जबसे बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू हुई है तबसे देश की राजनीति शराबबंदी से सराबोर हो गई है. शराबबंदी धीरे-धीरे सामाजिक से राजनीतिक मुद्दा बन गई है. नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान महिलाओं से राज्य में शराबबंदी लागू करने का वादा किया था. जब उन्होंने शराबबंदी की बात कही तब कुछ लोगों ने इसे राजनीतिक चोंचलेबाजी कहा था. कुछ ने तो उनकी इस घोषणा की टाइमिंग पर भी सवाल खड़े किए थे. लेकिन चुनाव में जीत हासिल करने के बाद नीतीश कुमार ने एक अप्रैल से राज्य में शराबबंदी लागू कर दी, इसके बाद तो मानो पूरे देश में शराबबंदी का नशा चढ़ने लगा. देश के अलग-अलग हिस्सों में शराबबंदी की मांग होने लगी है. तमिलनाडु में भी यह चुनावी मुद्दा बन गया है.
शराबबंदी के मसले पर लोगों को आश्चर्य तब हुआ जब विधानसभा चुनाव के दौर से गुजर रहे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता ने कहा कि यदि उनकी पार्टी इस बार विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करती है तो वह राज्य में चरणबद्ध तरीके से शराबबंदी लागू करेंगी. उनकी इस घोषणा के बाद राज्य में सत्तारूढ़ एआईडीएमके और डीएमके के बीच रस्साकशी शुरू हो गई. डीएमके ने जयललिता पर उसके शराबबंदी के मुद्दे को चुराने का आरोप लगाया और उनके चरणबद्ध शराबबंदी के जवाब में पूर्ण शराबबंदी का वादा कर डाला. जयललिता ने कहा कि 1971 में डीएमके सरकार के शासनकाल में प्रदेश में शराब की बिक्री शुरू हुई थी,
डीएमके को शराबबंदी के मसले पर बोलने का कोई अधिकार नहीं है. गौरतलब है कि तमिलनाडु में 1937 में अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान ही पाबंदी लगा दी गई थी. आजादी के बाद 30 जनवरी 1948 को उस पाबंदी को बढ़ा दिया गया था. जयललिता अब चुनाव प्रचार के दौरान कह रही हैं कि शराब पर पाबंदी के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करना होगा. शुरुआत में शराब की दुकानों के खुलने के समय को कम किया जाएगा. इसके बाद उनकी संख्या में कमी की जाएगी. शराब छोड़ने वालों के लिए पुनर्वास केंद्र खोले जाएंगे. लेकिन यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि तमिलनाडु सरकार को शराब की बिक्री से तकरीबन 21,800 करोड़ रुपये की आय होती है.
एक तरफ तो जयललिता शराबबंदी के खिलाफ भाषण दे रही हैं वहीं दूसरी तरफ बीते एक अप्रैल को शराबबंदी के लिए काम कर रहे संगठन मक्कल अधिकारम के छह लोगों को तिरुचिरापल्ली में गिरफ्तार कर लिया गया. उनके खिलाफ देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया गया. ऐसी ही एक घटना में पिछले साल अक्टूबर में जयललिता ने एक लोक गायक कोवन को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया था. कोवन अपने गानों में शराबबंदी का समर्थन करते हैं. जयललिता के इस निर्णय को लेकर उनकी बहुत आलोचना हुई थी और सवाल उठे थे कि एक लोक गायक जो शराबबंदी के खिलाफ गीत गाकर अभियान चलाता हो वह देशद्रोही कैसे हो गया? उसने लोगों को अपने गीतों से सरकार के खिलाफ उकसाया. शराबबंदी को लेकर ये जयललिता के दोहरे मापदंड हैं. लेकिन बिहार की शराबबंदी का असर तमिलनाडु में दिखना महत्वपूर्ण है. शराबबंदी के चुनावी मुद्दा बनने का सीधा मतलब यह निकाला जा सकता है कि देश के हर हिस्से में लोग इस मुद्दे को गंभीरता से ले रहे हैं.
