सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नतीजे क्या आएंगे, यह एक ऐसा प्रश्न है, जो इस समय हर शख्स के लिए दिलचस्पी का कारण बना हुआ है और इन्हीं नतीजों पर निर्भर होगा केंद्र में आगामी सरकार का प्रारूप. एक आम रुझान यह है कि इस बार किसी एक राजनीतिक पार्टी को बहुमत नहीं मिलने जा रहा है और इस स्थिति में आठवीं बार त्रिशंकु लोकसभा अस्तित्व में आएगी. वह त्रिशंकु लोकसभा, जिसने 1989 के चुनाव के बाद सात बार से देश का पीछा नहीं छोड़ा है. ग़ौरतलब है कि 1989 में भारत में पहली बार किसी भी पार्टी को बहुमत न मिलने के कारण त्रिशंकु लोकसभा अस्तित्व में आई थी और कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के लिए बाहर से भाजपा के समर्थन से वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की गठबंधन सरकार बनाई गई थी. 1991 में भी यही स्थिति रही और तब अल्पमत में रहने के बावजूद कांग्रेस ने पीवी नरसिम्हाराव के नेतृत्व में सरकार बनाई. फिर 1996 में त्रिशंकु लोकसभा अस्तित्व में आई, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा किसी से समर्थन लेकर सरकार न बनाने के कारण दो साल के लिए संयुक्त मोर्चे की सरकार कायम हो गई. 1998 में भी त्रिशंकु लोकसभा का जादू सिर चढ़कर बोलता रहा. तब वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए के अंतर्गत गठबंधन सरकार बनी, मगर एक साल बाद हुए मध्यावधि चुनाव में भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और वाजपेयी गठबंधन सरकार चलाते रहे. 2004 में भी त्रिशंकु लोकसभा देश पर सवार रही. तब डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने अन्य पार्टियों के समर्थन से यूपीए के अंतर्गत सरकार बनाई.
अगर आम रुझान सच साबित होता है और 2014 के चुनाव में 8वीं बार त्रिशंकु लोकसभा अस्तित्व में आती है, तो यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इस बार गठबंधन सरकार कौन बनाएगा, कांग्रेस की नेतृत्व वाली यूपीए या भाजपा की अगुवाई वाला एनडीए या वामपंथी पार्टियों के प्रभाव में कोई तीसरा मोर्चा? इस बात की भी संभावना है कि यूपीए एवं एनडीए, दोनों को अन्य पार्टियों से समर्थन तो लेना ही पड़ेगा और यह तभी संभव है, जब किसी तीसरे मोर्चे का अस्तित्व में आना संभव न हो. जहां तक किसी तीसरे मोर्चे की बात है, वर्तमान स्थिति में इसकी निर्भरता बड़ी हद तक चुनाव में वामपंथी पार्टियों के प्रदर्शन पर है.
इस सिलसिले में उचित यह होगा कि सर्वप्रथम 15वीं लोकसभा में वामपंथी पार्टियों की स्थिति देखी जाए. 15वीं लोकसभा में पश्चिम बंगाल से कुल 42 सदस्यों में वाममोर्चा के 16 व्यक्ति थे, यानी माकपा के 9, भाकपा, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के दो-दो एवं सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया का एक. जबकि केरल से कुल 20 सदस्यों में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट के पांच व्यक्ति थे, जिनमें सीपीएम के चार और केरल कांग्रेस (एम) का एक.
जहां तक पश्चिमी बंगाल की बात है, वहां 2011 में हुए विधानसभा चुनावों में 1977 से काबिज वाममोर्चा के उखड़ने के बाद राज्य में उसकी स्थिति बहुत कमजोर हो गई है. इसलिए 2014 के संसदीय चुनाव में उसके सदस्यों की संख्या 16 से घटकर आधा दर्जन तक पहुंच सकती है. केरल में तो पिछली बार इसके मात्र पांच सदस्य ही निर्वाचित होकर लोकसभा पहुंचे थे, जबकि 2004 में 14वीं लोकसभा में यह संख्या 13 थी. वैसे इस वास्तविकता से इंकार नहीं किया जा सकता कि केरल एवं केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस से आम मतदाता दूर हो चला है और इसका फायदा लेने के लिए वहां एलडीएफ आशावान है कि वह अपनी स्थिति बेहतर बनाएगा, मगर अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि राज्य में कौन बाजी मारेगा, एलडीएफ या यूडीएफ? स़िर्फ इतना कहा जा सकता है कि एलडीएफ केरल में अपनी सीटों में बढ़ोतरी अवश्य करेगा और शायद दस सीटों तक पहुंच जाएगा.
ऐसी अवस्था में यह सवाल भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि पश्चिम बंगाल में आधा दर्जन और केरल में अधिकतम दस सीटों के बल पर वामपंथी पार्टियां अन्य दलों के समर्थन से तीसरे मोर्चे को अस्तित्व में लाने में कामयाब हो पाएंगी? अन्य राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु एवं त्रिपुरा से तो उम्मीद नहीं के बराबर है. ग़ौरतलब है कि पश्चिमी बंगाल में वाममोर्चा के उम्मीदवार सभी 42, त्रिपुरा में 2, अन्य राज्यों में 25, एलडीएफ के केरल में 15 समेत अन्य राज्यों में 88 सीटों पर उम्मीदवार खड़े हुए हैं. इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत जी-तोड़ परिश्रम के बावजूद वामपंथी पार्टियां इस स्थिति में नहीं आ पाएंगी कि वे किसी तीसरे मोर्चे को अस्तित्व में लाने में प्रभावी भूमिका अदा कर सकें. स्पष्ट है कि यह सारी स्थिति किसी तीसरे मोर्चे की संभावना को रद्द कर देती है. 2014 के चुनाव के बाद संभावित तीसरे मोर्चे की पार्टियों के पास इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं होगा कि वे यूपीए या एनडीए का रुख करें और केंद्र में किसी गठबंधन सरकार को कायम करने में मदद करें.
तीसरे मोर्चे की सरकार की संभावना बहुत कम
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