राजस्व खुफिया निदेशालय का मानना हैं कि सरकारी प्रोत्साहन राशि की बंदरबांट के लिए बनी कंपनियों के इस मकड़जाल में ज़्यादातर कंपनियों का नियंत्रण प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अडानी ग्रुप के पास ही है. मजे की बात यह है कि इन कंपनियों ने आपस में ही डायमंड, जड़ाऊ स्वर्णाभूषणों आदि की खरीद-फरोख्त की और एक तरह से फर्ज़ी आयात-निर्यात दिखाकर बड़े पैमाने पर सरकारी खजाने को चपत लगाई. अंतरराष्ट्रीय व्यापार की भाषा में इसे ‘सर्कुलर ट्रेडिंग’ कहा जाता है.
करंट अफेयर्स की नामी पत्रिका इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के सम्पादक परंजय गुहा ठाकुरता ने पिछले दिनों एकाएक अपने पद से इस्तीफा दे दिया. श्री ठाकुरता न केवल खोजी पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं, बल्कि उनकी गिनती ऐसे वरिष्ठ पत्रकारों में की जाती है, जो आर्थिक मामलो की गहरी समझ रखते हैं. ठाकुरता का इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली से इस्तीफा इन दिनों मीडिया जगत में सुर्खियां बटोर रहा हैं. कहा तो यह जा रहा हैं कि ठाकुरता की रुखसती के पीछे इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में छपी उनकी वे दो रिपोर्ट्स हैं, जो उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के करीबी समझे जाने वाले उद्योगपति गौतम अडानी की कंपनियों के कारनामों का खुलासा करने के मकसद से लिखी थी. लेकिन उन रिपोर्ट्स में ऐसा क्या था जिसका खुलासा होते ही कई बड़े कॉर्पोरेट घरानो की आर्थिक सत्ता के शक्ति-केंद्र एकाएक इतने विचलित हो गए कि वे लोकतंत्र के चौथे खम्भे की स्वतंत्रता पर हमो करने को व्यग्र हो उठे. नतीज़तन ठाकुरता जैसे कलम के निर्भीक सिपाही को आनन-फानन बेदखल होना पड़ा. आइए इसका ज़ायज़ा लेते हैं:-
इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के जनवरी 2017 के अंक में परंजय गुहा ठाकुरता ने एक लेख छापा, जिसमे यह खुलासा किया गया था कि अडानी ग्रुप ने 2003-2004 और 2004-2005 में डायमंड तथा सोने के जड़ाऊ गहनों के आयत-निर्यात के जरिए तकरीबन एक हज़ार करोड़ रुपए की कर चोरी की है. लेख के मुताबिक़ वर्ष 2003-2004 में उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय ने निर्यात बढ़ाने के उद्देश्य से कुछ प्रोत्साहन- योजनाएं शुरू की. विदेश व्यापार के महानिदेशक द्वारा घोषित इन योजनाओं में ड्यूटी फ्री क्रेडिट एंटाइटलमेंट (डीएफसीई) और टारगेट प्लस स्कीम (टीपीएस) प्रमुख थीं.
इन योजनाओं के लिए केवल स्टेटस होल्डर कंपनियों को पात्र माना गया. वाणिज्य मंत्रालय द्वारा तय मानकों के अनुसार स्टेटस होल्डर वे कंपनियां हैं, जिनका सालाना निर्यात कारोबार पच्चीस करोड़ से अधिक हो. साथ ही यह शर्त भी रखी गई कि इन कंपनियों के निर्यात में 2002-2003 के मुकाबले 2003-2004 में कम से कम पच्चीस प्रतिशत की क्रमोत्तर बढ़ोतरी हो. इन कंपनियों को डीएफसीई योजना में उनके बढ़े हुए निर्यात के 10 प्रतिशत के बराबर तथा टीपीएस योजना में 5 से 15 प्रतिशत तक वित्तीय लाभ देने का प्रावधान था. जाहिर हैं कि दोनों योजनाएं काफी आकर्षक थीं. लिहाज़ा सरकारी योजनाओं के जरिए, दम तोड़ रहे निर्यात-आयात कारोबार का रंग चोखा करने के लिए अडानी समेत कई औद्योगिक घराने इस धंधे में कूद पड़े. कहा जाता हैं कि सरकारी पैसे की लूट के लिए अडानी एक्सपोर्ट्स, जिसका निर्यात कारोबार वर्ष 2002-2003 में लगभग 377 करोड़ था, पहले हिंदुजा एक्सपोर्ट्स, आदित्य कोर्पेक्स, मिडेक्स ओवरसीज, बगड़िया ब्रदर्स और जयंत एग्रो के साथ मिलकर एक गठजोड़ बनाया. बाद में इसमें देश विदेश की चालीस से अधिक दूसरी कंपनियों को शामिल कर लिया. इनमें से ज्यादातर कंपनियां हांगकांग, दुबई, शारजाह और सिंगापुर की बताई जाती हैं.
