लाहौर षडयंत्र केस के ऐतिहासिक निर्णय में जज ने लिखा था, ‘सुखदेव को इस षडयंत्र का मस्तिष्क कहा जा सकता है, जबकि भगत सिंह उसके दाहीने हाथ हैं.’ इस केस की जांच कर रहे तत्कालीन एस.एस.पी. हेमिल्टन हार्डिंग ने एफ.आई.आर. में पच्चीस दोषियों में से सुखदेव को प्रथम ओरापी बनाया था, जबकि भगत सिंह बारहवें और राजगुरु बीसवे आरोपी थे. इससे समझा जा सकता है कि सुखदेव कितने बड़े क्रांतिकारी थे. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों का नेतृत्व एक संगठनात्मक आंदोलन का रूप ले सका, इसका श्रेय सुखदेव को भी जाता है. सुखदेव के साथी और लाहौर षडयंत्र केस में आजीवन कारावास की सजा पाने वाले शिव वर्मा ने एक बार कहा था, ‘वास्तव में भगत सिंह पंजाब पार्टी के राजनीतिक परामर्शदाता थे, जबकि सुखदेव उसके संगठक थे. सुखदेव वे व्यक्ति थे, जिन्होंने संगठन की नींव का एक-एक पत्थर रखा.’ सुखदेव के बारे में कहा जाता है कि अपनी सहनशक्ति की परीक्षा के उद्देश्य से उन्होंने एक बार अपने बांयें हाथ पर बने ओम के निशान को हटाने के लिए पहले उस पर नाइट्रिक एसिड डाला और फिर उसे मोमबत्ती से जला लिया.
15 मई 1907 को पंजाब के लुधियाना में मां श्रीमती रल्ली देवी और पिता श्री राम लाल थापर जी के घर सुखदेव का जन्म हुआ. बचपन में ही सुखदेव के सर से पिता का साया उठ गया. इसके बाद ताऊ लाला अचिन्त राम ने इनका लालन-पालन किया. सुखदेव के भीतर बचपन में ही सेवा, त्याग और राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत हो गई थी. वे दूसरों की सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहते थे और अछूत कहे जाने वाले बच्चों को पढ़ाते भी थे. सुखदेव के भीतर एक क्रांतिकारी का भाव तब उत्पन्न हुआ, जब 12 साल की उम्र में उन्होंने जलियांवाला बाग़ नरसंहार के बारे में सुना. उनके इस क्रांति के भाव को दिशा देने का काम किया उनके अध्यापक जयचंद्र विद्यालंकार ने. सुखदेव जब लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया, तो यहीं पर उन्हें इतिहास के अध्यापक जयचंद्र विद्यालंकार का सान्निध्य मिला. इस कॉलेज में ही सुखदेव की मुलाकात भगत सिंह से हुई. इस विधालय के प्रबंधक भाई परमानंद भी जाने-माने क्रांतिकारी थे. यहीं पर सुखदेव और भगत सिंह के मन में व्यवस्थित क्रांति का बीज पड़ा. लाहौर में ही 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया गया, जिसके मुख्य संयोजक सुखदेव ही थे. इस संगठन में उनके साथ भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण, भगवती चन्द्र वोहरा, कॉमरेड राम चन्द्र और जयचंद्र विद्यालंकार जैसे क्रांतिकारी भी थे.
सुखदेव हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एच.आर.ए.) नामक क्रांतिकारी सभा के प्रमुख सदस्य थे. सितंबर 1928 में इस दल के कुछ सदस्यों ने उत्तर भारत के अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा की और आजादी की लड़ाई और भी धार देने के लिए एक नया संगठन गठित हुआ, जिसका नाम दिया गया, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.). भगत सिंह इस संगठन के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता. सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया. इस संगठन के माध्यम से युवा क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ अलख जगाना शुरू किया. इसी बीच साइमन कमीशन का विरोध करने पर हुए लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय का देहांत हो गया. सुखदेव और भगत सिंह ने इसका बदला लेने की ठानी. 19 दिसंबर 1928 को सुखदेव भगत सिंह और राजगुरु ने ब्रिटिश पुलिस ऑफीसर जेपी सौंडर्स की हत्या कर दी. इसके बाद इन्होंने केंद्रीय एसेंबली में बम फेंकने का फैसला लिया. इस सारी योजना के सूत्रधार सुखदेव ही थे. सुखदेव के कारण ही भगत सिंह को केन्द्रीय विधानसभा में बम फेंकने के लिए चुना गया था, क्योंकि सुखदेव का मानना था कि भगत सिंह द्वारा ऐसा करने पर पूरे देश में क्रांति का संदेश जाएगा. लाहौर षडयंत्र केस में आजीवन कारावास की सजा पाने वाले शिव वर्मा के अनुसार, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) की केन्द्रीय कमेटी ने फसला लिया था कि केन्द्रीय विधानसभा में बम फेंकने के लिए भगत को नहीं भेजा जाएगा. उस बैठक में सुखदेव उपस्थित नहीं थे. इस फैसले के तीन दिन बाद जब वे वापस आए, तो उन्होंने इस निर्णय का अत्यधिक विरोध किया. उनका मानना था कि एच.एस.आर.ए. की सोच और उद्देश्य को भगत सिंह से बेहतर कोई नहीं समझा सकता. सुखदेव ने तो इसके लिए भगत सिंह को भी धिक्कारा था कि आखिर उन्होंने ये फैसला मान कैसे लिया. अंतत: कमेटी ने अपना निर्णय बदलकर भगत सिंह को बम फेंकने के लिए चुना. लेकिन अपने प्रिय मित्र को इस तरह बलिदान के रास्ते पर आगे करने के फैसले से सुखदेव मन ही मन बहुत दुखी थे. दुर्गा भाभी जी के अनुसार, अगले दिन जब वे लाहौर पहुंचे तब उनकी आंखें सूजी हुई थीं, क्योंकि वे अपने निर्णय पर पूरी रात रोते रहे थे.
