बचपन में स्कूलों में पढ़ाया जाता था कि गुरु का महत्व भगवान से भी बढ़कर होता है क्योंकि गुरु ही हमें इस योग्य बनाता है जिससे हम भगवान की बनाई दुनिया में सभ्य तरीके से रह सकें. संस्कृत का यह श्लोक बचपन में सभी ने पढ़ा है…गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:, गुरु: साक्षात् परंब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:. इसका अर्थ है…गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु ही शंकर है, गुरु साक्षात् परब्रह्म है, ऐसे सद्गुरु को प्रणाम.
आज यानि बुधवार को टीचर्स डे है. पूरे देश में लोग अपने टीचर्स को सोशल मीडिया, लेटर्स और ग्रीटिंग के जरिए बधाई दे रहे हैं और मन में बसे भावों को लिखकर जाहिर कर रहे हैं. ऐसे में कई लोगों के मन में यह सवाल जरूर उठ रहा होगा कि आखिर 5 सितंबर को ही टीचर्स डे क्यों मनाया जाता है? इसके लिए कोई और दिन क्यों नहीं चुना गया?
5 सितंबर को टीचर्स डे मनाने की यह है वजह
5 सितंबर को टीचर्स डे मनाने की वजह जानने से पहले आपको इस बात पर गौर करना होगा कि इस दिन देश के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म हुआ था. 20वीं सदी में वह भारत के सबसे प्रभावशाली विद्वानों में से एक थे. राधाकृष्णन मैसूर (1918-21), कोलकाता (1921-31, 1937-41) यूनिवर्सिटी में फिलोसपी के प्रोफेसर रहे थे.
इसके अलावा वह ऑक्सफोर्ड (1936-52) में ईस्टर्न रिलीजन और नैतिकता के भी प्रोफेसर रहे. डॉ राधाकृष्णन ने आंध्र यूनिवर्सिटी, बीएचयू और दिल्ली यूनिवर्सिटी में कुलपति की जिम्मेदारी निभाई और उन्हें 27 बार नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था. जिसमें वह 16 बार लिटरेचर और 11 बार नोबेल पीस प्राइज के लिए नॉमिनेट हुए थे. शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान की वजह से ही उनके जन्मदिन को टीचर्स डे के रूप में मनाया जाता है. शिक्षक दिवस की शुरुआत 1962 में डॉ. राधाकृष्णन के सम्मान में की गई थी.
आखिर कौन थे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
डॉ. राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को एक मिडिल क्लास फैमिली में हुआ था. उनके पिता चाहते थे कि बेटा अंग्रेजी की पढ़ाई न करे बल्कि मंदिर का पुजारी बने. लेकिन राधाकृष्णन का मन तो पढ़ाई में लगता था. इसलिए उन्होंने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में फिलोसपी की पढ़ाई की. वह इतने प्रतिभावान थे कि शिकागो यूनिवर्सिटी ने उन्हें तुलनात्मक धर्मशास्त्र पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया था.
1949 से 1952 तक डॉ राधाकृष्णन USSR के राजदूत रहे और 1952 से 1962 तक देश के उपराष्ट्रपति पद की जिम्मेदारी संभाली. 1954 में उन्हें भारत रत्न के सर्वोच्च सम्मान से भी सम्मानित किया गया. 1962 से 1967 तक वह देश के राष्ट्रपति रहे थे. वह मानते थे कि एक दार्शनिक का काम सिर्फ लोगों को पढ़ाना नहीं है, बल्कि भविष्य की ओर बढ़ते हुए इतिहास को भी पकड़े रखना है.
भारत और रूस की दोस्ती कराने में भी राधाकृष्णन का महत्वपूर्ण योगदान था. मास्को में वह भारत के राजदूत रहे थे. अंग्रेजी सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया था.
हर हाल में शिक्षक ही रहे डॉ. राधाकृष्णन
वे दार्शनिक होने के साथ-साथ धर्म के व्याख्याता भी थे, उन्होंने सेना के सर्वोच्च कमांडर के रुप में देश की दो लड़ाइयों में नेतृत्व किया लेकिन इन सारी भूमिकाओं के बीच वह खुद को एक शिक्षक ही मानते रहे.
जब वह राष्ट्रपति थे, तब उनका जन्मदिन मनाने के लिए लोगों ने उनसे इजाजत मांगी लेकिन उन्होंने मना कर दिया और कहा कि अगर आप सम्मान करना ही चाहते हैं तो देश के शिक्षकों का करें. डॉ. राधाकृष्णन हमेशा कहा करते थे कि पढ़ाई में अच्छे लोगों को हमेशा शिक्षक बनना चाहिए. इसलिए पूरा देश उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है.
जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने थे तब बर्टेंड रसेल ने कहा था कि ‘दर्शनशास्त्र के लिए बड़े गर्व की बात है कि डॉ. राधाकृष्णन भारत के राष्ट्रपति बने हैं और एक दार्शनिक के रूप में मुझे इसकी खास खुशी हो रही है. प्लेटो की इच्छा थी कि दार्शनिक को राजपद मिले और भारत को बड़भागी माना जाएगा जो उसने एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाया है.’