सवाल मुस्लिम संगठनों का भी है. मुसलमानों के नेता, मुसलमानों के संगठन सामाजिक हों या राजनीतिक हों, इनमें से किसी को इस बात की चिंता नहीं हुई कि हाशिमपुरा हत्याकांड मुस्लिम समाज की चिंता का केंद्रबिन्दु बने. उनके लिए गरीब मुसलमानों की ज़िन्दगी विदेशों में भाषण देने का विषय तो बन जाती है, पर देश में परेशानी का कारण नहीं बनती. न जाने कितने लोगों ने हाशिमपुरा और मलियाना के लोगों की हत्या के बाद विदेशों से सहायताएं जुटाई होंगी, पर वो सहायता हाशिमपुरा और मलियाना के लोगों तक नहीं पहुचीं.
22 मई, 1987 की रात भारतीय मानवता के इतिहास की सबसे काली रातों में से एक है. यह रात व्यवस्था के विद्रूप चेहरे को भी दिखाती है, लेकिन व्यवस्था में शामिल कुछ लोगों के प्रति आशा भी पैदा करती है. भारतीय व्यवस्था से जुड़े कानून व्यवस्था बनाए रखने वाले एक अंग पीएसी ने सोची-समझी योजना के तहत हाशिमपुरा और मलियाना से लोगों को उठाया, उन्हें गाज़ियाबाद के पास गंगनहर के किनारे लेकर आए, लाइन में खड़ा किया, गोली मारी और लाशें बहा दी. मुझे अच्छी तरह याद है, यही हेडिंग चौथी दुनिया के उस अंक की थी, जिसमें हमने सबसे पहले दुनिया के सामने यह कहानी रखी थी. उस समय इस कहानी को कोई भी छापने के लिए तैयार नहीं था और छापता भी कैसे? उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सर्वशक्तिमान माननीय वीर बहादुर सिंह थे और भारत के प्रधानमंत्री सर्वशक्तिमान राजीव गांधी थे. हमने जब इस रिपोर्ट का खुलासा करने का फैसला किया, तब हमें मालूम था कि हम भारत की व्यवस्था के उस हिस्से से टकरा रहे हैं, जिसके मन में लोकतंत्र के प्रति कोई सम्मान नहीं है. तत्कालीन मुख्यमंत्री ने दो बार बाज़ार से चौथी दुनिया के सारे अंक उठवा लिए थे. हमें संदेश भिजवाया, लेकिन मैं इतना ज़रूर कहूंगा कि आज की तरह के निर्मम राजनेता उस समय नहीं थे. जब मैंने वीर बहादुर सिंह जी से कहा कि आप कॉपियां उठवाते रहिए, हम कॉपियां छापते रहेंगे, तो वीर बहादुर सिंह हलके से हंसे और फ़ोन काट दिया.
21 मार्च, 2015 को इस केस का फैसला आया. इस केस के फैसले ने हमें बताया कि हमारी न्याय व्यवस्था भी असंवेदनशील है. न्याय व्यवस्था ने उन सारे लोगों को छोड़ दिया, जिन पर इस कत्लेआम को अंजाम देने का आरोप था. न्यायालय ने उन लोगों को संदेह का लाभ (बेनिफिट ऑफ डाउट) दिया, पर यह कमेंट नहीं किया कि आखिर इस हत्याकांड का कोई ज़िम्मेदार है या पीएसी की बंदूकें अपने आप गरजीं, अपने आप लोग मर गए, अपने आप उनकी लाशें बह गईं और जो जिन्दा बच गए, वो जो कह रहे हैं, बकवास है, झूठ है. इस सम्पूर्ण घटनाक्रम का सबसे विद्रूप चेहरा हमारा मीडिया है. जेसिका लाल की हत्या को लेकर अदालत द्वारा उसके ऊपर कोई ध्यान न देने के खिलाफ हजारों हज़ार लोग मोमबत्तियों का जुलूस लेकर निकलते रहे. अख़बारों में लेख छापे जाते रहे और टेलीविज़न के ऊपर बहसें होती रहीं, लेकिन गरीब मुसलमानों के इस कत्लेआम को लेकर न टेलीविज़न पर बहसें हुईं, न अख़बारों में लेख लिखे गए. अब जबकि तीसहजारी की अदालत ने उन लोगों की हत्या के आरोपियों को छोड़ दिया है, तब न एक टेलीविज़न चैनल में बहस हुई, न ही एक मोमबती का जुलूस निकला.
शायद हमारी न्याय व्यवस्था, हमारी संवेदनाएं बंट गईं हैं. गरीब मरता है, तो हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन उच्च वर्ग के मनोरंजन के काम में लगे हुए लोगों में से अगर किसी को बाउंसर धक्का दे देते हैं, तो वह टेलीविज़न चैनल और अख़बारों की चिंता का विषय भी बन जाता है और पूरा समाज, तथाकथित समाज उद्वेलित हो जाता है.
