दुनिया में बिरली ही राजनीतिक पार्टियां हैं, जो सत्ता में रहते हुए अपने जन्म की सौवीं सालगिरह मना पाती हैं, वरना कुछेक अपवाद छोड़ दें तो अमूमन सियासी पार्टियां या तो इतने लंबे सफर में बिखर जाती हैं या फिर उनका वजूद एक वैचारिक अवशेष के रूप में रह जाता है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सौंवी सालगिरह, ऐसे ही एक विरल अवसर के रूप में देखी जा रही है। विश्व की नजर इस बात पर भी है कि जिस कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन में साम्यवादी क्रांति की, वह अब वास्तव में कितनी कम्युनिस्ट है? चीनी साम्यवाद और चीनी राष्ट्रवाद में अंतर क्या है? बीजिंग के ऐतिहासिक तिएनमिएन चौक में राष्ट्रपजति शी जिन पिंग ने पार्टी के सौवें स्थापना दिवस 1 जुलाई पर जो भाषण दिया, उससे जो संदेश गया वह डरावना ज्यादा है और आधुनिक चीन के भू-राजनीतिक इरादों को स्पष्ट करता है। यह भी साफ हुआ कि आज का चीनी साम्यवाद, पूंजीवाद और एक पार्टी शासन प्रणाली का ही नया संस्करण है तथा वहां साम्यवाद का रूपातंरण व्यक्तिवाद में हो चुका है।
यही कारण है कि शी को साम्यवादी चीन के पितामह माओ त्से तुंग के समकक्ष खड़ा करने की पूरी कोशिश की जा रही है। इसका निहितार्थ यही है कि देश कोई-सा भी हो, शासन प्रणाली कोई-सी भी हो, विचारधारा कोई भी हो, निरतंर सत्ता में बने रहने की व्यक्ति की अखंड सत्ता लालसा कायम रहती है। इसलिए किसी नेता को ‘सार्वकालिक महान’ बताने की हर संभव कोशिश की जाती है। नई पीढ़ी को बताया जाता है कि आपका नेता ‘न भूतो न भविष्यति’ है। वो जो सोचता है, वही अंतिम सत्य है। वह जो देखता है, वही यथार्थ है। वो जो करता है, वही देवत्व है। चीन में जो घट रहा है, उसकी छाया हम भारत सहित कुछ और देशों में भी देख सकते हैं। शी ने पार्टी के शताब्दी वर्ष समारोह में अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा कि चीन को कोई दबा नहीं सकता।
उन्होंने अर्द्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में जी रहे हांगकांग को एकतंत्र में बदलने और चीन की आंखों में बरसों से चुभ रहे स्वतंत्र ताइवान को भी चीन का हिस्सा बनाने का संकल्प दोहराया। आश्चर्य नहीं कि हम भविष्य में राष्ट्रवाद पर सवार चीन का साम्यवादी साम्राज्यवाद ( कुछ लोग इसे विस्तारवाद भी कहते हैं) आकार लेते देखें। शी ने कहा कि चीन अब आर्थिक-सैनिक सुपर पावर है। यानी हम जो चाहेंगे, वो होगा। इसके पहले भी चीन बार-बार कह चुका है कि पश्चिमी देशों ( जिसमे अमेरिका भी शामिल है) के दुनिया पर राज करने के दिन लद गए हैं। चीन को अफीमचियों का देश मानना अब अतीत की बात है। आने वाला कल चीन का है ( कुछ उदारवादी इसे ‘एशिया का कल’ भी मानते हैं)। इसका आगाज शी के शासन काल से हो चुका है। यह बात अलग है कि चीन के इस कल में खुद को विश्व गुरू मान बैठे भारत की कोई खास जगह नहीं है। चीन जिस रास्ते पर आगे बढ़ रहा है कि वह उद्दंड राष्ट्रवादी-पूंजीवादी-साम्राज्यवादी-साम्यवाद का काॅकटेल है। जिसमे नस्ली( हान चीनी) और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक श्रेष्ठता का छुपा आग्रह भी शामिल है। यही दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
