महाराष्ट्र में सहकारिता क्षेत्र के उद्योगों की हालत अच्छी नहीं है. मराठवाड़ा समेत सूबे की कई चीनी मिलें बंद हैं और इनकी संख्या हर साल बढ़ती जा रही है. केंद्रीय खाद्य, सार्वजनिक वितरण एवं उपभोक्ता मंत्रालय ने कुछ महीने पहले राज्य में क़रीब सौ नई चीनी मिलें स्थापित करने संबंधी मंजूरी दी है. इनमें अधिकांश चीनी मिलें निजी क्षेत्र के स्वामित्व में होंगी, जबकि सहकारी क्षेत्र के हिस्से में आधा दर्जन से भी कम चीनी मिलें आएंगी. अव्वल यह कि निजी चीनी मिल स्थापित करने के लिए आईं तमाम अर्जियों के आवेदकों में ऐसे राजनेताओं की संख्या अधिक है, जो कभी सहकारी आंदोलन के ज़रिये सियासत में क़ामयाब हुए. महाराष्ट्र में सहकारी चीनी मिलों को ख़त्म करने के पीछे क्या मक़सद है और इसमें राजनेता किस तरह शामिल हैं, पढ़िए चौथी दुनिया की इस ख़ास रिपोर्ट में…

page-4सहकारिता आंदोलन के सहारे महाराष्ट्र की राजनीति में अपना दख़ल क़ायम करने वाले राजनेताओं को सूबे में मौजूद सहकारी चीनी मिलें अब रास नहीं आ रही हैं. यही वजह है कि निजी चीनी मिलों के प्रति बड़े राजनीतिक घरानों की दिलचस्पी बढ़ गई है. दरअसल, पिछले दिनों महाराष्ट्र सरकार को क़रीब 100 नई चीनी मिलें स्थापित करने के लिए इंडस्ट्रियल एंटरप्रेन्योर मेमोरेंडम हासिल हुआ है. इनमें आधा दर्जन से भी कम सहकारी चीनी मिलें स्थापित होंगी. बाकी सभी चीनी मिलें निजी स्वामित्व की होंगी.
सहकारिता से जुड़े नेताओं की मानें, तो यह फैसला सहकारी चीनी मिलों को कमज़ोर करने की साज़िश है. उनके मुताबिक़, आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश की तरह महाराष्ट्र में भी निजी क्षेत्र की चीनी मिलों का वर्चस्व हो जाएगा. लातूर से प्रकाशित एक मराठी दैनिक अख़बार से जुड़े पत्रकार अनिल समुद्रे बताते हैं कि सहकारी चीनी मिलों के लिए यह ख़तरे की घंटी है, क्योंकि नई चीनी मिलें उनके गन्ना क्षेत्र में सेंध लगाएंगी. इस समय महाराष्ट्र में 224 चीनी मिलें हैं, जिनमें सहकारी चीनी मिलों की संख्या 173 है, जबकि 51 चीनी मिलें निजी क्षेत्र की हैं. इनमें 66 चीनी मिलें बंद पड़ी हैं. बंद होने वाली चीनी मिलों में सहकारी चीनी मिलों की संख्या अधिक है. मराठवाड़ा और विदर्भ में सूखे की वजह से भी कई चीनी मिलें बंद हुई हैं, लेकिन सूखे की आड़ में सहकारी चीनी मिलों के साथ एक बड़ी साज़िश हो रही है. ग़ौरतलब है कि नई चीनी मिल स्थापित करने के लिए सरकार ने वर्ष 2006 में नई नीति लागू की थी. इससे पहले 1998 में सरकार ने चीनी मिलों के लिए लाइसेंस की बाध्यता हटा दी थी, लेकिन गन्ना नियंत्रण अधिनियम के तहत दो चीनी मिलों के बीच 15 किलोमीटर की दूरी का प्रावधान है. इसी आदेश के तहत गन्ना जोन रिजर्व भी किया जाता है. दरअसल, सहकारी चीनी मिलों के सामने कई चुनौतियां हैं. मसलन, इन चीनी मिलों की ज़्यादातर मशीनें पुरानी हो चुकी हैं और उनकी कार्यक्षमता भी बेहतर नहीं है. ऐसे में निजी क्षेत्र की आधुनिक मशीनों के सामने उनका टिकना मुश्किल है. उस्मानाबाद में एक सहकारी चीनी मिल में कार्यरत अशोक तावड़े ने बताया कि सहकारी चीनी मिलों की स्थिति अच्छी हो सकती है, लेकिन यहां के राजनेताओं की रुचि इनमें नहीं रह गई है, क्योंकि वे ख़ुद निजी चीनी मिलों की वक़ालत कर रहे हैं.
