राज्यसभा चुनाव में सुशील कुमार मोदी की जगह गोपाल नारायण सिंह का नाम सामने आते ही मोदी विरोधियों की बाछें खिल गईं. राजनीतिक विश्लेषकों ने कहना शुरू कर दिया कि बिहार में अब मोदी युग का अंत हो गया. वहीं सत्ता के गलियारों में चर्चा होने लगी कि आलाकमान ने बिहार विधानसभा चुनाव हारने की सजा सुशील मोदी को दी है. भाजपा सांसद भोला प्रसाद ने तो यहां तक कह दिया कि जैसे मुलायम सिंह के लिए अमर सिंह हैं, वैसे ही नीतीश कुमार के लिए सुशील मोदी हैं. हद तो तब हो गई जब जदयू के प्रवक्ताओं ने भी सुशील मोदी के लिए सहानुभूति भरे बयान जारी करने शुरू कर दिए. लेकिन क्या सही में सुशील मोदी का कद भाजपा और बिहार में घटा है.
आज की तारीख में यह ऐसा सवाल है जिसका जबाव ढूंढने के लिए भाजपा और सुशील मोदी दोनों की कार्यशैली और राजनीति को समझना जरूरी है. बिहार और भाजपा की राजनीति की समझ रखने वाले कुछ राजनीतिक पंडितों का मानना है कि दरअसल राज्यसभा और विधान परिषद के लिए हुए चुनावों में सुशील मोदी भले कमजोर दिख रहे हों, लेकिन सच्चाई यह है कि सुशील मोदी का कद बढ़ा है, घटा नहीं है. सुशील मोदी के विरोधियों का कहना है कि मोदी दिल से चाहते थे कि वे राज्यसभा के मार्फत दिल्ली की नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री बन जाएं. ऐसा इसलिए भी मोदी सोच रहे थे, सामान्य हालात में फिलहाल पांच साल तक तो बिहार में सत्ता बदलनी नहीं है. जहां तक लोकसभा की बात है तो पिछली बार भी उन्होंने चुनाव लड़नेे से मना कर दिया था. विरोधी अनुमान लगा रहे हैं कि शायद सुशील मोदी ऐसा चाहते थे कि दो तीन साल तक केंद्र में मंत्री रहते और अपनी पैठ दिल्ली की राजनीति में भी मजबूत कर ली जाए, ताकि अगले विधानसभा चुनाव में कोई परेशानी न हो. प्रदेश की राजनीति में अब पहले वाली बात नहीं रही.
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नेता विपक्ष प्रेम कुमार अब हर घटना पर बयान देते हैं और घटनास्थल पर भी जाते हैं. यही काम फिर सुशील मोदी करते हैं. ऐसी स्थिति से बचने के लिए ही सुशील मोदी की दिली इच्छा दिल्ली जाने की थी, लेकिन कई कारणों से वे पटना में ही रह गए. जानकार सूत्र बताते हैं कि दिल्ली में बैठे आलाकमान को बताया गया कि विधान परिषद में अभी मोदी के दो साल बचे हैं इसलिए उनको मौका देना ठीक नहीं होगा. मौका दिया गया तो फिर खाली सीट पर प्रत्याशी देना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि सुशील मोदी इसके लिए हर हाल में अपने समर्थक का नाम आगे करेंगे. दूसरा तर्क यह दिया गया कि विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के लिए ज्यादातर कार्यकर्ता सुशील मोदी को जिम्मेदार ठहराते हैं इसलिए अगर उन्हें राज्यसभा का लॉलीपॉप दिया गया तो कार्यकर्ताओं के बीच सही संदेश नहीं जाएगा. दूसरी तरफ गोपाल नारायण सिंह ने अपनी दिल्ली की किलाबंदी बेहद मजबूत कर ली थी. चुनाव हारने के बाद वे अपने इसी एजेंडे पर काम कर रहे थे. जानकार बताते हैं कि सिंह ने भाजपा के राज्यसभा सांसद आरके सिन्हा के रास्ते को अपनाया और कामयाबी हासिल कर ली. उन्होंने चाक-चौबंद रणनीति से अपने पुराने विरोधी सुशील कुमार मोदी को चारों खाने चित्त कर दिया.