गहराई से देखे तो दुनिया में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इकलौती साम्यवादी पार्टी है, जो अपनी स्थापना के सौ साल इतने शानदार तरीके से मना पा रही है। उसके पहले दुनिया में सर्वप्रथम कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना मई 1917 में रूस में हुई थी। लेकिन रूस में कम्युनिस्ट शासन के निरंतर 74 साल बावजूद पार्टी की सौवीं सालगिरह पर उसका कोई नामलेवा भी नहीं रहा। आज जो कम्युनिस्ट पार्टी रशिया में है, वह 28 साल पुरानी है, क्योंकि मूल कम्युनिस्ट पार्टी पर वहां बैन लग चुका है। यही नहीं, 2017 में ही सोवियत क्रांति का शताब्दी आयोजन भी रस्म अदायगी रहा। रूस की नई पीढ़ी उस जनकेन्द्रित ‘महान क्रांति’ को केवल इतिहास का एक अध्याय समझती है। चीन के अलावा दुनिया के जिन आधा दर्जन देशों में कम्युनिस्ट सत्ताएं अभी बाकी हैं, उनकी उमर सौ साल से कम है।
अगर भारत की बात करें तो यहां कम्युनिस्ट पार्टी ( यह भी कई टुकड़ों में विभाजित हो है) के ‘अच्छे दिन’ सत्तर के दशक से लेकर इस सदी के पहले दशक तक थे। लेकिन इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में पार्टी की सत्ता केवल एक राज्य तक सिमट गई है। हालांकि विचार के रूप में वह जिंदा है और रहेगी। यहां दिलचस्प यह भी है कि भारत में जिस समय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई, उसके तीन माह पहले ही घोर कम्युनिस्ट विरोधी और आज देश की राजनीति में निर्णायक दखल रखने वाले राष्ट्रवादी गैर राजनीतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) का जन्म हुआ था। यानी भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 26 दिसंबर 1925 को कानपुर में हुई तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर 1925 को नागपुर में हुई। ये दोनो संगठन चार साल बाद अपनी स्थापना की शताब्दी जरूर मनाएंगे, लेकिन उसके तेवर, तासीर और राजनीतिक पैठ बिल्कुल अलग होगी।
वैसे दुनिया की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टियों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी है। कांग्रेस ने 1985 में सत्ता में रहते हुए अपनी जन्मशताब्दी धूमधाम से मनाई थी। लेकिन वही उसकी राजनीतिक शक्ति और व्यक्तिवाद का चरम भी था। इतिहास गवाह है कि उसके बाद कांग्रेस की नेतृत्व, वैचारिक, संगठनात्मक और जनाधार की दृष्टि से जो फिसलन शुरू हुई, वह अभी भी थमी नहीं है। तो क्या किसी राजनीतिक विचारधारा का व्यक्तिवाद में िवलय ही उसके पतन की शुरूआत होती है? क्या चीन अपने सर्वश्रेष्ठ समय की ओर बढ़ रहा है या फिर व्यक्तिपूजा की बुराइयां धीरे-धीरे उसे भीतर से खोखला कर देंगी? यह हकीकत है कि किसी भी दल या व्यक्ति विशेष को सदा सत्ता में प्रतिष्ठित करते रहने का आग्रह, जिद या षड्यंत्र अंतत: समूचे तंत्र को तानाशाही में तब्दील कर देता है।
