मैं जानता हूं कि सरकार के कान में अ़खबारों की लिखी बातें नहीं पहुंचतीं. जो निर्णय लेने वाले सज्जन हैं, वे टेलीविजन देखते हैं और खासकर उन चैनलों को देखते हैं, जो उनकी प्रशंसा के गीत गाते हैं या उनके विरोधियों के ऊपर हमले करते हैं. हम जैसे अ़खबार वाले पत्रकारिता की ज़िम्मेदारी निभाते हैं और यह मानकर चलते हैं कि शायद सरकार में शामिल या सरकार का अधूरा हिस्सा रहे विपक्ष में शामिल लोगों की नज़र पड़ जाए और उन्हें उन तकलीफों का पता चल सके, जो देश के लोग उठा रहे हैं.
मैं जब तकलीफों की बात करता हूं, तो जीवन की तकलीफों की बात करता हूं. इस देश का बहुत बड़ा हिस्सा यानी 60 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी कृषि के ऊपर निर्भर है. देश की अर्थव्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण योगदान कृषि का है. जो लोग खेती करते हैं या खेतिहर मज़दूर हैं, अगर उनकी ज़िंदगी परेशानियों से भरी होगी, तो फिर उपज धीरे-धीरे कम होती जाएगी. और, अब देश में यही होता दिखाई दे रहा है. लोग धीरे-धीरे खेती के ऊपर कम ध्यान दे रहे हैं और खेती छोड़ने की योजना बना रहे हैं. शायद खेती पर निर्भर रहने वाले लोगों को यह अंदाज़ा हो गया है कि सरकारें उनकी नहीं सुनेंगी. पिछले 15 वर्षों में खेती अर्थव्यवस्था से बिल्कुल बाहर रही और अभी भी वह अर्थव्यवस्था के दायरे से बाहर है. इसीलिए संसद, सरकार या विपक्ष को कभी भी किसानों की आत्महत्या को लेकर चिंता नहीं हुई. किसानों की आत्महत्या के मामले अगर दो, चार या दस होते, तो भी उन्हें अनदेखा किया जा सकता था, लेकिन किसानों की आत्महत्या की दर दिनोंदिन बढ़ रही है और सरकारी आंकड़े इसकी गवाही चीख-चीख कर दे रहे हैं. लेकिन, फिर भी व्यवस्था खामोश है. ऐसी असंवेदन संसद और संवेदनहीन राजनीति कभी नहीं देखी गई. क्या हमारी सरकार, हमारी संसद और हमारे विपक्ष की मंशा यह है कि जिस तरह जाटों ने उग्र आंदोलन किया, संपत्तियां तहस-नहस कर जनजीवन पंगु बना दिया और अपने हक़ में ़फैसला करा लिया, उसी तरह का उदाहरण देश का किसान भी प्रस्तुत करे? धीरे-धीरे यही होने वाला है.
यह पूरा वर्ष अब आंदोलनों की भेंट चढ़ने वाला है. मुझे सा़फ दिखाई दे रहा है कि अगला वर्ष यानी 2017 किसानों के आंदोलन या उग्र आंदोलन का वर्ष होगा. अब तक किसानों ने कभी किसान होने के नाते अपनी समस्याओं को लेकर हुंकार नहीं भरी और न जनजीवन प्रभावित करने की कोशिश की. लेकिन, मेरे पास किसान संगठनों से जुड़े लोगों की जो आवाज़ें आ रही हैं, वे बताती हैं कि किसान अपने जीवन को लेकर निराशा की चरम सीमा की तऱफ बढ़ रहे हैं. और, यह बात राजनेताओं को बताने में कोई शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए और उन्हें भी समझने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि जब निराशा चरम सीमा पर पहुंचती है, तो हिंसा पैदा होती है. जब लोग सड़क पर आते हैं, खासकर खेती से जुड़े लोग, तब आप पुलिस और फौज तो लगा सकते हैं, लेकिन उनका मनोबल नहीं तोड़ सकते.
इसलिए समय रहते सरकार और विपक्ष यानी संसद से हम यह आग्रह करना चाहते हैं कि आप कृपा करके किसानों की समस्याएं सामने रखकर उनसे बातचीत करें. देश की आर्थिक नीति किसानों को सामने रखकर बनाएं और उनकी आत्महत्या को उसका प्रारंभिक बिंदु मानें. किसानों की आत्महत्या किसानों के भीतर भयावह चित्र खींच रही है. संसद में देशद्रोह और देशप्रेम का सवाल खड़ा किया जा रहा है, लेकिन कोई भी सांसद, वह चाहे सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का, यह नहीं कह रहा कि किसानों की आत्महत्या के ऊपर सवाल न उठाना या किसानों की आत्महत्या से चिंतित न होना या किसानों की आत्महत्या के कारणों को दूर न करना देशद्रोह का सर्वोत्तम उदाहरण है. और, इस अर्थ में हम मानें, तो वे सारे लोग, जो नकली देशप्रेम और नकली देशद्रोह का सवाल उठाते हैं, सीधे-सीधे देशद्रोह की परिधि में खड़े हो जाते हैं.
एक आतंकवादी के फर्जी टि्वटर एकाउंट से की गई टिप्पणी देश के गृहमंत्री को परेशान कर देती है और वह उसे लेकर आरोप लगा देते हैं. लेकिन, किसानों की आत्महत्या न गृहमंत्री को परेशान करती है, न प्रधानमंत्री को और न नेता विपक्ष को. इसका मतलब यह कि सत्ता पक्ष और विपक्ष किसानों को यह संदेश भेज रहा है कि तुम्हारे किसी सवाल को हम न सुनना चाहते हैं, न तुम्हारी समस्याओं की तऱफ नज़र डालना चाहते हैं. हमारे सामने आर्थिक विकास का वह नक्शा है, जिसमें देश के 60-70 प्रतिशत हिस्से के लिए कोई जगह नहीं है, अब सवाल है कि किसान क्या करें? इसका एक ही जवाब है कि न तो किसानों का कोई संगठन है और न कोई नेता. और, जब ऐसे आंदोलन होते हैं, जिनका न कोई संगठन होता है और न कोई नेता, तो वह हिंसक होता है और टूट-फूट वाला होता है.
मेरी सरकार से विनती है कि वह देश के ब्लॉकों को केंद्र बनाकर, किसान की उपज को प्रमुख कच्चा माल मानकर, गांव में रहने वालों को वहीं पर आजीविका कैसे मिले, इसकी योजना बनाए और ग्रामीण नौजवानों को उनके गांव के पास स्थित उद्योग-धंधों में शामिल करे. विकास का यह मॉडल देश को खड़ा कर सकता है. लेकिन, जब यह मॉडल देश के नीति निर्धारकों या नौकरशाहों को समझ में आए, तब तो कोई बात बनेगी! या फिर हो सकता है कि वे किसी उग्र आंदोलन का इंतज़ार कर रहे हों और सोच रहे हों कि जब आंदोलन होगा, तब हम कोई हल निकालेंगे. लेकिन, वह स्थिति शायद बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगी.