दिसम्बर 2018 तक बिहार में पूरी तरह उजाले ही उजाले होंगे. कहीं अंधियारा नहीं होगा. गोया हर घर बिजली 24 घंटे. सोचिये यह एक ऐसा सपना है, जिसे देखते हुए बिहार की चार-चार पी़िढयां गुजर गयीं. अगर यह सपना साकार हुआ तो बिहार की रौनक फ्रांस की मानिंद होगी. यह दीगर बात है कि फ्रांस का बिजली संचरण अत्याधुनिक है, जिसमें बत्ती गुल होने की संभावनायें रेयर होती हैं.
लेकिन जहां तक बिजली उपलब्धता की बात है, अगर नीतीश सरकार का दावा सच साबित हुआ, तो बिहार लालटेन-ढिबरी युग से पूरी तरह से बाहर आ जायेगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह दो साल में संभव हो पायेगा? राज्य सरकार के वादे और इरादे अगर पक्के साबित हुए तो इस सवाल का जवाब निश्चित तौर पर हां होगा, बशर्ते संसाधनों की कमी नहीं हो.
इसी वादे और इरादे के तहत 15 नवम्बर को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हर घर बिजली लगातार योजना की शुरुआत की. यह योजना नीतीश के कुल सात निश्चयों में से एक है. बकौल नीतीश, अपने नये कार्यकाल के एक साल के भीतर उन्होंने अपने सातों निश्चयों पर अमल शुरू कर दिया है.
हर घर बिजली के अलावा हर घर को नल का पानी, स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड योजना, नौकरियों में महिलाओं को 35 प्रतिशत आरक्षण, बेरोजगार युवाओं को भत्ता, हर गांव की अपनी पक्की सड़क, हर घर को शौचालय आदि शामिल हैं. इन तमाम निश्चयों पर सरकार ने विगत 6-8 महीने में अमल शुरू कर दिया है.
रही बात बिजली की, तो यह नीतीश के सात निश्चयों में से आखिरी निश्चय था, जिसे पूरा करने की शुरुआत उन्होंने बाजाब्ता तौर पर 15 नवम्बर को कर दी. यहां यह याद रखना चाहिए कि 2015 के चुनावों से पूर्व नीतीश कुमार ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में इन सात निश्चयों का जिक्र किया था.
नाम दिया गया था ‘नीतीश निश्चय’. तब इन निश्चयों की जबर्दस्त ब्रांडिंग की गयी थी. प्रचार और प्रसार का ऐसा नुस्खा अपनाया गया था कि भाजपा के कॉर्पोरेट व डिजिटल प्रचार को अगर कोई दमदार चुनौती पेश कर रहा था, तो वह नीतीश कुमार थे. उस चुनावी प्रचार में कहीं भी दूर-दूर तक कोई तीसरा नजर नहीं आ रहा था.
इसके लिए चुनाव से कई महीने पहले प्रचार के एक ऐसे कॉकटेल का बंदोबस्त भी किया गया था, जिसमें एक मिशन की तरह राज्य सरकार के सारे संसाधन झोके गये थे. इस मिशन को ‘बढ़ चला बिहार’ कहा गया था.
कहना न होगा कि नीतीश कुमार ने अपने सात निश्चयों की कल्पना अगस्त 2015 में ही कर ली थी और जब बीते 15 नवम्बर को वह अपने आखिरी निश्चय यानी ‘हर घर बिजली लगातार’ योजना का उद्घाटन कर रहे थे, तो जोर दे कर कह भी रहे थे कि उनके तमाम निश्चय समय पर पूरे हो कर रहेंगे. नीतीश यह भी कह रहे थे कि वह प्रचार व प्रसार में विश्वास नहीं करते, केवल काम करते हैं और उनका काम ही बोलता है.
लेकिन अगर गौर से देखें तो उनके दो निश्चय ऐसे हैं जिनकी चुनौतियां बहुत ही जोखिम भरी हैं. पहला, हर घर नल का जल और दूसरा हर घर को बिजली. यह जोखिम भले ही चाहे जितना बड़ा हो पर आवाम की उम्मीदें इन दो योजनाओं पर ठहरी हैं.
नीतीश कुमार को इस बात का बखूबी एहसास भी है. लगभग ग्यारह करोड़ की आबादी वाले प्रदेश को रौशन करने, नल का पानी की आपूर्ति करने समेत उनकी तमाम योजनाओं पर लगभग 2 लाख सत्तर हजार करोड़ की जरूरत है, जिसे केंद्र सरकार, राज्य सरकार, एशियन डेवलपमेंट बैंक, वर्ल्ड बैंक और अन्य एजेंसियों के बूते किया जाना है.