राजस्व खुफिया निदेशालय का मानना हैं कि सरकारी प्रोत्साहन राशि की बंदरबांट के लिए बनी कंपनियों के इस मकड़जाल में ज़्यादातर कंपनियों का नियंत्रण प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अडानी ग्रुप के पास ही है. मजे की बात यह है कि इन कंपनियों ने आपस में ही डायमंड, जड़ाऊ स्वर्णाभूषणों आदि की खरीद-फरोख्त की और एक तरह से ़फर्ज़ी आयात-निर्यात दिखाकर बड़े पैमाने पर सरकारी खजाने को चपत लगाई. अंतरराष्ट्रीय व्यापार की भाषा में इसे ‘सर्कुलर ट्रेडिंग’ कहा जाता है.
इस सर्कुलर ट्रेडिंग के बहाने क्या-क्या कारनामे किए गए यह जानना और दिलचस्प है. राजस्व ख़ु़िफया निदेशालय का कहना है कि अडानी ग्रुप और उसकी सहयोगी कंपनियों ने आयातित किए गए माल के बिलों को काफी बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया. हीरों को बिना तराशे उनकी क्वालिटी में ़फर्ज़ी बढ़ोतरी दर्ज़ की. एक ही माल को बार-बार आपस में खरीदा बेचा और अपना टर्न ओवर बढ़ाया. दुबई से सोने की छड़ें आयात कीं, उन्हें मोटे जड़ाऊ गहनों में बदलकर वापस भेजा और बाद में इन गहनों को गलाकर फिर छड़ों के रूप में भारत आयात कर लिया. अडानी एक्सपोर्ट्स ने एक और करिश्मा किया. उसने अनगढ़ कच्चे हीरों का भारी निर्यात दिखाया, जबकि भारत परम्परागत रूप से कच्चे हीरों का निर्यातक देश नहीं है.
अडानी ग्रुप पर सरकारी मेहरबानी का नतीजा यह रहा कि 2002-03 में महज़ 377 करोड़ का निर्यात कारोबार करने वाली इस कंपनी का निर्यात अगले साल यानि 2003-04 में 11 गुना बढ़कर 4657 करोड़ और 2004-05 में उछलकर 10,808 करोड़ तक पहुंच गया. तकरीबन यही हाल हिंदुजा एक्सपोर्ट्स, आदित्य कोर्पेक्स समेत दूसरी कंपनियों का भी रहा. विदेश व्यापार निदेशालय को जैसे ही लगा कि सरकारी सहायता की बड़े पैमाने पर लूट शुरू हो गई है, उसने दोनों प्रोत्साहन योजनाओं पर रोक लगा दी. निदेशालय के इस फैसले के खिलाफ कुछ कंपनियों ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई, लेकिन कोर्ट ने उनकी अपील खारिज़ कर दी. अनुमान यह है कि इस बीच अडानी ग्रुप कस्टम ड्यूटी और प्रोत्साहन राशि को मिलाकर सरकार को लगभग एक हज़ार करोड़ का चूना लगाने में कामयाब रहा.
इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में छपे दूसरे लेख में परंजय गुहा ठाकुरता ने और गंभीर आरोप लगाए. ठाकुरता ने दावा किया कि अडानी पावर को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार ने विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) के नियमो में बदलाव किए और इस तरह अडानी ग्रुप को पांच सौ करोड़ का कस्टम रिफंड देने का रास्ता सा़फ कर दिया.