हालांकि तानाशाह सार्वजनिक रूप से इस बात से इंकार करते हैं और हमेशा लोकतंत्र या दूसरी व्यवस्था का मुखौटा पहने रहते हैं। लेकिन उनके इरादे जनता को अपनी मुट्ठी में कैद कर उस पर आजीवन राज करते रहने के होते हैं। चीनी साम्यवादी व्यवस्था को ‘लोकतांत्रिक केन्द्रवाद’ की संज्ञा भी दी जाती है। यानी यहां से वहां तक ‘ मैं ही मैं हूं।‘ लेकिन चीनी युवा इस बारे में क्या सोचते हैं? लोकतंत्र, मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोगों के राजनीतिक अधिकारों के बारे में उनकी क्या राय है, इसके बारे में दुनिया को बहुत कम जानकारी है। विरोध के स्वर वहां भी हैं, लेकिन चीन में इन मुद्दों पर बात करना भी ‘देशद्रोह’ है। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि आज के चीनी युवा ज्यादा सम्पन्न, ज्यादा शिक्षित और सुविधाओ मेंंजीने वाले हैं। जो खबरें छन कर आ रही है, उसके मुताबिक चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सौंवी सालगिरह के आयोजनो में वहां के युवाओ को कम्युनिस्ट पार्टी यही पट्टी पढ़ाने ( जिसे वो शिक्षित करना और हम संस्कारित करना कहते हैं) में लगी है कि वो अपने क्रांतिकारी अतीत पर गर्व करें।
स्वर्णिम भविष्य को संजोएं। ‘रेड टूरिज्म’ की ताकत बनें। देशभक्त बनें, क्योंकि चीन एक महान राष्ट्र है। हमे इसे महानतम बनाना है। देश में आत्मसुधार पर जोर है। बताया जा रहा है कि मार्क्सवादी विचारधारा (चीनी सम्परिवर्तनों के साथ) ही क्यों सर्वश्रेष्ठ है। चीन में एक पार्टी शासन है। लिहाजा कम्युनिस्ट पार्टी को राज करते रहने के जनादेश को ‘स्वर्ग के लिए जनादेश’ के रूप में निरूपित किया जा रहा है। चीनी सत्ता की नाकामयाबियों को छुपा कर उसकी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सैनिक उपलथब्धियों का आभामंडल खड़ा किया जा रहा है। इस बात का भी ध्यान रखा जा रहा है कि चीनी साम्यवादी सोच के खिलाफ किसी मंच पर कोई स्वर पनप न पाए। गौरतलब है कि व्यक्ति की महान छवि गढ़ने के लिए राष्ट्र की महानता का बेस पकड़ना हमेशा जरूरी होता है। वही चीन में भी हो रहा है।
अब सवाल ये कि क्या भविष्य में हम वैश्विक मंच पर चीन की और अधिक उद्दंड तथा बेपरवाह भूमिका देखेंगे या फिर शी का यह उद्दाम राष्ट्रवादी साम्यवाद चीन में भावी बदलाव की शुरूआत है? अभी इस बारे में कुछ भी कहना जल्द बाजी होगी। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा था कि चीन में राजनीतिक बदलाव बहुत लंबे अंतराल के बाद ही होते हैं।
चीन में जो भी राजनीतिक-सामाजिक बदलाव होंगे, वो भारत जैसे देशों के लिए कितने चुनौती भरे होंगे, इसका कुछ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। क्योंकि हकीकत में आज दोनो देश उग्र राष्ट्रवाद की राह पर बढ़ रहे हैं। फर्क इतना है कि चीनी राष्ट्रवाद की पैकिंग साम्यवादी रेपर में तो भाजपाई राष्ट्रवाद की पैकिंग लोकशाही के रेपर में है। पैकेजिंग के इस टकराव में किसका राष्ट्रवाद सच्चा, स्थायी और ताकतवर होगा, यह वक्त बताएगा। फिलहाल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी दुनिया में ऐसी पहली कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में दर्ज हो गई है, जिसने सत्ता की आभा और सुपर पावर बनने की आकांक्षा के साथ अपना ‘ग्रांड बर्थ डे’ सेलीब्रेट किया। तो क्या किसी देश के ‘स्वर्ण युग’ की परिकल्पना इसी भावभूमि से टैक-आॅफ लेती है?