अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक
बाॅलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत, फिर उसकी गर्ल फ्रेंड रिया चक्रवर्ती से पूछताछ और उसकी गिरफ्तारी का थ्रिल, इसी पृष्ठभूमि में भाजपा और शिवसेना के बीच राजनीतिक लंगड़ीबाजी, फिर रिजर्व में रखी तोप की तरह मुखर अभिनेत्री कंगना रनौत की शिवसेना नेता संजय राउत पर लगातार गोलाबारी, जवाबी कार्रवाई के रूप में कंगना के दफ्तर का विध्वंस और अब इस ‘राष्ट्रीय मुद्दे’ को क्षेत्रीय अस्मिता के केक के रूप में काटने की तैयारी।
इस पूरे प्रकरण के दौरान टीवी न्यूज चैनलों का टीआरपी नेग के लिए प्रहसन के प्रमुख पात्रों के दर पर 27×7 डांस। और ये सब देखकर राजनीतिक दलों का मंद-मंद मुस्काना कि जो घट रहा या जो पेश किया जा रहा है, वह सब कुछ तयशुदा स्क्रिप्ट के मुताबिक ही है। यानी एकदम एक्शन पैक्ड नौटंकी। जिसमें बोले जा रहे डायलाग भी पहले से तय। अदायगी का अंदाज भी पूर्व निर्धारित। मानो एक वायरलैस सिस्टम, जो हर स्तर पर काम कर रहा है पर आंखों से नजर नहीं आ रहा। बावजूद इसके निशाने-प्रति निशाने ठीक जगह लग रहे। मूल रूप से एक दुखद और संवेदनशील घटनाक्रम का निहायत भौंडे तरीके से राजनीतिक अनुवाद इस बात का साफ संकेत है कि अब देश में 21 वीं सदी की राजनीति की दिशा, तेवर और तासीर क्या होगी? यानी मुद्दे वर्चुअल होंगे और चेहरे एक्चुअल होंगे। मानवीय चेहरों के मास्क में सत्ता की लड़ाइयां लड़ी जाएंगी? इस मायने में कंगना और रिया जैसी अभिनेत्रियां और माॅडल भाजपा और विपक्ष की नई खोज और चेहरा हैं।
यह बात राजनीतिक रूप से निरक्षर व्यक्ति भी साफ समझ रहा है कि सुशांत प्रकरण को रबड़ की तरह खींचने के पीछे असल मंशा सुशांत को न्याय दिलाना कम अपने ‘राजनीतिक न्याय’ और ‘मीडिया ट्रायल’ का औचित्य साबित करना ज्यादा है। संयोग से इसमें दो फैक्टर और जोड़ दिए गए हैं। वो है बिहार का विधानसभा चुनाव और महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व वाली महाआघाड़ी सरकार के किले में तगड़ी सेंध लगाना। हिंदूवादी उद्धव ठाकरे का सत्ता के लिए कांग्रेस की गोद में बैठ जाना भाजपा को रत्ती भर नहीं सुहा रहा। लेकिन राकांपा सुप्रीमो शरद पवार के वशीकरण मंत्र का कोई तोड़ अभी भी उसके पास नहीं है। इसकी राजनीतिक भरपाई दूसरे राज्यों में सरकारें गिराकर, अपनी बनाकर करके की जा रही है। इस बार अंतर इतना है कि अमूमन पर्दे पर फिल्मी कहानियां जीने वाले बाॅलीवुड को भी सार्वजनिक मंच पर अपने किरदार अदा करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। शायद इसीलिए महाभारत के कौरव-पांडव की तरह रिया-कंगना का बंटवारा भी कर लिया गया है। क्षेत्रवाद, जातिवाद, जेंडर भेदभाव, सहानुभूति और निष्ठुरता इस नाट्य के प्रमुख अंग हैं। सुशांत मौत प्रकरण में मुंबई पुलिस की कार्यशैली और इस मामले में महाराष्ट्र सरकार के रोल पर सवाल खड़े करते हुए शुरू में इसे एक बिहारपुत्र को न्याय दिलाने के रूप में पेश किया गया। रिया की सीबीआई जांच अभी चल रही है, लेकिन मीडिया कोर्ट में वह दोषी साबित हो चुकी है। संयोग से उसका ड्रग्स कनेक्शन भी निकल आया। इससे उसे सींखचों में डालना और आसान हो गया। ‘सुशांत’ और ‘रिया’ के बहाने हमे यह भी बताया कि यह ठाकुर बनाम ब्राह्मण लड़ाई भी है। इसके जवाब में बंगाल के कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी ने याद दिलाया कि रिया तो बंगाली ब्राह्मण है। इस खुलासे में छिपी चेतावनी ये थी कि भाजपा यह न भूले कि अगले साल पश्चिम बंगाल में भी विधानसभा चुनाव होने है और सुशांत प्रकरण में ‘रिया’ के साथ हुए ‘अन्याय’ की कहानियां भाजपा को राजनीतिक रूप से महंगी पड़ सकती हैं। इसमें एक संदेश यह भी गया कि बिहार में जद यू-भाजपा को ठाकुर और विपक्षी राजद कांग्रेस को ब्राह्मण वोटो की ज्यादा चिंता है। इस धारावाहिक में तब तक कंगना की भूमिका उस एक्स्ट्रा कलाकार की तरह थी, जो बगैर स्क्रिप्ट अपने ही डायलाग दागे जा रही