अगर ये न्याय है, तो अन्याय क्या है? इसका जवाब न सुप्रीम कोर्ट देगा और न ही माननीय प्रधानमंत्री देंगे. इसका जवाब मीडिया भी नहीं देगा, लेकिन ऐसी घटनाएं एक बड़े वर्ग में ये सन्देश देती हैं कि इस देश में न समाज, न सरकार और न ही न्याय व्यवस्था, उन लोगों के पक्ष में है, जो वंचित हैं और जो इस देश के 85 प्रतिशत लोगों का एक बड़ा हिस्सा है. जब मैं 85 प्रतिशत कहता हूं, तो मैं उन लोगों की बात करता हूं, जो वोट डालते हैं और जो सरकार बनाते हैं. सरकार बन जाने के बाद उन 85 प्रतिशत लोगों का रोल समाप्त हो जाता है. जो उनका वोट लेते हैं, चाहे वो राजनीतिक दलों के लोग हों या राजनीतिक दलों के पक्ष में ले जाने वाले इन वर्गों के नेता हों, वो फिर उन्हें धोखा ही देते हैं.
सवाल मुस्लिम संगठनों का भी है. मुसलमानों के नेता, मुसलमानों के संगठन सामाजिक हों या राजनीतिक हों, इनमें से किसी को इस बात की चिंता नहीं हुई कि हाशिमपुरा हत्याकांड मुस्लिम समाज की चिंता का केंद्रबिन्दु बने. उनके लिए गरीब मुसलमानों की ज़िन्दगी विदेशों में भाषण देने का विषय तो बन जाती है, पर देश में परेशानी का कारण नहीं बनती. न जाने कितने लोगों ने हाशिमपुरा और मलियाना के लोगों की हत्या के बाद विदेशों से सहायताएं जुटाई होंगी, पर वो सहायता हाशिमपुरा और मलियाना के लोगों तक नहीं पहुचीं. वे दिल्ली तीस हजारी कोर्ट तक आते थे, दिन भर बैठते थे और लौट जाते थे. जज साहब कहते थे, एफआईआर की कॉपी लाओ. गरीब मुसलमान, जो थाने से डरता है, वह एफआईआर की कॉपी कहां से लेकर आए, जबकि उसके मुकाबले इस व्यवस्था का सबसे सशक्त क्रूर अंग पीएसी गुस्से से आंखें तरेरती हुई हर जगह खड़ी दिखाई देती थी.
हाशिमपुरा के लोगों का दर्द देश के 16, 18 या 20 प्रतिशत लोगों का दर्द है, लेकिन उस दर्द को पूरा हिंदुस्तान, हिंदुस्तान की सरकार और हिन्दुस्तान की न्याय व्यवस्था अगर नहीं समझेगी, तो हमें यह मान लेना चाहिए कि कल गरीब और वंचितों के दूसरे तबके, जिनमें दलित हैं, पिछड़े हैं, आर्थिक रूप से कमजोर हैं, उनके ऊपर भी अन्याय होगा, तो कोई उनकी तरफ देखने वाला नहीं है, क्योंकि हिंदुस्तान की व्यवस्था के सारे अंग उनके पक्ष में खड़े हैं, जिनके पास दौलत भी है और राजनीतिक ताकत भी है.
यह केस अफसोसनाक है और न्याय व्यवस्था के चेहरे के ऊपर एक तमाचा भी है. एक छोटी सी आशा भारत के सर्वोच्च न्यायालय से है. देखते हैं कि वो अपनी नींद से जागता है या नहीं जागता है और एक सवाल मुस्लिम समाज के रहनुमा बनने वाले लोगों से भी है कि वो अपने इस दर्द की अभिव्यक्ति सशक्त ढंग से कर सकते हैं या नहीं कर सकते हैं.
गाज़ियाबाद के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक वी.एन. राय मुझे याद आते हैं, जो इस घटना को लेकर चौथी दुनिया के दफ्तर में आए थे और हमारे एक साथी चंचल ने इन सारे किस्से को वी.एन. राय के साथ बैठकर हमें सुनाया था. इस कहानी को छापने का फैसला लेने में हमें क्षण भर भी नहीं लगा. वी.एन. राय जैसे लोग व्यवस्था में आशा की किरण हैं और मेरा मानना है कि उसी लॉ एन्फोर्समेंट के एक अधिकारी वी.एन. राय ने अपनी ही लॉ एन्फोर्समेंट एजेंसी पीएसी द्वारा की हुई उस बर्बर हत्या की साजिश को या उस साजिश को अंजाम देने वाली घटना के बारे में हमें बताया और उसे दुनिया के सामने लाने में सबसे महत्वपूर्ण रोल अदा किया.