भाजपा के सूत्र बताते हैं कि शिकस्त खाने के बाद सुशील मोदी के समर्थक यह अफवाह फैला रहे हैं कि वे कभी इस रेस में थे ही नहीं. लेकिन अगर रेस में नहीं थे या फिर दिल्ली जाने की इच्छा नहीं थी तो मोदी का नाम राज्सभा के संभावित उम्मीदवारों की लिस्ट मेें कैसे आ गया. उन्होंने उस सूची का कभी खंडन क्यों नहीं किया. हकीकत यह है कि सुशील मोदी की इस चुनाव में नहीं चली और वे गोपाल नारायण सिंह से पिछड़ गए. लेकिन इन बातों से अलग सुशील मोदी के समर्थक कुछ और तर्क देते हैं. भाजपा में सुशील मोदी समर्थकों का कहना है कि दरअसल दिल्ली जाने जैसी कोई बात थी ही नहीं. मोदी के एक समर्थक नेता ने ही उनका नाम प्रस्तावित कर दिया था. सुशील मोदी को जानने वाले यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि वे कोई हल्की बात न कहते हैं और न करते हैं. सूत्र बताते हैं कि सुशील मोदी पटना में ही रहकर अपनी पकड़ पहले से ज्यादा मजबूत बनाने में लगे हैं. जदयू और राजद के बीच कभी-कभी होने वाली तनातनी से वे काफी उत्साहित हैं. उन्हें लगता है कि बिहार की राजनीतिक परिस्थितियां कभी भी बदल सकती हैं. मोदी समर्थक बताते हैं कि परिषद की दोनों सीटों पर अपने लोगों को भेजने में सुशील मोदी सफल रहे हैं. जानकार बताते हैं कि राज्यसभा और परिषद से कहीं अधिक ध्यान वे प्रदेश अध्यक्ष के मामले में दे रहे हैं.
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वे पूरी कोशिश कर रहे हैं कि मंगल पांडेय को ही दूसरा मौका दे दिया जाए. तर्क यह है कि यूपी चुनाव को देखते हुए मंगल पांडेय को हटाना ठीक नहीं होगा. इससे ब्राह्मण वोटरों में ठीक संदेश नहीं जाएगा. वहीं, विरोधी कहते हैं कि मंगल पांडेय के अध्यक्ष रहते भाजपा की बिहार में बुरी हालत हुई इसलिए उन्हें हटाना जरूरी है. एक हारा हुआ सेनापति अपनी सेना का नेतृत्व कैसे कर सकता है. गौरतलब है कि बिहार में विधानसभा और विधान परिषद में नेता विपक्ष की कमान पिछड़े और अतिपिछड़े के पास होने के कारण प्रदेश की कमान किसी सवर्ण को देने की कवायद जारी है. सुशील मोदी खेमा चाहता है कि अगर मंगल पांडेय पर बात नहीं बनी तो फिर सुधीर शर्मा विनोद नारायण या फिर राजनीति सिंह के हाथों में कमान सौंप दी जाए. ये तीनों सुशील मोदी के खासमखास माने जाते हैं, लेकिन उनका विरोधी खेमा चाहता है कि हर हाल में यह कोशिश हो कि सुशील मोदी के किसी चहेते कोे पार्टी की कमान नहीं मिले.
इसमें जनार्दन सिंह सीग्रीवाल और सीपी ठाकुर का नाम सबसे आगे है. ये दोनों नेता खुद अपनी दावेदारी मजबूती से जता रहे हैं. चर्चा गिरिराज सिंह और राधामोहन सिंह की भी है पर जोर नहीं पकड़ रही है. कहा जा रहा है कि मानसून सत्र के बाद बिहार के प्रदेश अध्यक्ष के बारे में फैसला ले लिया जाएगा. यही वजह है कि सभी दावेदार दिल्ली में डेरा जमा अपनी अपनी दावेदारी मजबूत करने में लगे हैं. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि सुशील मोदी की ताकत का असली आकलन अध्यक्ष पद के लिए होने वाले चुनाव में होगा. अगर सुशील मोदी अपने किसी समर्थक को प्रदेश की कमान दिलाने में सफल रहे तो यह मान लिया जाएगा कि बिहार भाजपा में उनका जादू बरकरार है. लेकिन अगर किसी कारण से ऐसा नहीं हो पाया तो मौटे तौर पर यह राय बनाने में आसानी होगी कि बिहार भाजपा में सुशील मोदी का कद घट रहा है.