शराबबंदी के पक्ष में तर्क दिए जाते हैं, शराब का लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है, शराब की वजह से घरेलू हिंसा होती है, घरेलू हिंसा से बच्चों पर बुरा असर पड़ता है, शराबबंदी के कारण घटिया या कच्ची शराब का सेवन बढ़ता है जिसकी वजह से हर साल हजारों मौतें होती हैं, शराब पीकर वाहन चलाने की वजह से सैक़ड़ों दुर्घटनाएं होती हैं और हज़ारों लोग इन दुर्घटनाओं में अपनी जान गंवाते हैं, वगैरह-वगैरह. वहीं शराबबंदी के विरोध में तर्क दिए जाते हैं कि खाने-पीने पर रोक नहीं होनी चाहिए. अब तक किसी भी राज्य, देश में शराबबंदी कारगर नहीं रही है. पाबंदी की वजह से तस्करी के जरिए शराब आती है और नकली शराब के आने का खतरा बढ़ जाता है. शराबबंदी की वजह से नशे के आदी लोग नशे के दूसरे विकल्पों की तलाश करते हैं जो शराब से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं. हालांकि देश में गांजा, अफीम, चरस और अन्य ड्रग्स पर प्रतिबंध है. लेकिन देश के अधिकांश हिस्सों में लोगों को नशे की ये वस्तुएं उपलब्ध हो जाती हैं. ऐसे में शराबबंदी का मुद्दा कितना प्रभावशाली होगा इसके बारे में कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता.
साल 2017 में पंजाब में विधानसभा चुनाव होने हैं. पंजाब को देश का सबसे अधिक नशा प्रभावित राज्य माना जाता है. हाल ही में हुए पठानकोट आतंकवादी हमले का ड्रग्स की तस्करी का एंगल भी सामने आया था. पंजाब की राजनीति में नशा बहुत अहम मुद्दा है. पंजाब का अमीर व्यक्ति हो या गरीब, आम हो या खास. वहां का हर परिवार युवाओं की नशे की लत से परेशान है. नशे की आदत का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से असर पूरे परिवार और समाज पर पड़ता है. पंजाब भले ही देश के समृद्ध राज्यों में शुमार हो लेकिन वहां की युवा पीढ़ी नशे की लत की वजह से खोखली होती जा रही है. पंजाब चुनाव में नशाबंदी केंद्रीय मुद्दा होने जा रहा है. इसकी झलक मुक्तसर के माघी मेले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दे चुके हैं.
मुक्तसर रैली में उन्होंने पंजाब की सत्ताधारी बीजेपी और अकाली सरकार के साथ-साथ पूर्व मुख्यमंत्री और पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह पर नशे के कारोबारियों को संरक्षण देने का आरोप लगाया था. उन्होंने कहा था कि दोनों ही पार्टियां पंजाब को नशे के दलदल से बाहर नहीं आने देना चाहती हैं. मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के करीबी रिश्तेदार विक्रम मजीठिया की ड्रग्स की तस्करी के आरोप में गिरफ्तारी हो चुकी है. ऐसे में पंजाब में बिहार की शराबबंदी का असर दिखने वाला है. हो सकता है कि पंजाब चुनावों में नीतीश कुमार आम आदमी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करते दिखाई दें. नीतीश कुमार पहले से ही भाजपा के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने में जुटे हुए हैं.
फिलहाल और आने वाले वक्त में जिन राज्यों में विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं उनमें केवल पंजाब में एनडीए की सरकार है. इससे पहले दिल्ली और बिहार में हुए चुनावों में भाजपा को पटखनी दे चुके अरविंद केजरीवाल और नीतीश कुमार की जोड़ी भाजपा को एक बार फिर पटखनी देने के लिए एक साथ दिखाई दे सकती है. नीतीश के शपथ ग्रहण समारोह में शिरकत करके अरविंद केजरीवाल ने नए राजनीतिक संकेत दे दिए थे. अब उस समीकरण को फलीभूत करने का समय आ रहा है. पंजाब में अकाली-भाजपा सरकार की हार को सीधे तौर पर नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार की विफलता से जोड़ा जाएगा, जिसका सीधा फायदा मिशन-2019 में विपक्षी दलों को होगा. हालांकि, पंजाब में नशे का मुद्दा आम आदमी पार्टी के प्रमुख एजेंडे में है, लेकिन फिलहाल दिल्ली में ऐसा करने की उसकी कोई मंशा नहीं है, यह बात दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया कह चुके हैं.
आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, मिजोरम और हरियाणा में शराबबंदी का प्रयोग नाकाम हो चुका है. बिहार में 1977 में कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने शराबबंदी लागू की थी, लेकिन यह प्रभावी नहीं हुई थी. इसके बाद फिर स्थिति जस की तस हो गई थी. गुजरात में 1960 से शराबबंदी लागू है. गुजरात में शराब के उत्पादन, बिक्री और पीने पर पाबंदी है. पाबंदी के बावजूद वहां शराब उपलब्ध हो जाती है. नगालैंड में 1989 से शराब पर रोक है, अखबार में शराब के विज्ञापन पर भी रोक है, लेकिन वहां भी शराब उपलब्ध है. आंध्र में पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने यह कह कर शराबबंदी खत्म कर दी थी कि इसे पूरी तरह लागू कर पाना संभव नहीं है. हरियाणा में बंसीलाल सरकार ने शराबबंदी लागू की थी, लेकिन उसके परिणाम बहुत भयावह हुए थे.
शराबबंदी के इक्कीस महीनों में ही इससे जुड़े किस्सों की भयावहता और उपहास ने अपनी तमाम हदें लांघ दी थीं. इतिहास गवाह है कि जब शराबबंदी खत्म करने की घोषणा की गई तो जनमानस इतना हर्षित हुआ था, जितना शायद शराबबंदी लागू होने पर भी नहीं हुआ था. एक लंबे समय बाद बंसीलाल ने भी यही बात दोहराई कि यह संभव नहीं. हालांकि उन्होंने कभी कहा था, मैं शराब पर पाबंदी हटाने के बजाय घास काट लूंगा. इसी साल जनवरी में ओड़ीशा में शराब के उपभोग और निर्माण पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने को वहां की सरकार ने अवास्तविक बताया. ओड़ीशा के आबकारी मंत्री दामोदर राउत ने विधानसभा में कहा कि राज्य में शराबबंदी लागू करना यथार्थवादी कदम नहीं होगा.
उन्होंने कहा कि यदि राज्य पूर्ण प्रतिबंध लगा भी देता है तो शराब पीने वालों का उससे लगाव खत्म करना असंभव है. उन्होंने कहा कि शराब पर प्रतिबंध से शराब का अवैध व्यापार बढ़ेगा. अवैध शराब पीने से लोगों के मरने की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता. पूर्ण प्रतिबंध लगाने के बजाय लोगों के बीच उत्तम शराब की बिक्री और वितरण को नियमित करना उचित कदम होगा. राउत ने यह बात भी साफ की कि राज्य सरकार की शराब की बिक्री से राजस्व अर्जित करने की मंशा भी नहीं है. गौरतलब है कि पिछले साल नवंबर तक ओड़ीशा सरकार ने शराब की बिक्री से 1139.83 करोड़ रुपये का राजस्व अर्जित किया है.
शराबबंदी का एक और सामाजिक पहलू यह भी है कि शराबबंदी का प्रभाव पर्यटन उद्योग पर भी पड़ता है, जिससे राज्य के हजारों लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं. हालांकि शराबबंदी में फाइव स्टार होटलों को शराब परोसने की छूट होती है, लेकिन इन पांच सितारा होटलों में बहुत कम पर्यटक जाते हैं. शराबबंदी की वजह से बेरोज़गारी में बढ़ोत्तरी होती है. शराबबंदी का पहला असर डिस्टिलरीज के बंद होने के तौर पर सामने आता है. इससे कई लोगों का रोजगार छिन जाता है. इसके अलावा ठेकों, अहातों, होटलों, रेस्तराओं और परिवहन से भी कई लोगों को रोजगार मिलता है. शराबबंदी के कारण इनका रोजगार छिन जाता है. तात्कालिक परिस्थितियों में उनके पास रोजगार का कोई विकल्प शेष नहीं बचता है जिससे उनके घर-परिवार पर कोई फर्क न पड़े. ऐसे बेरोज़गार कई बार गलत राह भी अपना लेते हैं. इन सबका असर राज्य की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अपराध पर भी पड़ता है.