इसलिए यह कहना मुश्किल नहीं कि इन योजनाओं को धरातल पर लाने में सरकार के पसीने नहीं छूटेंगे. हर घर बिजली योजना की शुरुआत करते हुए नीतीश की यह पीड़ा कई बार सामने आयी कि केंद्र उन्हें इस मामले में अपेक्षित मदद नहीं कर रहा है. उन्होंने कहा भी कि पहले राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना के क्रियान्यवयन में केंद्र की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत थी.
लेकिन जब नयी सरकार आयी और उसने इस योजना का नाम बदल कर दीनदयाल उपाध्याय विद्युतिकरण योजना रख दिया, तो केंद्र ने अपनी हिस्सेदारी घटा कर महज 60 प्रतिशत कर दी. यानी अब राज्य सरकार को दस प्रतिशत के बजाये चालीस प्रतिशत धन खर्च करने होंगे. दूसरी तरफ राज्य की एक और चुनौती है. यह चुनौती राजस्व वसूली की कमी से जुड़ी है.
शराबबंदी से बिहार को प्रतिवर्ष लगभग 3300 करोड़ रुपये के राजस्व से हाथ धोना पड़ा है. हालांकि इस राजस्व की पूर्ति के लिए राज्य सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों, वाहन से जुड़े टैक्स के अतिरिक्त अन्य कई करों को आम जनता पर लादा है और अपने राजस्व कलेक्शन को मजबूत बनाये रखने की कोशिश की है. पैसों के अतिरिक्त और चुनौतियां भी हैं, जो नीतीश निश्चय को पूरा करने में कठिनाइयां उत्पन्न करेंगी. इनमें से एक चुनौती नौकरशाही से जुड़ी है.
नौकरशाही की लेटलतीफी और कामों को टालते रहने की उनकी नियति देश के अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी व्याप्त है. योजना के अनुसार राज्य के 50 लाख परिवारों को बिजली कनेक्शन से जोड़ा जाना है. नीतीश कुमार को अपने शाशकीय अनुभव से यह बखूबी पता है कि प्रखंड स्तर से ले कर उच्च नौकरशाही के काम करने की गति क्या है.
उन्हें यह भी पता है कि भ्रष्ट तंत्र भी इस काम में बड़ा अड़ंगा लगायेगा. इसीलिए इस योजना की शुरुआत करते हुए उन्होंने यह भी जोर दे कर कहा कि इस काम से जुड़ी नाकारा एजेंसियों को सिर्फ टर्मिनेट ही नहीं किया जायेगा, बल्कि उनके खिलाफ आपराधिक मामले भी दर्ज किये जायेंगे. राजनीतिक स्तर पर सरकार महज फैसले ले सकती है, लेकिन उन फैसलों के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी मूल रूप से नौकरशाही के विशाल तंत्र पर होती है.
पिछले ग्यारह वर्षों से नीतीश सत्ता में हैं और विरोधी भी यह स्वीकार करेंगे कि पिछले एक दशक में राज्य में विकास और बदलाव के बहुत काम हुए हैं. 2005 में सत्ता संभालने के बाद नीतीश ने जिन दो-तीन बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित किया वह सुशासन के मूल मंत्र पर आधारित था. इसके तहत कानून व्यवस्था को ठीक करना, राज्य की जर्जर सड़कों का कायाकल्प करना और गांव-गांव तक बिजली पहुंचना प्रमुख थे.
चूंकि सुशासन एक सतत प्रक्रिया का नाम है, इसपर बहुत कहने-सुनने की जरूरत नहीं, लेकिन सड़कों के निर्माण में नीतीश कुमार के काम की प्रशंसा राज्य से बाहर के संस्थाओं ने भी की. लेकिन बिजली के मामले में उन्हें आलोचनायें भी सुनने को मिली.
यह आलोचना उनके उस कथित वादे को ले कर थी, जिसमें उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था कि अगर वह राज्य में बिजली की दशा नहीं सुधारेंगे तो, 2015 में मतदाताओं से वोट मांगने नहीं आयेंगे. लेकिन 2015 के चुनाव से पहले तक राज्य का बहुत बड़ा इलाका अंधियारे में डूबा था.