थी। उसकी इस बोल्ड नेस को राजनीतिक जामा पहनाते हुए उसे ‘वीरांगना’ की तरह पेश किया जाने लगा। भाजपा को उसकी राजनीतिक उपयोगिता समझ आई और कंगना को संवाद ‘प्राम्प्ट’ किए जाने लगे। लिहाजा यह लड़ाई अब स्त्री अस्मिता पर कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की ‘चुप्पी’ पर प्रश्नचिन्ह तक पहुंच गई है। अब सोनिया गांधी के सामने दिक्कत यह है कि वो किसके पक्ष में बोलें? किसके साथ हुए अन्याय को ‘अन्याय’ मानें। रिया के साथ हो रहे ‘सलूक’ को या कंगना के साथ हुए ‘टाॅर्चर’ को? यूं कंगना ने अपने लड़ाकूपन, मुखरता और प्रभावी अभिनय से अपनी अलग जगह बनाई है। कई लोगो को उनमें एक नई ‘झांसी की रानी’ दिख रही है, जो अपने वजूद की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाकर लड़ सकती है। उधर रिया भी ‘घूरती निगाहों’ के बीच अपनी लड़ाई लड़ रही है। गहराई से देखें तो भाजपा को स्मृति ईरानी के बाद एक ऐसे आकर्षक और दबंग चेहरे की तलाश थी, जो नई पीढ़ी को प्रभावित कर सके। उसे अपने रंग में रंग सके।
इस महानाट्य के दूसरे अंक में क्षेत्रवाद की राजनीति उभरी। बताया गया कि कंगना केवल मुखर अभिनेत्री ही नहीं, हिमाचल की बेटी भी है। रहती भले मुंबई में हो। इस हिसाब से सुशांत ‘बिहार का बेटा’, रिया ‘बंगाल की बेटी’, कंगना ‘हिमाचल की सुकन्या’ और नाटक का मंचन स्थल महाराष्ट्र। यहां फिर एक नया पेंच। संजय राउत की अभद्र-सी टिप्पणी से नाराज कंगना ने मुंबई को ‘पीओके’ बता दिया। यानी हिट विकेट वाली स्थिति। इसे शिवसेना ने तुरंत मुंबई और महाराष्ट्र की अस्मिता पर हमला बता दिया। इस ‘गुगली’ पर महाराष्ट्र के बीजेपी नेता पेवेलियन में जा छिपे। कुछ लोगों ने माना कि कंगना के इस बयान ने वाक युद्ध में पीछे हटती शिवसेना को नई संजीवनी दे दी। इस पर तोड़ निकाला गया कि भाजपा अब राज्य में बैक स्टेज का काम संभालेगी। ऐसे में उस दलित चेहरे, आरपीआई नेता और आशु कवि रामदास आठवले की एंट्री हुई जो कंगना के पास शांति का संदेश लेकर गए। उनकी कुशलक्षेम पूछी। जबकि आठवले का पूरे मामले से कहीं कोई लेना-देना नहीं था। आठवले का किरदार इस ड्रामे में किसी गेस्ट आर्टिस्ट की माफिक ही था। जैसे ही ‘मुंबई की अस्मिता’ का मुद्दा ढीला पड़ा, भाजपा कंगना के पक्ष में खुलकर आ गई। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने सवाल उठाया कि ठाकरे सरकार कंगना का दफ्तर ढहा सकती है, लेकिन दाउद का घर तोड़ने में उसके हाथ क्यों कांपते हैं। उधर शुरू में कंगना प्रकरण का सियासी नुकसान नापने वाले शरद पवार ने कंगना का दफ्तर ढहाने का सारा ठीकरा बीएमसी पर फोड़ा। गोया बीएमसी ( बाॅम्बे म्युनिसिपल कारपोरेशन, जिस पर बरसो से शिवसेना का कब्जा है) कोई विदेश मंत्रालय हो। यह बयान कुछ वैसा ही है कि दायां हाथ कहे कि मुझे बाएं का क्या पता?
इस पूरे घटनाक्रम की न्यायिक परिणति क्या होगी, कहना मुश्किल है। कोई दोषी साबित भी होगा अथवा नहीं, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। लेकिन राजनीति के जौहरियों ने इस दलदल में भी अपने भावी हीरे तलाश लिए हैं, यह तय है। आश्चर्य नहीं कि कल को कंगना राष्ट्रवाद का नया और युवा चेहरा बन कर पेश हो तो रिया सेक्युलर राजनीति का नया मुखौटा बने। साथ ही दोनो महिला प्रताड़ना का जिंदा प्रतीक भी होंगी। दोनो का उद्भव ‘मीडिया के अग्निकुंड’ से हुआ होगा। दोनो को लड़ाया जाएगा, लेकिन बांग पहले से तय होगी। कुलमिलाकर यह नई राजनीति की नई चाल है। क्योंकि सियासत की पुरानी रेसिपी में विचार को व्यक्ति के मार्फत आगे बढ़ाया जाता था, अब व्यक्ति के रैपर में विचार को लपेट कर राजनीति के पांसे फेंके जाने लगे हैं। या यूं कहें कि एक मनोरंजक किस्म की राजनीति हमारे रूबरू होगी, जिसका घर-आंगन एक ही होगा। ड्राइंग रूम और किचन रूम भी सेम होगा। इस नई वास्तु में मीडिया की भूमिका ढोल-ताशे बजाने और आम जनता की भूमिका ताली पीटने वालों की होगी।
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