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सुप्रीम कोर्ट की एक पांच जजों की बेंच ने बुधवार को कहा कि विवाहेतर संबंधों (अडल्ट्री) के लिए केवल पुरुषों को सजा देना प्रथम दृष्टया संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत मिले समानता के अधिकार का उल्लंघन है. पहले इस मामले को सात सदस्यीय  बेंच में भेजने का फैसला किया था, लेकिन फिर इस पर खुद सुनवाई करने का फैसला किया. 1954 में चार जजों की बेंच ने इस आधार पर धारा 497 की वैधता को बरकरार रखा था, क्योंकि अनुच्छेद 15 के तहत महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष कानून की अनुमति है.

अगर एक व्यक्ति पराई महिला के साथ उसके पति की अनुमति के बगैर शारीरिक संबंध रखता है, तो उसे पांच वर्ष तक की जेल की सजा हो जाती है. महिला इस कृत्य में पुरुष की सहभागी होती है, लेकिन उसे कोई सजा नहीं मिलती है. यह आज के समय में समझ के बाहर है.

वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि अगर कोई पुरुष किसी शादीशुदा महिला से उसके पति की मर्जी से संबंध बनाता है, तो धारा 497 के हिसाब से यह अपराध की श्रेणी में नहीं आता. ऐसा इसलिए क्योंकि महिला को उसकी पति की संपत्ति समझा गया है. चीफ जस्टिस के नेतृत्व वाली बेंच ने कहा कि अगर संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करने के लिए अडल्ट्री को खत्म किया जाता है, तो न तो पुरुष और न ही महिला, दोनों में किसी को भी सजा नहीं मिलेगी. बेंच ने कहा कि अडल्ट्री तलाक और अन्य सिविल फैसलों का आधार हो सकती है.

प्रधान न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने कहा, ‘अनुच्छेद 14 के उल्लंघन को देखते हुए यदि व्यभिचार को एक अपराध के रूप में खारिज कर दिया जाता है, तो न तो पुरुष और न ही महिला को सजा मिल सकेगी. अपने हलफनामे में केन्द्र सरकार ने कहा कि धारा 497 को गैर अपराधिक बनाया तो शादी नाम के संस्थान में तूफान आ जाएगा.

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