पिछले साल के इन्हीं दिनों के एक-आध महीने ऊपर का दौर था… उन निरीह जानवरों पर बवाल आया था… बात कहीं की थी, कहीं और जोड़ दी गई… नतीजा अपनी कीमत पर आंसू बहाते मुर्गा-मुर्गियों ने खुदकुशी करने का मन बना लिया था…! मुफ्त जैसी कीमत के बाद भी लोगों को खाने का स्वाद कम, डर ज्यादा आ गया था…! बाद में पता चला कि वो तो मुफ्त में ही बदनाम हो गए थे, बीमारी की वजह कोई और ही था…! खैर, कम कीमत के मरे मुर्गा-मुर्गियों के सगों ने लॉक डाउन में सारे नुकसान की भरपाई करवा दी, दस गुना ज्यादा दाम पर लोगों का निवाला बनकर…! फिर वबा फैली है, शुरूआत कौओं से हुई, गाज गिरते हुए फिर मुर्गा-मुर्गी पर आ लगी है…! भाव कम, खपत जीरो की तरफ और डर आसमान पर…! जिम्मेदारों के बयानों के बयानों ने अलग कन्फ्यूज कर रखा है…! कभी कहते हैं सिर्फ कौवे, फिर कहते हैं कि मुर्गा-मुर्गी भी, कहते-कहते याद आता है मांस-मछली सब ही बंद करो, सबको सात्विक और शाकाहारी बना डालो…!
सियासी कोरोना ने राजनीति करने वालों का बड़ा उद्धार किया…! उनके मुंहलग्गुओं को भी खूब कमवाया…! पिछलग्गुओं ने भी फायदा कमाने में कसर नहीं छोड़ी…! इससे बचने और उसके पार जाने के सियासी इरादे भी कोरोना पूरे कर गया…! अब रोग कुछ कम खौफ भरा लगने लगा है, नई तरतीब की जरूरत थी, नई तरकीब कौओं की मौत ने दे दी…! यहां का ध्यान हटाने, वहां व्यस्त करने की सियासी अदा पुरानी है, लेकिन हर दौर में कारगर है…! कुछ अनदेखे वायरस से राहत मिली थी, कुछ कांव-कांव करते कागले और चीं-चीं पुकारते चिकन से उम्मीदें लगी हैं…! मुर्गा भले अपनी जान से, अपनी शान और आन-बान से जाए, लेकिन खाने वाले को इसका मज़ा आएगा कि नहीं, इसका फैसला आने में कुछ वक्त लग सकता है…! तब तक सस्ते चिकन का लुत्फ लीजिए और बर्बाद होते पोल्ट्री कारोबारियों की खैर की दुआ कीजिए…!
पुछल्ला
ये बौखलाहट क्या कहलाती है…?
मंत्री थे, ठाठ थे। विधायक भी नहीं रहे, कुछ जोश कम हुए। फिर पद मिला, उम्मीदें जगा लीं। अरमान पूरे नहीं हुए, चिल्लाते सुनाई दे रहे हैं। संस्कारधाणी के संस्कारों को अपने मफाद के लिए भुलाए बैठे साहेब को इस बात से कोई आगाह कराए कि जितना चिल्लाओगे, उतना पद से दूर जाओगे। लेकिन शायद चिल्ल-पौ करने के लिए पार्टी के ही किसी दूसरे खेमे से रस्सी थामकर ढ़ील दे दी गई है। इसी जोश में खोकर अपने होश गंवा बैठे हैं भैया जी और अपनी सारी भड़ास सोशल मीडिया पर उंढेल रहे हैं।
खान अशु