बनाए हुए है। कुछेक वेबसाइट्स हैं जो शिद्दत से अपना काम कर रही हैं। उन्हें सलाम !

अभय कुमार दुबे भी न्यूज़ प्रिंट के साथ आजकल सोशल मीडिया का हिस्सा हैं। लेकिन उन्हें ‘लाउड इंडिया टीवी’ ने जो स्थान दिया है वह महत्वपूर्ण है। इस हफ्ते संतोष भारतीय के साथ उनकी रोचक चर्चा हुई। उन्होंने देश के दो रहस्यमय व्यक्तियों का उद्घाटन किया। रोचक रहा जानना। एक आश्चर्यजनक रूप से अजीत देवल, जो इस सरकार में रक्षा सलाहकार हैं और एनएसए यानि नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर हैं। और दूसरे प्रशांत किशोर। उन्हें आजकल कौन नहीं जानता। अभय दुबे ने देवल को उद्घाटित करके कमाल का काम किया। दरअसल मोदी सरकार की इस कदर आलोचना में हम भूल जाते हैं कि इस सरकार के पीछे कुछ ऐसी ‘दुर्लभ’ शख्सियतों का भी हाथ है। अभय जी ने अजीत देवल की प्रशंसा और उनकी महत्ता का जो वृतांत पेश किया, एक क्षण को तो हमें लगा कि कहीं मोदी जी यूपी के भावी मुख्यमंत्री के लिए अगर देवल के नाम की घोषणा कर दें तो बाजी वैसे पलट जाएगी जैसे बालाकोट ने पलट दी थी

मोदी तो कुछ भी कर सकते हैं। और चुनाव के लिए तो कुछ भी। घटिया और बढ़िया उनके लिए कुछ नहीं होता। अभय कुमार दुबे का यह शो बेहद सुलझा हुआ और एक तरह से ज्ञान वर्धक होता है। मित्रों से कहूंगा हर रविवार सुबह ग्यारह बजे यूट्यूब पर ‘लाइव’ जरूर सुनें। गोकि अभय भाई कहीं भी चले जाने से कोई परहेज नहीं करते हैं। इस मामले में मुझे लगता है वे सहजता से हर उपलब्ध हैं। लेकिन ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर उनकी बात अलग ही है। संतोष भारतीय के साथ उनकी ‘कैमिस्ट्री’ भी अच्छी बन रही है। यों पुराने साथी भी हैं दोनों।

नयी टेक्नोलॉजी के जमाने में सोशल मीडिया एक ‘वेग’ सा टर्म हो गया है। लेकिन जैसा भी है यदि फिलवक्त वह खुद को साध कर अपना विस्तार कर ले तो बड़े काम की बात हो। वरना मेनस्ट्रीम मीडिया के बीच से ही उसको चुनौती देता हुआ एनडीटीवी का चैनल तो खड़ा ही है। सामाजिक मूल्यों के हितार्थ संघर्ष में कुछ अकेले योद्धा ही बहुत होते हैं। इसी मीडिया के बीच रवीश कुमार ने खुद को खड़ा किया है। जो सतत संघर्ष के साथ हर बार खुद को दर्पण में देख कर तलाशता भी है पर कभी घमंड नहीं खाता। शायद इसीलिए आज वह हम सबके लिए एक महत्वपूर्ण शख्सियत है। उसे रहना भी होगा। क्योंकि विरोध की चिड़िया को राजा कच्चा चबाने में यकीन सा करने लगा है।

Adv from Sponsors