खान अशु
कहने, लिखने, भावनाएं जाहिर करने की स्वतंत्रता सबका संवैधानिक अधिकार….! सोशल मीडिया ने इस आजादी में और इजाफा कर दिया…! उंगलियों को जुंबिश दी, कुछ भी लिख दिया…! पढ़े लिखों के जाहिल समाज में नफरतों की आंधियां पसारने के लिए आसान बेवकूफ हर तरफ बिखरे पड़े हैं…! थोड़ा सा धार्मिक तड़का, थोड़ी सी कंधा पुशाई और रिमोट पर नाचने वाले गुड्डे तैयार…!
कुछ सोशल मीडियाई लपडझंडूसों को नफरत फैलाने वालों ने याद दिलाया गया कि डेढ़ दशक पहले एक शायर ने किसी कवि सम्मेलन में पार्टी खास के एक नेता विशेष(जिन्हें गुमनामी की मौत का इंतजार करने के लिए तन्हा छोड़ दिया गया था) के घुटनों का मज़ाक बनाया था…!
बस तभी से इनकी “टॉमी छू” भावनाएँ अपने नुकीले दाँत दिखा दिखाकर दुनिया से विदा हो चुके इस शायर पर भौंक रही है….! “टॉमी छू” भावनाएँ कहना इसलिए जरूरी है, क्योंकि इन अकल के अंधों की भावनाओं का रिमोट कंट्रोल एक खास जगह से नियंत्रित किया जाता है…! कब, कहाँ, कैसे और किस पर आहत होनी है ये ऊपर से तय होता है…!
वरना सहनशीलता की हद तो यह है कि इन्हीं दिवंगत नेता जी को शराबी, वैश्याखोर और ब्रिटिशों का दलाल कहने वाला सम्मान से इनके बीच अा बैठता है, किसी की आवाज नहीं निकलती….!
मुंह तब भी दही जमा हुआ महसूस होता है, जब रामायण के पात्रों की तुलना शराब के अलग अलग ब्रांड से करने वाले समाजवादी सांसद को खुद पार्टी मुखिया नारंगी पट्टा गले में डालकर अपना बना लेते हैं….!
खामोशी का दौर तब भी सन्नाटा बनकर ही पसरा रहता है, जब पार्टी के सबसे बुजुर्ग नेता जिन्ना को “सच्चा सेक्युलर” कहते हुए उसकी कब्र पर नाक रगड़ आते हैं….! “सैनिक तो होते ही मरने के लिए है” कहने वाले विधायक को भी पार्टी प्रवेश देने में कोताही नहीं की जाती, सबकी बोलती तब भी बंद ही रहती है….!
मुंह खोलने का फरमान तब जारी किया जाता है, जब अंतरराष्ट्रीय ख्याति रखने वाला शायर दुनिया से विदा होता है…! इसके खिलाफ भौंकने की वजह सिर्फ यही काफी है कि शायर एक कौम खास से ताल्लुक रखता है…!अगर राष्ट्रवाद, देशभक्ति, धार्मिक आस्था जैसी चीजें ड्रग्स हैं तो इनके सहारे अपने मतलब साधने वालों को इस फील्ड के ड्रग माफिया कहना गलत नहीं होगा…!
पुछल्ला
नैतिकता की पिपड़ बजाने वालों की अनैतिकता!
नेता जी को कुछ अनर्गल(?) कहने से नाराज़ होने वाले वरिष्ठ से कुछ ज़्यादा माने जाने वाले संपादक महोदय की बीमार माता जी अपने बेटे के दीदार की आस में तड़प रही थीं, बेटा खुद में मस्त नहीं पहुंचा, न उनका आने का मन था। नैतिकता निभाने के लिए एक कनिष्ठ संपादक जी और उनके सहयोगी रिपोर्टर को आगे आना पड़ा था।
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