दरअसल, अडानी पावर लिमिटेड के मूंदड़ा सेज़ स्थित पावर हाउस के लिए इंडोनेशिया से कोयला आयात किया जाता है. नियमो के मुताबिक़, इस कोयले पर कस्टम शुल्क नहीं लिया जाता. लेकिन अगर पावर हाउस में उत्पादित बिजली सेज़ के बाहर नागरिक क्षेत्र को बेची जाती है, तो पावर हाउस को कस्टम ड्यूटी की छूट नहीं दी जाएगी. अडानी पावर मूंदड़ा एसईजेड में उत्पादित बिजली बाहर खुले बाज़ार में भी बेचता हैं, इसलिए वह कस्टम छूट का कानूनन हकदार नहीं है. लेकिन सरकार ने अडानी ग्रुप को फायदा पहचाने के लिए अगस्त 2016 में सेज नियमो में ही बदलाव कर दिया.
सरकार के इस फैसले के बाद अडानी पावर ने 506 करोड़ के कस्टम ड्यूटी रिफंड का दावा पेश कर दिया. जब यह मामला गुजरात हाई कोर्ट पहुंचा, तो वहां भी अडानी ग्रुप ने ताल ठोक कर कह दिया कि वह आयातित कोयले पर चुकाई गई कस्टम ड्यूटी के आधार पर ही रिफंड की मांग कर रहा है. जबकि इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में छपे ठाकुरता के लेख में किए गए दावे के अनुसार, यह कस्टम शुल्क अडानी पावर लिमिटेड द्वारा आज तक अदा ही नहीं किया गया है.
इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के इस सनसनीखेज़ खुलासे के बाद अडानी घराना तिलमिला उठा और उसने पत्रिका के सम्पादक, प्रकाशकों के खिलाफ मानहानि का कानूनी नोटिस भेज दिया. पर्दे के पीछे कुछ और भी जोर आज़माईश हुई. नतीज़तन, इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के सम्पादक परंजय गुहा ठाकुरता की छुट्टी हो गई.
यूं गए ठाकुरता…
परंजय गुहा ठाकुरता का इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली से जाना मीडिया जगत के लिए एक दु:स्वप्न जैसा है. ‘चौथी दुनिया’ से हुई एक ख़ास बातचीत में उन्होंने बताया- ‘समीक्षा ट्रस्ट की 16 जुलाई को हुई बैठक में मुझे बुलाया गया. इस बैठक में ट्रस्ट के चेयरमैन दीपक नायर, मैनेजिंग ट्रस्टी डीएन घोष समेत इतिहासकार रोमिला थापर, दीपांकर गुप्ता, राजीव भार्गव, शशि मेनन जैसे सभी ट्रस्टी शामिल थे. बैठक में ट्रस्टियों ने इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में अडानी ग्रुप के खिलाफ छपे लेखों पर अपनी नाराज़गी जताई. ट्रस्टियों ने इस पर भी आपत्ति की कि मैंने ट्रस्ट की अनुमति लिए बगैर अडानी के कानूनी नोटिस का जवाब कैसे सार्वजनिक कर दिया. मेरे मा़फी मांगने के बाद भी वे संतुष्ट नहीं हुए. ट्रस्टियों ने दोनों लेखों को फौरन मैगज़ीन की वेबसाइट से हटाने को कहा. यह भी कहा कि इन लेखों के हटने के बाद ही आप कमरे से बाहर जाएंगे. मैंने वहीं से ऑफिस के सहयोगियों को फोन कर दोनों रिपोर्ट्स वेबसाइट से हटवा दी.
मेरे बार-बार यह कहने पर कि मैगज़ीन में छपी दोनों खबरों से सम्बन्धित सारे प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं. वित्त मंत्रालय या वाणिज्य मंत्रालय ने आज तक इन ख़बरों में दिए तथ्यों का खंडन नहीं किया हैं. दूसरा यह कि यह कानूनी नोटिस सिर्फ हमें डराने- दबाने के लिए है. मेरी इस सफाई से भी ट्रस्टीज नहीं पसीजे और उन्होंने सा़फ कहा कि हमारा आप पर अब विश्वास नहीं रहा. ट्रस्ट की तरफ से यह भी निर्देश दिए गए कि उसकी अनुमति कि बगैर इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में मेरे नाम से आगे कोई लेख नहीं छपेगा. बस यह हद थी. यह चौथे खम्भे पर सीधा हमला था और इसके बाद मैंने वहीं अपना इस्तीफा सौंप दिया.’