कॉरपोरेट्स अपनी छवि बेहतर करने और वार्षिक विकास दर दिखाने के लिए करों का भुगतान करते हैं. कॉरपोरेट जगत के दिग्गजों की आय को आपने पहले ही डिविडेंट के रूप में करमुक्त कर रखा है. एक वेतनभोगी वर्ग ही ऐसा है, जो असहाय है और जिसके आय स्रोत से ही टैक्स काट लिया जाता है, उन्हें राहत की ज़रूरत है. इससे सरकार को तीन तरीके से मदद मिलती. पहला, सरकार की आयकर के रूप में थोड़ी-सी आय के लिए आयकर विभाग को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, कागजी कार्रवाई में बहुत सारी स्टेशनरी खर्च होती है. यदि ऐसा न होता, तो बहुत सारे मानव संसाधन और कार्यावधि को बचाया जा सकता था. 

देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति ठीक है. इसलिए वर्ष 2015-16 के केंद्रीय बजट से लोगों को बहुत आशाएं थीं कि वित्त मंत्री इस आर्थिक स्थिति में और सुधार की दिशा में कुछ साहसिक निर्णय लेंगे. रिजर्व बैंक के गवर्नर और मुख्य आर्थिक सलाहकार, दोनों ने संकेत दिए थे कि मध्यम अवधि के लिए सरकार राजकोषीय घाटे का लक्ष्य थोड़ा शिथिल कर सकती है, जिससे अर्थव्यवस्था में ज़्यादा पैसा आ सके, रोज़गार की संभावनाओं और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि हो सके. हालांकि, वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे के लिए लक्ष्य निर्धारित करते हुए कहा है कि अगले तीन-चार वर्षों में इसे तीन प्रतिशत तक लाना होगा. दुनिया भर में इस बात को लेकर विवाद है कि क्या राजकोषीय घाटा एक महत्वपूर्ण सूचक है या केवल मुद्रास्फीति की तरह मुद्रीकृत (मोनेटाइज्ड) घाटा है.
अब हम 1991 में देश में शुरू हुए आर्थिक सुधारों, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के झुकाव और विश्‍व बैंक पर नज़र डालते हैं. हम राजकोषीय घाटा नियंत्रण मोड में चले गए. इसके बाद राजकोषीय उत्तरदायित्व और प्रबंधन क़ानून (एफआरबीएमए-2003) ले आए, जिसके मुताबिक चलते हुए हम लगातार सामाजिक क्षेत्र में आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए कड़ी मशक्कत कर रहे हैं. यकीनन, वित्त मंत्री ने कॉरपोरेट सेक्टर को बढ़ावा दिया है. दुर्भाग्यवश उन्होंने जो किया, वह अनावश्यक हैै. वेल्थ टैक्स को ख़त्म कर देना अनावश्यक है और इसके लिए जो तर्क दिया जा रहा है, वह और भी अजीब है. उन्होंने कहा कि किसी भी परिस्थिति में इससे केवल 100 करोड़ रुपये ही प्राप्त हुए. यदि ऐसा है, तो गिफ्ट टैक्स और आयकर भी ख़त्म कर देना चाहिए. इस तरह की बहुत-सी चीजें हैं, जो केवल कागजी काम बढ़ा रही हैं और उनसे सरकार को कोई फ़ायदा नहीं हो रहा. लेकिन, उन्होंने केवल वेल्थ टैक्स को चुना, जो सबसे कम परेशानी खड़ी करने वाला था. भारत में वेल्थ टैक्स सबसे पहले पचास और साठ के प्रारंभिक दशक में स्वीडन के प्रोफेसर निकोलस कालडोर के अनुरोध पर इसलिए लागू किया गया था, ताकि इस बात पर नज़र रखी जा सके कि सालाना आय में साल दर साल जो वृद्धि हुई है और जो आपके पास है या आपकी कुल संपत्ति, आपकी आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक तो नहीं है.
