पांच राज्यों के चुनाव समाप्त हो गए. इन चुनावों ने सभी को सीख दी, लेकिन कौन सीखेगा ये पता नहीं. चुनाव की पहली सीख अखिलेश यादव के लिए है कि आप जो करते हैं लोग उसे देखते हैं. जो अपने को समाज बदलने का प्रबल दावेदार कहते हैं, खासकर उनके काम बहुत देखे जाते हैं. अखिलेश यादव तो उत्तर प्रदेश की पूरी राजनीति बदलना चाह रहे थे.
22 से लेकर 35 साल तक के नौजवानों से विधानसभा को भर देना चाहते थे. उन्हें लगता था कि उत्तर प्रदेश के सभी लोग उनका खुले दिल से स्वागत करेंगे. वे स्वागत करते, अगर अखिलेश यादव के साथ संघर्ष नाम का शब्द जुड़ा होता, उनके पास बदले समाज की तस्वीर कैसी है, इसके बारे में लोगों को पता चल जाता. लोग अखिलेश यादव का साथ देते, अगर उन्हें लगता कि यह विनम्रता नकली नहीं है.
पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल यादव के साथ किया गया उनका व्यवहार लोगों के दिलों पर यह छाप छोड़ गया कि सारी विनम्रता और सारे वादे नक़ली हैं. अखिलेश यादव द्वारा ज़मीनी सच्चाई को न समझना और बिहार मॉडल का स़िर्फ दस प्रतिशत पालन करना, उनके लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन गया. अब लगता है कि उत्तर प्रदेश में अगले पांच साल मुलायम सिंह यादव के लिए संघर्ष करने का ही काम है. 40 साल तक संघर्ष कर मुलायम सिंह यादव ने पार्टी बनाई और 40 साल के बाद फिर उनके ऊपर संघर्ष करने का ज़िम्मा आ गया है.
उत्तर प्रदेश चुनाव की सीख मायावती के लिए भी है, जिन्होंने मान रखा था कि वोटर उनकी जेब में हैं और वो जैसा कहेंगी, दलित मतदाता वैसा ही करेगा. जिस तरह से वोट पड़े हैं, उससे लगता है कि दलितों का भी एक वर्ग छिटक कर भारतीय जनता पार्टी के साथ चला गया. मुसलमान बुरी तरह से बंट गए. यह अलग बात है कि मायावती ये दावा करें कि ईवीएम मशीन की वजह से वे हारी हैं. अगर यह सच्चाई है तो मायावती को आन्दोलन करना चाहिए और सड़क पर आन्दोलन कर सरकार को ललकारना चाहिए.
चूंकि मायावती ने कभी आन्दोलन नहीं किया है और न अखिलेश यादव ने आन्दोलन किया है, इसलिए यह मानना कि ये किसी प्रकार का संघर्ष सड़क पर करेंगे, सही नहीं लगता. राहुल गांधी का संघर्ष सिर्फ और सिर्फ संसद भवन के बाहर तक सीमित है. उन्हें अभी अपने बारे में बनाई गई छवि को तोड़ने की जद्दोजहद करनी पड़ेगी, अन्यथा लोग उन्हें गंभीरता से नहीं लेंगे. उन्हें गंभीरता से वही लेगा, जो उनकी पार्टी में है और जिसे पार्टी में रहना है.
उत्तर प्रदेश के ज्यादातर गैर मुस्लिम मतदाताओं के बीच यह प्रचार हुआ कि मुसलमान बड़ी संख्या में आबादी बढ़ा रहे हैं. अगर हिंदू एक न हुए तो मुसलमानों का वर्चस्व भारतीय राजनीति में हो जाएगा. इस प्रचार ने उन तबक़ों को अपने प्रभाव में ले लिया, जो तबके मायावती और मुलायम सिंह यादव के विचार के बताए जाते हैं. अति पिछड़ों का भारतीय जनता पार्टी में जाना, मुसलमानों का बंटना और गांव में होने वाला प्रचार, इन्होंने बिना मेहनत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अभियान को सफल बना दिया.
अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पूरा भरोसा होता कि इतना बड़ा बहुमत आ रहा है, तो वो तीन दिन बनारस में नहीं लगाते, पूरी कैबिनेट बनारस में नहीं रहती, अमित शाह एक महीने तक बनारस में नहीं रहते और प्रधानमंत्री को अपने भाषण में यह संकेत नहीं देना पड़ता कि उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा नहीं होनी चाहिए. उनकी पार्टी को बहुमत मिलना चाहिए. इतने बड़े बहुमत की कल्पना खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी ने नहीं की थी.
कांग्रेस को ज़िंदा रखना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रणनीति का एक हिस्सा है. कांग्रेस का नेतृत्व आज इतना कमज़ोर और दिशाहीन है, तर्कों से दूर है, मुद्दा विहीन है कि कांग्रेस को प्रमुख विरोधी के रूप में धराशाई करना नरेन्द्र मोदी के लिए बड़ी आसान चीज़ है. यह वही रणनीति है, जो कभी इंदिरा जी अपनाती थीं. वो अपना एक दुश्मन खड़ा करती थीं फिर उस दुश्मन को समाप्त करती थीं और चुनाव जीत जाती थीं. देश पर इसी तरह उन्होंने इतने लंबे समय तक राज किया.
विपक्षी दल इससे कितनी सीख लेंगे, पता नहीं. जब कभी विपक्षी एकता की बात होती है तो सबसे पहला सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री कौन होगा? इस पर एकमत हो जाएं तो एकता की बात हो. यह भावना उभर कर सामने आने लगती है कि ममता बनर्जी प्रधानमंत्री हैं, अखिलेश यादव प्रधानमंत्री हैं, मायावती प्रधानमंत्री हैं, लालू यादव प्रधानमंत्री हैं और नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री हैं. दूर बैठे नवीन पटनायक और चन्द्रा बाबू नायडू के दिमाग में भी प्रधानमंत्री पद पाने की लालसा काफी प्रबल है.
विरोधी दलों का सवाल है कि पहले हमें प्रधानमंत्री मानो, तब हम विपक्षी एकता की बात करेंगे. इतने प्रधानमंत्री और इतने दल एक नई वास्तविक स्थिति की रचना करते हैं. वो यह कि भारतीय जनता पार्टी या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन सबके मुक़ाबले बहुत बड़े क़द के हैं. वे 24 घंटे के राजनीतिज्ञ हैं. वे चाहे देश में हों या विदेश में, घूमते रहते हैं और अपनी कमज़ोरियों को अपनी ताक़त में बदलना जानते हैं.
विपक्षी नेताओं में किसी में इतना साहस नहीं है कि प्रधानमंत्री की कमियों को लेकर जनता को लामबंद करें, जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विपक्ष की कमियों या विपक्षी नेताओं की कमज़ोरियों को अपने भाषण में एक सशक्त मुद्दा बनाते हैं और विपक्ष को एक कोने में खड़े कर देते हैं. दरअसल विपक्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीतियों का जवाब दे रहा है, उनके मुद्दों का जवाब दे रहा है और उनके अखाड़े में जाकर लड़ रहा है, जबकि अगर विपक्ष को प्रधानमंत्री मोदी से लोहा लेना है तो उन्हें अपने अखाड़े में लाना पड़ेगा. यहां मुझे डॉक्टर राममनोहर लोहिया या विश्वनाथ प्रताप सिंह याद आते हैं.