कुल मिलाकर देखा जाए तो शराबबंदी का निर्णय एकीकृत रूप से अच्छा है लेकिन इससे जुड़े अन्य आयामों को भी नज़रअंदाज नहीं करना चाहिए. इससे जुड़े लोगों के लिए रोजगार के वैकल्पिक स्त्रोतों की सरकार को व्यवस्था करनी चाहिए. इसके अलावा सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं पर भी ज्यादा राशि खर्च करनी चाहिए ताकि लोग शराब छोड़ने की वजह से हताहत न हों. लेकिन शराबबंदी की वजह से राज्यों को जो वित्तीय नुकसान होगा उसकी भरपाई सरकारें कैसे करेंगी? क्या इसके लिए वे करों में इजाफा करेंगी या अन्य कोई कदम उठाएंगी, यह देखना बेहद रोचक होगा.
शराब पर निर्भर राज्यों की अर्थव्यवस्था
भारत में शराबबंदी एक ऐसी कसरत है, जिसे शुरू करने के बाद हर राज्य सरकार का दम फूलने लगता है. शराब का कारोबार पूरे देश में डेढ़ लाख करोड़ रुपये सालाना का आंकड़ा पार कर चुका है. एसोचैम के अनुमान के अनुसार शराब के उद्योग में सालाना 30 फीसदी की दर से बढ़ोत्तरी हो रही है. यह एक ऐसा उद्योग है जो इसके कारोबारियों के साथ-साथ राज्य सरकारों, नेताओं, सरकारी सुरक्षा कर्मियों और चंद ठेकेदारों को मालामाल कर देता है. शराब के व्यापार से देश में सबसे अधिक पैसा तमिलनाडु सरकार कमा रही है. तमिलनाडु सरकार को शराब पर टैक्स से एक साल में 21,800 करोड़ रुपये की आमदनी हुई है. कोई भी सरकार इस कमाई को कैसे छोड़ सकती है. हालांकि साल 2014 में केरल में शराबबंदी लागू कर दी गई, जबकि वहां सरकार की कमाई का 20 फीसदी हिस्सा शराब से आ रहा था.
इससे सरकार की माली हालत तो निश्चत तौर पर खराब हुई है. कर्नाटक सरकार तो खुद शराब के थोक कारोबार में शामिल है वहां भी सरकार की कुल आय का 20 प्रतिशत हिस्सा शराब की बिक्री से आता है. साल 2015 के अंत तक मध्य प्रदेश सरकार की शराब बिक्री से होने वाली आय लगभग 8 करोड़ रुपये हो गई. मोटे तौर पर पिछले बारह सालों में मध्य प्रदेश में शराब की खपत में चार गुना और शराब से होने वाली आय में दस गुना की बढ़ोत्तरी हुई है. राजस्थान सरकार की आबकारी नीति-2015-16 में शराब से सरकार को 6,130 करोड़ रुपये की आमदनी होने का अनुमान है. वहीं साल 2016-17 में सरकार ने शराब से सात हजार करोड़ से भी ज्यादा आमदनी का लक्ष्य रखा है. सरकार की कमाई का आलम यह है कि शराब की दुकानों के आवंटन के लिए आने वाले आवेदनों की फीस से ही पिछले साल छह सौ करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई हो गई थी. बंगाल में शराब की बिक्री के मद में राजस्व आय 1477.64 करोड़ रुपये है जो कि देश के दूसरे राज्यों के मुक़ाबले बेहद कम है. शराब पूरी तरह राज्यों का विषय है इसलिए इस पर अलग-अलग राज्य सरकारों की मनमर्जी चलती है.