अब वित्त मंत्री कह रहे हैं कि संपत्ति की जानकारी देना अभी भी अनिवार्य है. जब कागजी काम ही कम नहीं हुआ, तो इससे क्या फ़़र्क पड़ा? आयकर अधिकारी संपत्ति कर अधिकारी भी होता है. यह केवल उन अमीरों को फ़ायदा पहुंचाएगा, जो अपने धन का उपयोग नहीं कर रहे हैं और वेल्थ टैक्स नहीं भरना चाहते हैं. वे उसे सोना, सोना-चांदी की ईंटों, आभूषण और नगदी के रूप में रखते हैं, जिससे अर्थव्यवस्था में किसी तरह की आय नहीं होती. यह अर्थहीन क़दम है. इसके अलावा उन्होंने एक करोड़ रुपये से ज़्यादा कमाने वालों पर सरचार्ज के रूप में टैक्स बढ़ा दिया है. एक करोड़ रुपये सालाना आय वाले लोगों की संख्या बहुत कम है. वेतनभोगी वर्ग के लोगों में बहुत कम ऐसे हैं, जिनकी आमदनी एक करोड़ रुपये से ज़्यादा है, व्यापारियों, कॉरपोरेट के दिग्गजों को सैलरी डिविडेंट के रूप में मिलती है, जो पहले से करमुक्तहै. वास्तव में जिस क्षेत्र को राहत मिलनी चाहिए थी, वह मध्यम वर्ग है या फिर वेतनभोगी, जिसकी आमदनी 2.5 से 3 लाख रुपये के बीच है. इसे बढ़ाकर 5 से सात लाख रुपये कर देना चाहिए था. तमाम अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत नहीं होंगे, क्योंकि देश की 125 करोड़ की आबादी में से केवल तीन करोड़ लोग ही कर अदा करते हैं. वे यह भी कहेंगे कि यदि हम कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था हैं, तो किसान की आय कर देने के लायक नहीं है. आप किसानों, ग़रीबों, बेघरों और अनुसूचित जाति के लोगों पर कर का बोझ नहीं लाद सकते, क्योंकि वे कर नहीं चुका सकते.
कॉरपोरेट्स अपनी छवि बेहतर करने और वार्षिक विकास दर दिखाने के लिए करों का भुगतान करते हैं. कॉरपोरेट जगत के दिग्गजों की आय को आपने पहले ही डिविडेंट के रूप में करमुक्त कर रखा है. एक वेतनभोगी वर्ग ही ऐसा है, जो असहाय है और जिसके आय स्रोत से ही टैक्स काट लिया जाता है, उन्हें राहत की ज़रूरत है. इससे सरकार को तीन तरीके से मदद मिलती. पहला, सरकार की आयकर के रूप में थोड़ी-सी आय के लिए आयकर विभाग को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, कागजी कार्रवाई में बहुत सारी स्टेशनरी खर्च होती है. यदि ऐसा न होता, तो बहुत सारे मानव संसाधन और कार्यावधि को बचाया जा सकता था. दूसरा यह कि इस वर्ग की जमापूंजी आख़िर कहां जाएगी? यह पैसा उसकी बचत होता. यह ऐसा वर्ग है, जो बेतहाशा खर्च नहीं करता. इसमें से कुछ पैसा सकारात्मक जगह पर खर्च होता, जैसे कि म्यूचुअल फंड या शेयर बाज़ार या बैंक में किसी बचत योजना में जमा होता, जो अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा होता.