जहां बिजली के पोल तक नहीं पहुंचे थे. विरोधी दलों ने नीतीश के इस कथित वादे को मजबूती से धर लिया और लगातार हमले करते रहे. हकीकत यह भी रही है कि पिछले दस-ग्यारह सालों में बिजली की हालात में व्यापक सुधार होने के बावजूद उद्योग और कारोबार से जुड़े लोगों की भी यह आम शिकायत रही कि बिजली की
अनुपलब्धता के कारण उद्योग धंधों में भारी रुकावट हुई है.
हालांकि 2005 से, जब नीतीश कुमार की सरकार आयी है, बिजली की उपलब्धता, संचरण और जेनेरशन में हुई तरक्की को बार-बार नीतीश कुमार ने उजागर किया है. 15 नवम्बर वाले कार्यक्रम में नीतीश ने इस बात को दुहराया भी.
उनके साथ ऊर्जा मंत्री विजेंद्र यादव ने भी गिनाया कि 2005 में जहां राज्य में 700 मेगावाट बिजली की उपलब्धता थी, वह आज बढ़ कर 4000 मेगावाट तक पहुंच गयी है. तब जहां प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 70 युनिट थी वह अब बढ़ कर 258 युनिट हो चुकी है.
लेकिन सरकार इस बात को भी स्वीकार करती है कि राज्य में बिजली जेनेरशन की हालत संतोषजनक अब भी नहीं हुई है. तभी तो बिजली खरीद कर आपूर्ति की जा रही है. हालांकि नीतीश कुमार के पिछले बयानों को देखें जिसमें वह, यह कहने से नहीं चूकते थे कि बिहार बिजली जेनेरेशन के मामले में न सिर्फ आत्मनिर्भर हो जायेगा बल्कि बिजली बेचा भी जायेगा.
इन तमाम वादों, इरादों और कामों पर राज्य सरकार 2005 से ही अमल कर रही है और उसे दस वर्ष यानी 2015 तक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेना था. जिसे अब बढ़ा कर 2018 कर दिया गया है. यह लक्ष्य 2018 तक पूरा हो सकेगा इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता. क्योंकि खुद ऊर्जा सचिव प्रत्यय अमृत स्वीकार करते हैं कि अभी तक 72 प्रतिशत गांव में ही सर्वे का काम पूरा हो सका है. यानी अब भी 28 प्रतिशत गांवों में सर्वे समेत पोल गाड़ने की प्रक्रिया बाकी है.
अमृत विश्वास दिलाते हैं कि इसी दिसम्बर तक सर्वे का काम पूरा हो जायेगा. सरकार के इन वादों और उसके निर्धारित लक्ष्यों पर भाजपा के विरोधी दल के नेता सुशील कुमार मोदी जिन सवालों को उठाते हैं, उन सवालों पर आम तौर पर सरकार खामोश रहना ही बेहतर समझती है. वह याद दिलाते हैं कि राज्य के 83 लाख बीपीएल परिवारों में से पिछले 8 वर्षों में मात्र 15 लाख परिवार को ही बिजली कनेक्शन दिया जा सका है.
राज्य में बिजली के हालात ये हैं कि हर महीने 975 करोड़ खर्च करके 470 करोड़ वसूली हो पाती है. 300 करोड़ सब्सिडी देने के बाद भी पावर होल्डिंग कंपनी को हर माह 200 करोड़ का घाटा होता है. भले ही सरकार सुशील मोदी के इन सवालों पर चुप्पी साध ले, लेकिन ग्रामीण स्तर पर एक हकीकत यह भी है कि जिन सैकड़ों या हजारों राजस्व गांव में बिजली की आपूर्ति दो-तीन साल से हो रही है वहां पर उपभोक्ताओं से एक तिहाई भी बिजली बिल की वसूली नहीं हो पाती हैं.
ग्रामीणों की इस मामले में स्पष्ट शिकायत रहती है कि उन्हें बिल ही नहीं दिया जाता. ऐसे में आर्थिक संसाधनों से जूझ रहे बिहार में बिजली कम्पनियों के घाटे का पहाड़ अगर बढ़ता ही चला जाय और हर घर बिजली से रौशन हो पाने का लक्ष्य 2018 के बाद दो वर्ष और बढ़ा दिया जाय तो कोई अचरज नहीं होनी चाहिए. वैसे भी राज्य में विधानसभा चुनाव 2020 में ही होने हैं.