सहकारी चीनी मिलों को तबाह करने में कई ऐसे राजनेता शामिल हैं, जो चुनाव के समय सहकारी उपक्रमों को मज़बूत बनाने की बात करते हैं. चौथी दुनिया का यह संवाददाता जब मराठवाड़ा में था, तो उस समय सूबे की सहकारी चीनी मिलों के लिए चुनाव होने वाले थे. विलासराव देशमुख, गोपीनाथ मुंडे और शरद पवार समेत कई नेताओं के पोस्टर इस दौरान देखने को मिले. विलासराव देशमुख और गोपीनाथ मुंडे का देहांत हो चुका है, लेकिन सहकारी चीनी मिलों पर अब उनके परिवारीजन क़ब्ज़ा जमाना चाहते हैं. लातूर के ज़िलाधिकारी पांडुरंग पोले ने चौथी दुनिया से ख़ास बातचीत में बताया कि महाराष्ट्र में सहकारी और निजी दो तरह की चीनी मिलें हैं. सहकारी चीनी मिलों को शासन की ओर से समय-समय पर मदद दी जाती है. यह पूछे जाने पर कि सहकारी चीनी मिलें और बैंकों की हालत सूबे में का़फी ख़राब है, इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? तो उन्होंने कहा कि पचास और साठ के दशक की राजनीति में सहकारिता के लिए कई अच्छे काम किए गए, जिनका परिणाम यह हुआ कि राज्य में बड़े पैमाने पर चीनी और कपास की फैक्ट्रियां लगाई गईं. पिछले बीस वर्षों के दौरान सहकारी क्षेत्र की कई चीनी मिलें और कपास आधारित उद्योग बंद हो गए. मराठवाड़ा क्षेत्र में चीनी मिलों की संख्या अधिक है, जबकि कपास की खेती भी यहां बड़े पैमाने पर होती है, लेकिन धागा बनाने की एक भी फैक्ट्री इस इलाक़े में नहीं है. यहां स़िर्फ कपास की गांठ बनाने के उद्योग हैं. हालांकि, सूखे की वजह से इस इलाक़े में कपास की खेती बुरी तरह प्रभावित हुई है, इसलिए गांठ बनाने वाली फैक्ट्रियां भी बंद पड़ी हैं. राष्ट्रीय स्तर पर कपास उत्पादन में महाराष्ट्र का दूसरा स्थान है. सूबे में क़रीब 1,100 कॉटन जीनिंग- प्रोसेसिंग कारख़ाने हैं. निर्यात पर पाबंदी और मराठवाड़ा में भयंकर सूखे की वजह से पिछले साल राज्य में महज़ 500 कारख़ाने ही चालू हुए. बीड ज़िले की गेवराई तहसील में कभी कपास बेचने वाले किसानों की कतार लगी रहती थी, लेकिन गत वर्ष बाज़ार समिति में वीरानी छाई रही. औरंगाबाद मराठवाड़ा का प्रमंडलीय ज़िला है. यहां ऑटो, इलेक्ट्रॉनिक्स, दवा, बीज, स्टील, कॉटन, पेपर मिल और शराब के कई कारख़ाने हैं. हालांकि, ये सभी कल-काऱखाने निजी क्षेत्र के हैं. औरंगाबाद में कपास आधारित कई सहकारी उद्योग भी थे, लेकिन हाल के वर्षों में वे सभी बंद हो गए. मराठवाड़ा की ग़रीबी और पिछड़ेपन को दूर करने में राज्य की पिछली कई सरकारें नाक़ाम रही हैं. मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की सरकार से लोगों को निराशा है, क्योंकि मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे राज्य के लोगों को उनसे कोई उम्मीद बंध सके. कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस सरकार ने कुछ वर्ष पहले एक नई वस्त्रोद्योग नीति बनाई थी, जिसमें दावा किया गया था कि आगामी पांच वर्षों के दौरान सूबे में 40 हज़ार करोड़ रुपये का निवेश किया जाएगा. तत्कालीन सरकार का दावा था कि इस योजना से कम से कम 11 लाख लोगों को रोज़गार मिलेगा. दरअसल, उन दिनों कांग्रेस गठबंधन सरकार सिंचाई समेत कई घोटालों में फंस चुकी थी, इसलिए नई वस्त्रोद्योग नीति सरकारी फाइलों तक ही सीमित रह गई और उसका कोई लाभ राज्य की जनता को नहीं मिला.