तीसरा, यही वेतनभोगी वर्ग भाजपा का वोटर है, खासकर मध्यम वर्ग. यदि सरकार उसके लिए कुछ ऐसा करती, तो उसे खुशी होती, लेकिन दुर्भाग्यवश वित्त मंत्री को इनमें से कोई सुझाव पसंद नहीं आया. कम से कम मैं व्यक्तिगत रूप से इस बजट से निराश हूं. मुझे लगता है कि वेतनभोगी वर्ग को आयकर में छूट मिलनी चाहिए, क्योंकि महंगाई का सामना करने के लिए उनके पास और कोई दूसरा ज़रिया नहीं है. व्यापारी वर्ग नुक़सान और खर्च दिखाने के बाद लाभ में से तीस प्रतिशत कर देता है, वहीं वेतनभोगी और निम्न आय वर्ग के लोग सीधी तरह अपनी कुल आय का कुछ प्रतिशत आयकर के रूप में देते हैं. इस वर्ग को राहत चाहिए, जो इस बार बजट में नहीं मिली. मैं इस बात को लेकर निश्ंिचत हूं कि वित्त मंत्रालय इस बारे में गंभीरता से विचार करेगा. हो सकता है कि अगले बजट में या उससे पहले इस दिशा में विचार किया जाए.
कुल मिलाकर बजट सकारात्मक है. इसमें कोई शक नहीं है कि यह सही दिशा में जाता दिख रहा है, लेकिन यह अर्थव्यवस्था को गति देने के लिहाज से रक्षात्मक और लीक पर चलने वाला बजट है. जैसा कि हमने पिछले 8-9 महीनों में आशा की थी. वित्त मंत्री ने बजट में कॉरपोरेट टैक्स को अगले चार सालों में घटाकर 30 से 25 प्रतिशत करने की घोषणा की. यह एक अनावश्यक घोषणा है. 30 प्रतिशत कॉरपोरेट टैक्स बिलकुल उचित है. दूसरे देशों की तुलना में यह बहुत कम है. दरअसल, प्रभावी तौर पर कई तरह की छूट के बाद उन्हें केवल 20 प्रतिशत टैक्स का भुगतान करना पड़ता है. इसलिए इसमें कटौती करने का कोई मतलब नहीं है. हम सिंगापुर जैसे देशों से अपनी तुलना करना चाहते हैं, जहां टैक्स की दर कम है, यह तुलना ग़लत है. हमें अपनी तुलना पश्‍चिमी देशों की अर्थव्यवस्था से करनी चाहिए. आप कॉरपोरेट टैक्स में कटौती करके उन्हें ग़ैर-ज़रूरी लाभ पहुंचा रहे हैं. यहां तो उन्होंने केवल घोषणा की है, लेकिन अगले चार सालों में यह कैसे प्रभावी होगा, किसी को इसका अंदाज़ा नहीं है. शायद उन्होंने ऐसा बाज़ार की दशा सुधारने के लिए किया है, तो यह उनकी इच्छा है.
दूसरी घटना दिल्ली के लोगों के लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है. यह आम आदमी पार्टी से जुड़ी है, जिसके अरविंद केजरीवाल नि:संदेह सर्वोच्च नेता हैं और जीत का श्रेय उन्हीं को जाता है. यह उन्हीं का करिश्मा था, लेकिन अब उनकी पार्टी में दूसरे नेता भी हैं, प्रशांत भूषण, संस्थापक सदस्य शांति भूषण और योगेंद्र यादव. जब तक पार्टी में राजनीतिक संस्कृति का विकास नहीं होगा, तब तक इन सभी लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ेगा. हर कोई अपना राग अलापता रहता है, जिससे पार्टी में वैचारिक एकरूपता की कमी नज़र आती है. आख़िर उनकी सोच क्या है? इस संबंध में अरविंद केजरीवाल ने सबसे बेहतर काम किया. उन्होंने कहा कि वह इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते, अपना ध्यान दिल्ली के प्रशासन पर लगाना चाहते हैं, जो बहुत बड़ा काम है. उन्हें जनता ने यह काम सौंपा है, इसलिए उन्हें यह काम करने दिया जाए. पार्टी अपने मसले खुद सुलझाए. मैं समझ सकता हूं कि पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण से कहा है कि वे पार्टी की पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी का हिस्सा नहीं हैं. तो ठीक है. मैं उम्मीद करता हूं कि पार्टी आने वाले कुछ वर्षों में अपनी राजनीतिक संस्कृति विकसित कर लेगी.

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