वीपी सिंह खुद मुद्दे तय करते थे और सरकार उनके मुद्दों का उत्तर देती थी. यह अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरसिम्हा राव के समय हुआ और उससे पहले राजीव गांधी के समय भी हुआ. जब तक वीपी सिंह जीवित थे, 1987 के बाद का वक्त अगर याद करें, तो पूरी राजनीति उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों के इर्द-गिर्द ही चलती थी, कहीं दाएं-बाएं भाग ही नहीं पाती थी. यह दुर्भाग्य की बात है कि आज विपक्षी दलों में कोई ऐसा नेता नहीं है, जो अपने मुद्दों के आधार पर सरकार को जवाब देने के लिए विवश कर सके.
अप्रैल से विपक्षी दलों के बीच कुछ न कुछ बातचीत शुरू होगी, लेकिन इनमें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सभी लोगों को एक सूत्र में पिरो सके. उनको इस बात के लिए तैयार कर सके कि प्रधानमंत्री पद एकता की राह में रोड़ा नहीं बनना चाहिए. सब कहेंगे कि हमारे लिए प्रधानमंत्री पद का कोई महत्व नहीं है, लेकिन सबके लिए प्रधानमंत्री पद का महत्व है और सब अपनी कमज़ोर ताक़त के सहारे प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले हुए हैं. अगर सभी विपक्षी दल एक फेडरल पार्टी बनाते हैं और हर राज्य में लोकसभा की हर सीट पर अगर एक उम्मीदवार उतारने का फैसला करते हैं, तभी वो नरेन्द्र मोदी का मुक़ाबला कर पाएंगेे.
जिन दिनों इंदिरा गांधी या राजीव गांधी की सत्ता थी, उन दिनों सभी विपक्षी दल एकता की बात करते थे. रणनीतिक और वास्तविक एकता की बात करते थे और उस बातचीत में भारतीय जनता पार्टी भी शामिल होती थी. उन दिनों इस पार्टी का नाम जनसंघ था. डॉक्टर लोहिया के समय यह बातचीत में शामिल होती थी और बाद में जब इसका रूपांतरण, 1978 के बाद, भारतीय जनता पार्टी में हुआ, तब भी यह शामिल हुई.
अब भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस का स्थान ले रही है और सारे देश में एक ऐसी पार्टी के रूप में विकसित हो रही है, जो विपक्ष का खात्मा करने का सिद्धांत बनाए हुए है. इस रणनीति पर वो धीरे-धीरे सफल भी हो रही है. ऐसे समय में अगर भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ सभी दलों को एक होने की चुनौती स्वीकार्य नहीं होगी तो यह मानना चाहिए कि कुछ भी नहीं हो पाएगा.
एक-एक लकड़ी टूटती जाएगी और बचपन में पढ़ी हुई एक व्यक्ति और उसके सात बच्चों की कहानी सही होती चली जाएगी. जिसने अपने बच्चों से कहा था कि एक लकड़ी को तोड़ो तो तुम सब तोड़ सकते हो, लेकिन सात लकड़ियों का गट्ठर बनाओ तो कोई नहीं तोड़ पाएगा. हम सीख कहां लेते हैं? हमारा यह मानना है कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सशक्त विपक्ष आवश्यक है. अगर सशक्त विपक्ष नहीं बनता है, समझदार विपक्ष नहीं बनता है तो सरकारें बेलगाम हो जाती हैं. कालांतर में इसके बहुत से उदाहरण हैं.
जनता विपक्ष से इतनी हताश है कि वो उनके साथ खड़े होने में संकोच अनुभव करती है. उसे आशा ही नहीं है कि विपक्ष उनकी किसी समस्या का समाधान करेगा. शायद यही कारण है कि इस बार लोगों ने उत्तर प्रदेश में ऐसा बहुमत भारतीय जनता पार्टी को दिया कि वो इतिहास में पहले कभी नहीं मिला था. प्रधानमंत्री मोदी को हटाने के लिए नहीं, लेकिन एक सशक्त विपक्ष बनाने की ज़िम्मेदारी गैर भारतीय जनता पार्टी दलों की है. क्या वो दल अपनी इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी को निभाएंगे, अभी इसमें संशय दिखाई देता है.