8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय विधानसभा में बम फेंकने की घटना के बाद चारो तरफ क्रांतिकारियों की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हुआ. इसी दौरान लाहौर में बम बनाने की एक फैक्ट्री पकड़ी गई, जिसमें अन्य क्रांतिकारियों के साथ सुखदेव भी गिरफ्तार हुए. केंद्रीय विधानसभा में भले ही भगत सिंह और राजगुरु ने बम फेंका हो, लेकिन इसके सुत्रधार सुखदेव ही थे. ये बात लाहौर षडयंत्र केस के इस शीर्षक से साबित होती है- ‘खप ींहश र्लेीीीं ेष ढहश ङरहेीश उेपीळिीरलू उरीश ढीळर्लीपरश्र, ङरहेीश, लेपीींर्ळींीींशव र्ीपवशी जीवळपरपलश पे खखख ेष 1930: ढहश उीेुप ड्ढ उेाश्रिरळपरपीं र्ीर्ंशीीीी र्डीज्ञहवर्शीं रपव ेींहशीी. ’ अंतत: 7 अक्टूबर 1930 को इन्हें फांसी की सजा सुनाई गई और 23 मार्च 1931 को मात्र 24 साल की उम्र ये महान क्रांतिकारी अपने साथियों भगत सिंह और राजगुरु के साथ हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गया. सुखदेव का जीवन हमारे लिए सदा ही प्रेरणा का स्त्रोत रहेगा. लेकिन ये देश का दुर्भाग्य है कि भारत की आजादी के लिए खुद को कुर्बान करने वाले इस क्रांतिकारी का एक राष्ट्रीय स्मारक भी देश में नहीं है.
नाइंसाफी के सवाल पर गांधी जी को सुखदेव का पत्र क्रांतिकारी बंदियों के साथ नाइंसाफी के सवाल पर सुखदेव ने जेल में रहते हुए महात्मा गांधी को एक पत्र लिखा था. गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक माह बाद 23 अप्रैल, 1931 को यंग इंडिया में छापा. सुखदेव ने लिखा था, ‘आपने अपने समझौते के बाद अपना आंदोलन (सविनय अवज्ञा आंदोलन) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ? 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं. बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं. मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं. बब्बर अकालियों का भी यही हाल है. देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद हैं. एक दर्जन से अधिक बंदी सचमुच फांसी के फंदों के इंतजार में हैं. इन सबके बारे में क्या हुआ?’
साथियों के नाम सुखदेव का अंतिम पत्र
7अक्टूबर-1930 को जब सुखदेव को उनके साथियों के साथ फांसी की सजा सुनाई गई, उसी दिन उन्होंने एच.एस.आर.ए. के अपने साथियों को ये पत्र लिखा था- लाला जी (लाला लाजपत राय) पर किए गए लाठियों के प्रहार ने पूरे देश में अशांति पैदा कर दी थी. हमारे लिए यह जनता को अपनी विचारधारा से अवगत करने का अच्छा अवसर था. अत: हमने सौन्डर्स की हत्या की योजना बनाई. हम लोगों को यह बताना चाहते थे कि यह एक राजनीतिक हत्या है, जिसे करने वाले क्रांतिकारी हैं. हमने हमेशा जनता की तकलीफों के विरोध में ही प्रतिक्रिया की है. हम जनता में क्रांतिकारी आदर्शों को बढ़ावा देना चाहते थे और इस तरह के आदर्शों की अभिव्यक्ति उस व्यक्ति के मुख से और भी अधिक गौरवान्वित प्रतीत होती है, जो स्वयं इन आदर्शों के लिए ही मृत्यु के द्वार पर खड़ा हो.