केंद्र सरकार निजी चीनी मिलों पर मेहरबान है
केंद्रीय खाद्य, सार्वजनिक वितरण एवं उपभोक्ता मंत्रालय ने महाराष्ट्र में नई चीनी मिलें स्थापित करने के लिए गन्ना नियंत्रण आदेश 1966 के उपखंड (6-ए) के तहत इंडस्ट्रियल एंटरप्रेन्योर मेमोरेंडम (आईईएम) दर्ज़ किए. 30 जून, 2014 और 30 सितंबर, 2014 के इन मेमोरेंडम पर निगाह डालें, तो महाराष्ट्र के विभिन्न ज़िलों में 77 नई चीनी मिलें स्थापित करने को मंजूरी दी गई है. 30 जून, 2014 के मेमोरेंडम में महाराष्ट्र में 64 नई चीनी मिलों का ज़िक्र है. दिलचस्प यह है कि स्थापित होने वाली इन नई चीनी मिलों में 60 निजी स्वामित्व वाली होंगी, जबकि महज़ चार चीनी मिलें सहकारी क्षेत्र की होंगी. 30 सितंबर, 2014 के मेमोरेंडम में 13 नई चीनी मिलों का वर्णन है. इस मेमोरेंडम में सहकारी क्षेत्र की पूरी तरह उपेक्षा की गई है, क्योंकि स्थापित होने वाली सभी 13 नई चीनी मिलें निजी स्वामित्व वाली होंगी.


सहकारी चीनी मिलों पर राजनेताओं का क़ब्ज़ा
महाराष्ट्र की सहकारी संस्थाएं ओछी राजनीति के दलदल में फंस चुकी हैं. महाराष्ट्र में शरद पवार, विलासराव देशमुख, नितिन गडकरी और गोपीनाथ मुंडे जैसे राजनेता सहकारिता के ज़रिये अपनी राजनीति चमकाने वालों में शुमार हैं. एक वक्त ऐसा था, जब सहकारिता के कारण महाराष्ट्र के किसानों को नई दिशा मिली थी और उनके लिए तरक्की की राह प्रशस्त हो सकी थी. भ्रष्टाचार के कारण बड़ी जोत वाले किसानों का दबदबा सहकारी चीनी मिलों पर बढ़ता चला गया और छोटे किसान उनसे दूर होते चले गए. इन सहकारी चीनी मिलों में होने वाले चुनाव में धनवान और शक्तिशाली किसान अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष जैसे पदों को हथियाने लगे. महाराष्ट्र में कोई भी ऐसी सहकारी संस्था नहीं है, जिस पर राजनीति एवं राजनीतिज्ञों का वर्चस्व न हो. आंकड़ों पर नज़र डालें, तो महाराष्ट्र की पांच ़फीसद चीनी मिलों पर भारतीय जनता पार्टी, साठ ़फीसद पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और पैंतीस ़फीसद चीनी मिलों पर कांग्रेस से जुड़े नेताओं का क़ब्ज़ा है.

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