नई दिल्ली: हाथ से मैला ढोने की प्रथा को सब से अधिक बल शुष्क शौचालयों से मिलता है. इस सिलसिले में भी 2011 जनगणना के रजिस्टर में घालमेल करने का आरोप है, क्योंकि सामाजिक, आर्थिक एवं जातीय जनगणना के फॉर्म में शुष्क शौचालय के बजाय गंदा अनसेनेटरी टॉयलेट का कॉलम लाकर इसे शब्दों में उलझा दिया गया. सवाल यह भी है कि शुष्क शौचालय किस वर्ग के लोगों के यहां और किस क्षेत्र में अधिक पाए जाते हैं.
स्वच्छ भारत अभियान के तहत जो शौचालय बन रहे हैं और कैसे उनका इस्तेमाल हो रहा है, इस पर चौथी दुनिया कई रिपोर्ट प्रकाशित कर चुका है. स्वच्छ भारत अभियान में मैला ढोने से मुक्ति जैसी कोई बात नहीं कही गई है, सारा जोर स़िर्फ शौचालय निर्माण पर है. ज़ाहिर है, जब देश में करोड़ों शौचालय बनेंगे और उनके सेप्टिक टैंक की सफाई का कोई मैकेनिकल बंदोबस्त नहीं होगा, तो उसे किसी इंसान को ही सा़फ करना होगा. यानी यह अमानवीय प्रथा बदस्तूर जारी रहेगी और सेप्टिक टैंकों में सफाई कर्मियों की मौत होती रहेगी. रेलवे के खुले टॉयलेट्स मानव मल रेलवे ट्रैक्स पर गिरा देते हैं, जिसे कोई सफाई कर्मी अपने हाथों से सा़फ करता है. इस वर्ष रेल डब्बों में 40,000 बायो-टॉयलेट्स उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया है.
मैला प्रथा से जुड़े ज़्यादातर लोग अनुसूचित जाति के हैं, जो सैकड़ों वर्षों से छुआछूत के शिकार हैं. लेकिन, सफाई कर्मियों की विडंबना यह है कि उनका काम उन्हें अनुसूचित जातियों में भी सबसे निचले पायदान पर खड़ा कर देता है. उन्हें अपनी जाति के बहिष्कार का भी सामना करना पड़ता है. सरकारों ने तो कानून बना दिया है. अदालतें भी सरकारों को आदेश जारी करती रहती हैं, लेकिन सरकारी स्तर पर इस सम्बन्ध में कुछ होता दिखाई नहीं देता. सफाई कर्मियों का सर्वे नहीं हुआ है. उनके पुर्नवास के लिए बजट में हर साल कमी की जा रही है. ले-देकर कौशल विकास पर तान तोड़ दिया जाता है.
कौशल विकास की खस्ताहाली जगजाहिर है. किसी व्यक्ति को सीवर और सेप्टिक टैंक में बिना सही उपकरण के सफाई करवाना कानूनन जुर्म है, जिसके लिए 10 साल की कैद और 5 लाख रुपए तक जुर्माने का प्रावधान है. अगर सफाई कर्मचारी आन्दोलन के आंकड़ों को सही मान लिया जाए, तो 1327 मौतों के बाद बेंगलुरू में पहली बार गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज किया गया है. पहले ऐसे मामलों में लापरवाही से हुई मौत का मामला दर्ज किया जाता था. इसमें कोई शक नहीं कि चाहे मौजूदा सरकार हो या इससे पहले की सरकार, उनकी कथनी और करनी में बहुत अंतर रहा है. अब तक की जो स्थिति है, उससे ज़ाहिर होता है कि मैनुअल स्केवेंजिंग के प्रति न तो पहले की सरकारें गंभीर थीं और न ही मौजूदा सरकार गंभीर दिख रही है. इसलिए नागरिक समाज को ही आगे आकार इस कलंक से समाज को मुक्त करना पड़ेगा.